बुधवार, 5 जून 2013

आज का दिन गहन चिंतन का है

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। प्रदूषित होते अपने वातावरण को सुधारने की ओर ध्यान दिलाने का दिन। वैसे अपनी पृथ्वी, अपनी धरा, अपने संसार को बचाने के लिए किसी एक ही दिन सोचना कुछ औपचारिक लगता है क्योंकि यह समस्या धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करते जा रही है। इसी के फलस्वरुप आजकल सूरज का प्रकोप कुछ इस कदर बढ़ गया है कि समूचा देश त्राहि-त्राहि कर रहा है, खासकर मध्य से उत्तर भारत में दिन के शुरू होते ही सूरज सिर के ऊपर चढ़ आता है और देर रात तक उसकी मौजूदगी का तीखा एहसास बना रहता है। लोगों के लिए लू के थपेड़ों के बीच चलना दुस्साहस की मांग करता है। पशु-पक्षियों के लिए पानी की जरूरत पूरा करना जान लेवा होता जा रहा है। पेड-पौधे झुलस के रह गये हैं।

राहत के तमाम कुएं सूख चुके हैं और तालाबों में पानी नहीं के बराबर बचा है। मानसून को पूरे देश में पहुंचने में अभी भी विलंब है। अधिकांश राज्यों में पारा 40 के ऊपर बना हुआ है। वैसे देखा जाए तो सूरज का यह प्रकोप या रूप नया नहीं है। गर्मियां तो सदा से ही प्राकृतिक रूप से अपने नियमानुसार आती ही रहती थीं। पर तब प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता मधुर हुआ करता था, हमारे जीवन में तब मशीनों का इतना दखल नहीं हुआ था। भीषण गर्मियों में भी तब कुओं, तालाबों, सरोवरों में इफरात पानी होता था। बाग-बगीचों, पेड-पौधों, जंगलों की भरमार थी जो झुलसा देने वाली गर्म हवा से बचने का वायस होते थे। वर्षों पहले जब पंखे, कूलर, वातानुकूलन यंत्र नहीं होते थे तब भी इंसान सकून से समय बिता लेता था। क्योंकि प्रकृति उसकी सहायक हुआ करती थी। पर हमारी बेवकूफियों का ही यह नतीजा है कि आज अधिकांश आबादी को "टायलेट और दुषित" पानी को ही कुछ हद तक साफ कर फिर काम में लाना पड रहा है.  

इतिहास गवाह है कि दुनिया की महान सभ्यताएं नदी किनारों पर ही बसती पनपी थीं। आज सभ्यता बड़े-बड़े टाउनशिपों में पलती-पनपती है। जहां पानी की अविरल आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं है। पानी के अभाव का आलम यह है कि गर्मी के इस मौसम में राष्ट्रीय राजधानी में जलापूर्ति टैंकरों के भरोसे है, तो सोचा जा सकता है की बाकी राज्यों और शहरों का क्या हाल होगा.  ज्यादातर नदियां सूख कर अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। विडंबना है कि गर्मियों में अधिक मांग होने के कारण जब बिजली की कमी हो जाती है, तो पानी का भी अभाव हो जाता है।

आज मनुष्य के हित के लिए विकास अवश्यम्भावी है। पर उसी विकास के साधनों का अधिक इस्तेमाल करने के कारण पृथ्वी गर्म हो रही है। ऊपर से सूरज का प्रकोप, इन दो पाटों के बीच अपने जीवन को दुभर बनाने का  दोषी भी इंसान ही है। इसीलिए हर बार गर्मी के हर मौसम में हम सब को ऐसा कष्ट झेलना पडता है। इसके बावजूद हम अपने रहन-सहन का ढर्रा बदलने के बारे में नहीं सोचते। हमें लगता है कि  जब हमारे पास पूरा पानी है तो चिंता काहे की. पर यह समस्या व्यक्तिगत नहीं है। आने वाले दिनों में इसकी गिरफ्त में सारा संसार आने वाला है.  अभी भी कुछ नहीं बिगडा है। अभी भी सही दिशा में उठाया गया हमारा एक कदम आने वाली पीढ़ियों को सुख-चैन से जीने का अवसर दे सकता है. 

5 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच है, यदि हम आज यह चिन्तन न कर पाये तो कल पछतायेंगे।

Jyoti khare ने कहा…


सार्थक सच तो यही है,अब सबको चेतना चाहिये नहीं तो
सांस भी लेना दूभर हो जायेगा------
गहन अनुभूति
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर

आग्रह है मेरे ब्लॉग का भी अनुसरण करें
गुलमोहर------

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

सार्थक चिंतन ,पर यह बात सबको सोचना है तभी कुछ हो सकता है
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अपनी तरफ से जितना बन पडे खुद जरूर करना चाहिए। दूसरा कुछ करता है कि नहीं इसकी फिक्र छोड कर। दूसरों से आस लगाएंगे तो उस कहानी की तरह ही हाल होगा जिसमें राजा के दूध का तालाब बनाने की इच्छा पर सिर्फ़ पानी भरा ताल मिला था।
आज अपने लगाए गये 18 वृक्षों में से 14 को सर उठाए खडे देखता हूं तो कैसे सुख की अनुभूति होती है वह बयान नहीं कर सकता। यह भी सच्चाई है कि कुछ लोग चाहते हुए भी जगह की कमी या सार-संभार ना कर पाने की वजह से पौधा रोपण नहीं कर पाते। पर हां वे दूसरों को उत्साहित तो जरूर कर सकते हैं।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

दिलबाग जी, आभार, स्नेह बना रहे।

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