सोमवार, 14 नवंबर 2016

भीड़ में सबसे पीछे खड़े का कौन सहारा !

तकरीबन सात-आठ साल से ब्लागिंग की दुनिया में रहने के बावजूद लगता है कि "वृत्तिकता" नहीं आ पायी है। यहां कभी-कभी पढने में या फोटुएं देख के लगता है कि कुछ लोग कितने जागरूक रहते हैं अपने आस-पास के माहौल को लेकर। यहां तो कई बार जान-बूझ कर मोबायल को घर पर छोड़ बाहर निकल जाता हूँ, फिर कुछ अलग सा देख-सुन कर, उस पल को संजो ना पाने का पछतावा भी होता है। वैसे भी आस-पास किसी घटना को सामान्य रूप से ले, भुला दिया जाता है जबकि उसका  वर्तमान के परिवेश से सीधा जुड़ाव होता है। 

यह बात तब फिर एक बार सही साबित हुई जब कल टी वी के किसी न्यूज चैनल पर, नोटों की बंदी पर रिक्शा चालकों, दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों, खोमचे वालों आदि के विचार लिए जा रहे थे। तभी मुझे ध्यान आया कि पांच-सात दिन पहले पर्यावरण को लेकर मचे हंगामें की प्रतिक्रिया में दिल्ली सरकार के भी जल्दबाजी में उठाए कुछ कदमों में, भवन निर्माण आदि पर कुछ दिनों के लिए रोक लगा दी गयी थी। उस काम में लगे दिहाड़ी के मजदूरों की परेशानी पर शायद ही किसी ने ध्यान दिया होगा। 

मेरे निवास के सामने ही एक बिल्डर द्वारा बहुमंजली इमारत बनाई जा रही है। उसमें काम करने वाले मजदूरों में एक का अपनी पत्नी और छोटे बच्चे के साथ वहीँ रहना होता है। उन्हीं दिनों एक सुबह घण्टी बजने पर जब श्रीमती जी ने द्वार खोला तो सामने काम करने वाली महिला एक छोटा सा बर्तन हाथ में लिए खड़ी थी, बोली आंटी जी थोड़ा दूध मिलेगा, बच्चा सुबह से भूखा है ! अब चाहे जिस कारण से भी उसने मांगा हो उसे दूध और जो कुछ भी हो सकता था उपलब्ध करवाया गया। फिर उसके सीधे-सरल, बिहार निवासी पति से ऐसे ही सहज भाव से कैसा-क्या है जानकारी ली तो उसने दिहाड़ी पर काम करने वालों की पचासों मुसीबतें गिना दीं। इसी सिलसिले में समय पर ठेकेदार से समय पर कुछ सहायता ना मिलने और जमा-पूँजी को पीछे गांव भेजने के कारण उठी उसकी बेबसी सामने आई। जिसके कारण उसे हमारे पास आना पड़ा था। 

वह तो, किसी प्रकार की जरुरत हो तो बिना झिझक बताने का आश्वासन पा, ढेर सी दुआ देता चला गया। यह तो एक सामने बैठा इंसान था, उस जैसे इस शहर में हजारों होंगे, फिर पूरे देश में ऐसे निरीह लोगों की कितनी संख्या होगी उसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है !  कौन सोचता हैं उनके बारे में ? कोई सोचता भी है कि नहीं ? उल्टे-सीधे, बड़े-छोटे, सरल-कठोर कानून थोपने से पहले देश के कर्णधार क्या कभी सचमुच ऐसे लोगों का ध्यान रख निर्णय लेते हैं ? या फिर........!!!      

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