बंगाल की "काल बैसाखी", जिसमें आकाश पर छाए कभी गहरे काले, कभी धूसर, कभी सुरमई, कभी गहरे हरे रंग के बादलों, जो लगता है जैसे हाथ बढ़ा कर छू लिए जाने की दूरी तक आ गए हों, उनकी हर पल बदलती बनावट, उनकी गति जैसे कोई घुड़सवार सेना सामने वाले को नेस्तनाबूद करने चली आ रही हो, उनकी कान फोडू गर्जना और उनमें दौड़ती चपला को जो लगता है कि कभी भी आ कर शरीर को छू जाएगी, का प्रचंड रूप देख अच्छे-अच्छों का कलेजा दहल उठता हो, जिन्होंने भी वैसे तूफान का भीषण प्रकोप देखा होगा, जिसमें 30-30, 40-40 फुट के नारियल के वृक्षों की फुगनियाँ जमीन छूने को आतुर लगती हों, मजबूत से मजबूत पेड़ भी अपनी खैर ना मना पाते हों, छोटी-मोटी चीजें सैंकड़ों फिट दूर जा गिरती हों, सड़क पर वाहन चलना बंद हो जाते हों, पशु-पक्षी, जानवर-मानव सब अपनी जान की खैर मनाने लगते हों, नदी में विशाल लहरें उठने लगती हों किताबों में लिखी-पढ़ी "मूसलाधार" साक्षात सामने आ खडी होती हो, जमीन-आसमान का भेद ख़त्म-प्राय हो जाता हो, उन्हें तो दिल्ली की वह आंधी बचकानी सी लगी होगी जो पिछले महीने यानी मई की 30 तारीख शाम 5 बजे के आसपास आई थी, हालांकि उसने भी दिल्ली की हवा बंद कर दी थी, खुद तो गुजर गयी पर सवा घंटे के उस प्रकोप ने, ख़ासकर दक्षिणी-पश्चिमी दिल्ली वालों की नींद हराम कर

होना तो यह चाहिए कि आम आदमी को वस्तुस्थिति की साफ-साफ हालत बतला दी जाए, नागरिकों की हैसियत को नहीं बल्कि उनकी परेशानी को मद्दे-नजर रख जरूरी सुविधाओं को बराबर-बराबर मुहाल किया जाए. ऐसा नहीं कि दिल्ली के कुछ ख़ास इलाकों को दूसरे इलाकों की कीमत पर तजरीह दी जाए।

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