शुरू-शुरू में जब पहाड़ों पर पानी बरसने की खबरें आईं तो किसी ने उसकी भयावहता का अंदाज न लगाते हुए उसे हल्के से लेते हुए, मौसम की बारीश के रूप में ही लिया था। फिर जब उसकी तस्वीरें सामने आईं तो लोगों के रौंगटे खड़े हो गए, दिल हिल गये। पर अब जो खबरें आ रही हैं या भुग्तभोगी बता रहे हैं उससे तो सबके सिर शर्म के मारे नीचे हुए जा रहे हैं। चार-चार , पांच-पांच दिनों से भूखे प्यासे लोगों की सहायता तो दूर, उन्हें दुत्कारा जा रहा है। चार-पांच रुपये के बिस्कुट के पैकेट के 200 रुपये, पानी की एक बोतल के 100 रुपये, एक रोटी के 180 रुपये, थोड़े से चावलों के लिए 500 रुपये, आधे पेट भोजन के लिए 1000 रुपये तक वसूले जा रहे हैं। ना दे पाने की स्थिति में दुत्कारा जा रहा है। यहां तक कि छोटे बच्चों का रोना-कल्पना भी पत्थर दिलों को पिघला नहीं पा रहा। सुनने में तो यहां तक भी आया है कि लोग अपने बच्चों के लिए पैसा न होने की स्थिति में हजारों रुपयों की सोने की वस्तुएं 200-300 रुपये में दे खाना खरीदने पर मजबूर हो रहे हैं।
जान बचाने की कीमत वसूलने में गाड़ी-घोड़े वाले भी पीछे नहीं हैं, जोशीमठ से ऋषिकेश तक के लिए टैक्सीवाले 15000-15000 रुपयों की मांग कर रहे हैं। हेलीकाप्टर सेवा देने वाली कंपनियां जो दिन भर के हिसाब से पैसा लेती थीं अब घंटों के हिसाब से पैसा वसूलने लग गयी हैं। यात्रियों को यह समझ नहीं आ रहा की वे कुछ खा कर शरीर को बचाएं या भूखे-प्यासे रह, पैसे बचा, घर पहुँचने का इंतजाम करें।
प्रकृति के प्रकोप से किसी तरह जिनकी जान बच भी गयी है वे अब इंसान की लंपटता-लालसा के शिकार बन रहे हैं। मानवीय संवेदना, इंसानियत, भलमानसता इन सब शब्दों के चिथड़े-चिथड़े हो चुके हैं। आदमी, आदमी की मजबूरी का फ़ायदा उठाने से बाज नहीं आ रहा। वह भी भगवान के निवास में, उसकी नाक के नीचे। अभी भी वह पकृति के कोप, प्रभू की टेढ़ी चितवन को पहचान नहीं पा रहा है। और इसमें कोई आश्चर्य की या बड़ी बात भी नहीं है कि यदि कहीं किसी के द्वारा भ्रष्टाचार निवारण की बात उठाई जाती है तो ऐसे लोग वहाँ भी हाथ उठा चिल्ला-चिल्ला कर दूसरों पर दोष मढ़ते दिखाई देते हों। अपना दुष्कर्म न तो किसी को दिखाई पड़ता है नाही कोई उसे याद रखता है।
समझ में नहीं आता कि ऐसा करने वाले क्या उसी देश के वाशिंदे हैं जिस देश के किस्से-कहानियों में सदा मुसीबतजदा की सहायता की बातें की गयी हों। जिनमे अपनी जान पर खेल कर दूसरों की जान बचाने की शिक्षा दी गयी हो। जिनमे पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी वस्तुओं में अपने जैसा जीवन मान उन्हें यथासंभव संरक्षित करने पर जोर दिया गया हो। वहीं चंद सिक्कों के लाभ के लिए बच्चों तक को दरकिनार किया जा रहा है। उनका भूख के मारे रोना, चीखना-चिल्लाना भी किसी के मन में दया का संचार नहीं कर पा रहा।
वैसे इस कठोरता का एक पहलू और भी है। अधिकाँश स्थानीय लोग भविष्य की आशंका से सहमे हुए हैं। उन्हें डर है की अभी तो मानसून पूरी तरह शुरू भी नहीं हुआ है, आने वाले दिनों में न जाने क्या हाल हो, इस लिए भी वे अपनी जरूरत की वस्तुओं को बचा कर रखना चाहते हों। वैसे इसी बीच इक्का-दुक्का ऐसी भी खबरें आयीं हैं जिनमें कहीं-कहीं कुछ गांव वालों या लोगों ने बिना किसी लालच के जहां तक हो सका है बेबसों की सहायता की है। पर ऐसा बहुत कम ही हो पा रहा है।
एक कहावत है "यथा राजा तथा प्रजा।" तो क्या यह सब आजकल की संस्कृति, माहौल या चलन का फल है ? क्योंकि हम और हमारा इतिहास ऐसा तो न था !!!
3 टिप्पणियां:
विकास का ही ये नया इतिहास है..
भ्रष्टाचार के बड़े कारनामों ने छोटे लुटेरों की जमात तैयार ही कर दी, सच कहा, हम ऐसे कभी नहीं थे।
विकास का या विनाश का!!!
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