सोमवार, 4 मई 2015

माँ की सीख जो आज भी सामयिक है

बचपन घी लगे, सिके और फूले हुए फुल्के (रोटी) की ऊपरी पतली परत बहुत स्वादिष्ट लगती थी तो कई बार थाली में रोटी आते ही उसे उतार कर खा लिया करता था। एक बार माँ ने देखा तो टोकते हुए बोलीं कि किसी के पर्दे नहीं उघाड़ने चाहिए। उस समय तो पूरी बात समझ में नहीं आई थी पर समय के साथ यह ज्ञान हुआ कि रोटी का उदाहरण दे माँ ने कितनी बड़ी बात समझा दी थी। 

बड़ों द्वारा दी गयी गयी कुछ नसीहतें या सीखें ऐसी होती हैं जो मन में गहरे पैठ सदा मष्तिष्क से संपर्क बनाए रखती हैं इससे भविष्य में कभी भटकन के दौरान सही-गलत का अंदाजा होता रहता है। मेरी माताजी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं, पर व्यवहारिक ज्ञान, विवेकशीलता और दुनियादारी के चश्मे से देखा जाए तो वे विदुषी हैं। बातों-बातों में बड़ी सहजता से उन्होंने मानवता का दयालुता पाठ हमें पढ़ाया है। यही कारण है कि मनुष्य तो मनुष्य किसी जीव-जंतु, कीड़े-मकौड़े तक को अकारण कष्ट देना उचित नहीं लगता।   

आज कहीं ये लिखा पढ़ कर, कि दुनिया में सब खाली हाथ आते है और खाली हाथ ही जाते हैं, वर्षों पहले की उनकी एक बात याद आ गयी कि अपने-आप में शाब्दिक रूप में यह कहावत ठीक है और इससे यह सीख मिलती है कि जीवन की नश्वरता सबको याद रहे और इंसान लालच से बचे। यहां खाली हाथ जाने का मतलब यह है कि जाते समय कोई संपत्ति  यानी भौतिक संपदा नहीं ले जा पाता। पर कुछ लोग खाली हाथ नहीं जाते। क्योंकि  मनुष्य गुमनाम तो आता है, पर यह उसके परिश्रम और कर्मों पर निर्भर करता है कि जाते समय वह गुमनामी में न जाए। जाना तो सभी ने है। जिसने भी जन्म लिया है वो जाएगा जरूर। पर अच्छे कर्म करने वाले, दीन-दुखियों के सहायक, देश व समाज के प्रति समर्पित, इंसानियत के पैरोकार अपने पीछे अपनी कीर्ति-पताका को फहराता छोड़ जाते हैं और यही उनका खाली हाथ न जाना है। 

बचपन घी लगे, सिके और फूले हुए फुल्के (रोटी) की ऊपरी पतली परत बहुत स्वादिष्ट लगती थी तो कई बार थाली में रोटी आते ही उसे उतार कर खा लिया करता था। एक बार माँ ने देखा तो टोकते हुए बोलीं कि किसी के पर्दे नहीं उघाड़ने चाहिए। उस समय तो पूरी बात समझ में नहीं आई थी पर समय के साथ यह ज्ञान हुआ कि रोटी का उदाहरण दे माँ ने कितनी बड़ी बात समझा दी थी कि किसी भी हालात से मजबूर, समय के मारे, किसी मजलूम की हालत को सार्वजनिक नही करना चाहिए। सबको अपनी इज्जत प्यारी होती है पता नही किस की क्या मजबूरी हो ! तबसे हर बार खाने पर यह सीख याद आ जाती है।  

इसी तरह उनकी एक बात और नहीं भूलती। पुस्तक में एक पाठ हुआ करता था कि जोर के तूफान के आगे घास व नर्म पौधे तो बच जाते हैं पर बड़े-बड़े वृक्ष टूट कर ढह जाते हैं। माँ की व्याख्या कुछ अलग थी उन्होंने कहा, बेटा मौके की नजाकत को देख अपनी जान बचाने के लिए यदि सभी मौकापरस्त हो जाते तो देश को महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, भगत सिंह, गांधी जी जैसे नर-नाहर कैसे प्राप्त होते। यदि हम जुल्म के सामने झुके रहते या उसका विरोध न करते तो क्या आज देश आजाद होता ?   

समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया है। अब उस बदलाव का क्या बार-बार उल्लेख करना !                         

2 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

हम बुजुर्गों की नसीहतें भूल रहे हैं इसी का तो प्रनाम है कि आज हालात बद से बदत्तर होते जा रहे हैं1च्छी पोस्त के लिये बधाई1

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Nirmala ji,aabhar

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...