भारतीय फ़ुटबाल के लिए 1950 से 1962 का समय स्वर्णिम काल था. इसी समय में भारत एशिया का सर्वश्रेष्ठ दल रहा. शैलेन मन्ना, सैयद अब्दुल रहीम और नेविल डिसूजा जैसे दिग्गजों के सहारे उसने एशिया की अनेक प्रतियोगिताएँ जीतीं। नेविल डिसूजा तो एशिया के सबसे पहले हैट्रिक करने वाले खिलाड़ी भी बने।
संसार भर में मंडराते फुटबॉल के जरासीम अब देश के वातावरण में भी घुस-पैठ कर चुके हैं। कुछ ही समय पश्चात इनका असर भी दिखने लगेगा. खासकर दूसरे देशों के खिलाड़ियों की दीवानगी हमारी नौजवान पीढ़ी पर। वे भी क्या करें ! फीफा की रैंकिंग में डेढ़ सौ से ऊपर के स्थान पर रहने वाली हमारी घरेलू टीम वैसा जादू जगा भी तो नही पाती। वर्ल्ड चैंपियनशिप की तो रहने दें, अब तो एशिया महाद्वीप में भी हमारी पोज़िशन कोई ख़ास नहीं रही।
अंग्रेज सैनिकों द्वारा भारत में इस खेल को परिचित करवाने के बाद, सही मायनों में वर्ष 1930 में भारत के आकाश पर फुटबाल के खेल का आगाज हुआ था. भारतीय टीम ने इसी साल काफी दौरे भी किये थे, खासकर आस्ट्रेलिया, जापान, मलेशिया, थाईलैंड इत्यादि के. जिसकी सफलता की गूँज के तहत देश में बहुत सारे फुटबाल क्लब खुल गए थे और 1937 में आल इंडिया फूटबाल फेडरेशन का गठन भी हो गया था. एशिया में थोड़ा-बहुत दबदबा भी था. पर खेल का यह हाल था कि खिलाड़ी नंगे पैर ही खेला करते थे. 1948 के ओलिम्पिक में उन्होंने नंगे पैरों ही भाग लिया था. जिसको देखते हुए फीफा ने फ़ुटबाल में नंगे पैरों खेलने पर बैन लगा दिया था। ऐसे में ही 1950 के फीफा वर्ल्ड कप में भारत की एंट्री भी हो गयी थी. पर नौकर शाहों की अदूरदर्शिता के कारण टीम खेल में भाग नहीं ले सकी. कारण संघ के पास पैसे की कमी को बताया गया, जबकि फीफा खर्च का एक भाग उठाने को तैयार था. उसके बाद वैसा अवसर फिर कभी नहीं आया और निकट भविष्य में उसकी कोई आशा भी नहीं है।
शैलेन मन्ना |
इसी बीच एक और घटना घटी. 1952 के ओलिम्पिक में भारत को युगोस्लाविया से 10 - 1 से मिली शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा, तब जा कर अधिकारियों की आँखें खुलीं और भारतीय फ़ुटबाल दल को खेलने के लिए जूते उपलब्ध करवाए गये. 1956 के ओलिम्पिक में भारत का चौथा स्थान रहा जो आज तक हमारा सबसे उत्कृष्ट प्रदर्शन है. इसी में नेविल ने तीन गोल कर हैट्रिक बनाई थी.
पर फिर धीरे-धीरे दुनिया के सबसे सस्ते खेलों में शुमार यह खेल क्लबों तक सिमट के रह गया. मंहगे खेल और उनके खिलाड़ी इस पर भारी पड़ते चले गए. अब इसका जो हाल है वह सबके सामने है. लोगों को दूसरे देशों के खिलाड़ियों के नाम जुबानी याद होंगे, पर अपने देश के ग्यारह खिलाड़ियों को शायद ही कोई आम आदमी जानता हो.
3 टिप्पणियां:
बहुत रोचक जानकारी...जब तक खिलाडियों को प्रोत्साहन और सुविधाएँ नहीं दी जायेंगी हालात यह ही रहेंगे...
बढ़िया जानकारी देती पोस्ट है।
Accha laga sunke ki india ne football me bhi apna parcham lahraya hain...
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