आज बेंगलुरु में सिर्फ पांच लोगों के पास रॉल्स रॉयस गाडी है। उनमें से एक में चलने वाला, जिसके पास खुद का करीब 67 कारों का काफिला है, जो करोड़ों रुपयों का मालिक है, जिसके ग्राहकों में समाज के हर तबके के बड़े-बड़े नाम शामिल हैं, वह अभी भी जमीन से जुड़ा हुआ इंसान है
अपनी मेहनत, लगन, ईमानदारी से आदमी कहां से कहां पहुँच सकता है, यह देखना हो तो आपको बेंगलुरु जा कर रमेश बाबू से मिलना पडेगा। रमेश बाबू, जिनका काम है लोगों के बालों को काट-छांट कर नया रूप देना, सरल शब्दों में वे नाई का काम करते हैं। वे उस कहावत की जीती-जागती मिसाल हैं जिसमें कहा गया है कि कोई भी इंसान जो दूरदर्शी, ईमानदार और मेहनतकश हो उसे दुनिया की कोई भी ताकत सफल होने से नहीं रोक सकती। आज इन्हीं गुणों के कारण उनके साधारण से काम ने उन्हें समाज में असाधारण बना दिया है। ऐसा नहीं है कि वह इस तरह का पहला इंसान है जो गरीबी के फर्श से अमीरी के अर्श तक पहुंचा हो पर उसे आज भी अपने पुराने दिन भूले नहीं हैं।
पर यह सब उन्हें बैठे-बिठाए नहीं मिला है। भाग्य ने उनकी पूरी परीक्षा लेने के बाद ही उन्हें अपनी नियामत अता की है। वे जब सिर्फ 7 साल के थे, तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। उसके बाद रमेश बाबू की मां ने लोगों के घरों में काम कर किसी तरह अपने बच्चों पाला-पोसा। उनके पति बेंगलुरु के चेन्नास्वामी स्टेडियम के पास अपनी नाई की दुकान चलाते थे। जिसे उनकी मौत के पश्चात उन्होंने उस दुकान को महज 5 रुपए महीने पर किराए पर दे दिया था। जब रमेश कुछ बड़े हुए तब घर के हालात के कारण इंटरमीडिएट तक की शिक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ अपना परंपरागत काम करना शुरू कर दिया। उनकी किस्मत 1994 में बदलनी शुरू हुई जब रमेश ने कारों को किराए पर देने का काम शुरू किया। मारुति ओमनी वैन से शुरू किए गए उस काम ने उन्हें पीछे मुड कर देखने का मौका नहीं दिया। पर उनका दिल बालों को तराशने में ही रमता था। इसीलिए अपने इस पुस्तैनी काम को वे कभी भी छोड़ नहीं पाए। आज भी एक अमीर आदमी बनने के बावजूद रमेश अपनी जड़ें नहीं भूले हैं। आज वे अपनी जिंदगी के उस मुकाम पर हैं जहां वे अपनी शर्तों पर काम कर सकते हैं। वे चाहें तो अपने सैलून की दरें बढ़ा सकते हैं या फिर सैलून का काम छोड़ सकते हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। आज भी उनका मेहनताना सिर्फ सौ रुपये ही है। रमेश का कहना है कि यह उनका पुश्तैनी
काम है। रमेश के पैर जमीन पर किस तरह से टिके हुए हैं, इसका अंदाजा उनकी इसी बात से लग सकता है कि जिस दिन वे बाल नहीं काटेंगे, उस दिन वे सो नहीं पाएंगे। उन्हीं के शब्दों में, "मैं उस दिन को कभी भूल नहीं पाता हूँ, जिस दिन मेरे पिताजी का देहांत हुआ था और हम पूरी तरह बेसहारा हो गए थे। इसीलिए मैंने पढ़ाई छोड़ कर अपना पुस्तैनी धंदा अपना लिया था। पर कार का मालिक बनना मेरा सपना हुआ करता था। फिर शायद भगवान को हमारे पर दया आई और जहां मेरी माँ काम करती थीं उन्हीं ने मुझे कारों को किराए पर देने का काम शुरू करने को कहा। वही मेरी जिंदगी का अहम मोड़ साबित हुआ। पर मैंने जो भी काम किया पूरी लगन और मेहनत से किया यही मेरी सफलता का राज है।"
आज बेंगलुरु में सिर्फ पांच लोगों के पास रॉल्स रॉयस गाडी है। उनमें से एक में चलने वाला इंसान, जिसके पास खुद का करीब 67 कारों का काफिला हो, जो करोड़ों रुपयों का मालिक हो, जिसके ग्राहकों में समाज के हर तबके के बड़े-बड़े नाम शामिल हों, जो चाहे तो अपने काम की फीस कुछ भी ले सकता हो, अभी भी जमीन से जुड़ा हुआ वह इंसान है जो अपने अतीत को सदा याद रख रहा है। हालांकि उसकी आमदनी का जरिया कारों का काफिला है पर उसको अपने काम से जनून की हद तक लगाव है।