देखा जाय तो देवताओं की भलाई के लिये सदा तत्पर रहने वाले नारद जी को सबसे पहला गुप्तचर माना जा सकता है। जिन्होंने एक तरह से खुद बदनामी मोल लेकर भी सुरों का भला करना नहीं छोड़ा।
वजूद में आने के बाद मनुष्य ने ज्यों-ज्यों अपनी पैठ, अपना वर्चस्व जगत में कायम किया होगा त्यों-त्यों अपना अस्तित्व बचाए रखने के साथ ही उसमें असुरक्षा की भावना भी घर कर गयी होगी। इसीलिये अपने को सुरक्षित रखने के लिये दूसरों के भेद जानने की प्रवृति भी अपने पैर जमाने लग गयी होगी। शुरुआत में यह बडे और खतरनाक जानवरों से अपने को बचाने के काम लाई जाती होगी। फिर बढती आबादी में यह आपस की टोह लेने में उपयोग की गयी होगी और इसी तरह धीरे-धीरे इजाद हुई होगी गुप्तचरी की कला।
यह एक बहुत पुरानी विधा है। हमारे प्राचीन ग्रंथों, महाकाव्यों में भी इसका विवरण आया है। रामायण-महाभारत में भी गुप्तचरों की वृहद जानकारी मिलती है। रावण की कूटनीति में गुप्तचरी को खासा स्थान प्राप्त था।
देवर्षि नारद मुनि |
रामायण में उसके विभिन्न गुप्तचरों के नामों का जगह-जगह उल्लेख मिलता है। शुक, सारण, प्रभाष, सरभ तथा शार्दुल उसके प्रमुख गुप्तचर थे। शुक और सारण को ही युद्ध के समय वानर भेष में रामसेना का भेद लेते पकड़ा गया था। उधर विभीषण के लंका के बाहर रहने के बावजूद उनके गुप्तचर लंका में सक्रिय थे जो समय-समय पर उन्हें रावण की गतिविधियों की जानकारी देते रहते थे। श्री राम के लंका विजय के बाद अयोध्या आने पर उनके गुप्तचर भद्रमुख ने ही उन्हें धोबी के कथन की जानकारी दी थी।
महाभारत में तो पग-पग पर गुप्तचारी के कारनामों का उल्लेख मिलता है। धृतराष्ट्र के प्रमुख गुप्तचर का नाम कणिक था। जिससे उसे सारे राज्य की खबरें मिला करती थीं। पांड़वों के अज्ञातवास के दौरान सैंकड़ों गुप्तचर उनका पता लगाने के लिये दुर्योधन ने छोड़ रखे थे। यह गुप्तचरों का ही काम था जो पांडव लाक्षागृह से सकुशल निकल पाये थे। कौरवों को गुप्तचरों द्वारा ही जयद्रथ वध की अर्जुन की प्रतिज्ञा का पता चला था।
महाभारत में शत्रू की सूचना प्राप्त करने के अनेकों उपाय बताये गये हैं। इस काम के लिये साधू, भिक्षुक, नटों, नर्तकियों और अंधे लोगों को उपयुक्त बताया गया है। पर साथ ही साथ संकट काल में इन्हें देश से निर्वासित करने की भी सलाह दी गयी है।
देखा जाय तो देवताओं की भलाई के लिये सदा तत्पर रहने वाले नारद जी को सबसे पहला गुप्तचर माना जा सकता है। जिन्होंने एक तरह से खुद बदनामी मोल लेकर भी सुरों का भला करना नहीं छोड़ा।
चाणक्य ने तो इस विधा को नयी ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया था। जिसके फलस्वरूप ही चंद्रगुप्त नि:शंक हो अपना राज कर सके।
गुप्तचरों के काम की कोई सीमा नहीं होती। नाही स्त्री-पुरुष का भेद होता है। महिलाओं ने भी इस क्षेत्र में बहुत यश कमाया है, जिसमें माताहारी का नाम सर्रवोपरि माना जाता है। गुप्तचरों या जासूसों को जहां संकट के समय हर छोटी-बड़ी सूचना अपने अधिकारी को देनी होती है वहीं शांतिकाल में भी राज्य की आंतरिक व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी भी इनकी होती है।
आज हालत यह है की इंसान तो इंसान जानवर तथा मशीनों का भी उपयोग जासूसी में होने लग गया है। जिसमें शत्रू मित्र का भेद भी ख़त्म हो चुका है। देशों की बात तो दूर अब तो व्यक्तिगत जासूसी आम हो गयी है। यहाँ तक की शादी के पहले भावी वर तथा वधू के आचरण को जानने के लिए लोग गुप्तचरों की सेवा बेहिचक लेने लगे हैं। अब तो हर छोटे-बडे शहरों में ऐसे गुप्तचरों की सेवाएं आम बात हो गयी है। पर क्या इससे हमारी आपसी समझ, विश्वास, भरोसा कहीं खत्म तो नहीं होता जा रहा ?
4 टिप्पणियां:
आजकल गुप्तचरी के उस मुकाम वाले लोग मिलना आसान नहीं है ।
गूढ़ विश्व की परतें खोलती गुप्तचरी..
विवेक जी
समय के साथ इस विधा में भी बहुत बदलाव आया है
प्रवीण जी
हार्दिक आभार
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