माँ दिवाली के पहले जब सारे स्टाफ को मिठाई भेजती थीं तो हर घर के बच्चों के लिए उसके साथ ही पटाखे, फुलझड़ियाँ, अनार वगैरह आवश्यक रूप से साथ जरूर रखती थीं। अपने उन साथियों, हमजोलियों, सखाओं को इस तरह मिली अतिरिक्त ख़ुशी को देख मुझे भी बहुत आंनद आता था
जब भी कोई त्योहार आता है तब-तब उससे जुडी पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। अभी दो-एक दिन के बाद दीपावली आ रही है इसके साथ ही उससे जुडी दशकों पहले की बचपन की यादों ने ताजा-तरीन हो महकना शुरू कर दिया है। जो सबसे पुरानी बातें याद आ रही है वह शायद पचास एक साल पहले की हैं।
जब भी कोई त्योहार आता है तब-तब उससे जुडी पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। अभी दो-एक दिन के बाद दीपावली आ रही है इसके साथ ही उससे जुडी दशकों पहले की बचपन की यादों ने ताजा-तरीन हो महकना शुरू कर दिया है। जो सबसे पुरानी बातें याद आ रही है वह शायद पचास एक साल पहले की हैं।
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हमारे परिसर में तीन बंगले थे, जिनमें हमारे अलावा दो गुजराती परिवार थे। मैं उन्हीं के परिवार का अंग बन गया था इसीलिए मेरा पहला अक्षर ज्ञान गुजराती भाषा से ही शुरू हुआ था। बाकी के स्टाफ के लिए कुछ दूरी पर क्वार्टर बने हुए थे, दोनों रिहायशों के बीच बड़ा सा मैदान था, जो खेल-कूद के साथ-साथ पूजा वगैरह और त्योहारों की गतिविधियों के काम भी आता था। दिवाली के पहले धनतेरस को ही कलकत्ता से मिठाई और ढेर
सी, बड़ा सा टोकरा भर कर, आतिशबाजी मेरे लिए आ जाती थी। वैसे कहने को सारे पटाखे-फुलझड़ियाँ इत्यादि मेरे लिए ही होते थे, पर माँ दिवाली के पहले जब सारे स्टाफ को मिठाई भेजती थीं तो हर घर के बच्चों के लिए उसके साथ ही पटाखे, फुलझड़ियाँ, अनार वगैरह आवश्यक रूप से साथ जरूर रखती थीं। अपने उन साथियों, हमजोलियों, सखाओं को इस तरह मिली अतिरिक्त ख़ुशी को देख मुझे भी बहुत आंनद आता था। आज भी किसी को कुछ देकर मिलने वाली ख़ुशी पाने की आदत के बीज शायद बचपन से ही पड़ गए थे। इस में मेरे बाबूजी का बहुत बड़ा योगदान था। मैंने जब से होश संभाला तब से ही उन्हें दूसरों के लिए कुछ न कुछ करते ही पाया, वह भी चुपचाप बिना किसी तरह का एहसान जताए। खुद सादगी और किफायती रहने के बावजूद अपने माता-पिता और चार भाई-बहनों को कभी कोई अभाव महसूस नहीं होने दिया। वे भी उन्हें सदा पिता समान मानते रहे। वैसे भी परिवार के सदस्य हों या फिर दोस्त, मित्र या जान-पहचान वाले, कोई भी कभी भी उनके पास से खाली हाथ नहीं गया था। इसके साथ ही एक और
खासियत, जिसने मेरे गहरी छाप छोड़ी वह थी उनकी ईमानदारी, जिस पोस्ट पर वह थे वहां पर ईमान डगमगाने के अनेक बहाने और अवसर आते रहते थे पर उनका मन कभी भी नहीं डोला, दो-तीन वाकये तो मेरे सामने ही घटित हुए जिन्हें मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। उनको यह संस्कार मेरी दादी जी यानी उनकी माँ से मिले थे जिन्होंने अंग्रेजों की खिलाफत करते हुए जेल में अपनी आँखें गवां दी थीं पर एवज में सरकार से कभी कुछ नहीं चाहा। बात कहाँ की थी कहाँ पहुँच गयी। पर आज जब लोगों को सिर्फ मैं, मेरा, मेरे, करते पाता हूँ तो आश्चर्य होता है कि क्या वैसे लोग भी थे, जो सिर्फ दूसरों का सोचते थे ! यदि वे बिल्कुल मेरे ना होते तो शायद विश्वास भी ना होता ऐसी बातों पर !!
चलिए लौटते हैं वर्तमान में क्योंकि रहना तो इसीमें है ! शुभ पर्व दिवाली की आप सभी मित्रों, अजीजों को सपरिवार शुभकामनाएं।