शनिवार, 1 दिसंबर 2012

कूडेघर में बीतती जिन्दगी


आज एक खबर पढी। इंसान की मजबूरी , उसकी विवशता, उसकी परिस्थितियां उसे कैसे-कैसे जीवन-यापन के लिए लाचार कर देती हैं यह उसका एक जुगुप्सा पैदा कर देने वाला उदाहरण है।
बात है नई दिल्ली के मस्जिद मोठ इलाके की। वहां के एक बीस वर्ग फुट के कूडा घर में, जहां की सडांध और गंदगी के कारण उसके पास एक आम आदमी का दस सेकेंड भी खडा रहना नामुमकिन हो जाता है, एक बासठ वर्षीय व्यक्ति अपने छह जनों के परिवार के साथ 38 सालों से रह रहा है। 

मस्जिद मोठ का कूडा घर, इनसेट में शोभराज 
गोरखपुर, यूपी से अपने भविष्य को संवारने के लिए शोभराज ने वर्षों पहले  दिल्ली का रुख किया था। पर किस्मत की मार, कोई काम ना मिलने की हालत में उसे लोगों के घर का कूडा उठा अपना पेट पालना पडा। पहले वह अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ नेहरु प्लेस के स्लम में रहता था। स्लम हटाओ अभियानके दौरान उसे मदनपुर में एक फ्लैट प्रदान भी किया गया था पर वहां से अपने कर्म-क्षेत्र मस्जिद मोठ के दूर होने के कारण उसने इस जगह शरण ले ली। परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों समय के साथ-साथ इंसान का जीवन भी चलता रहता है। इसी बीच शोभराज के दोनों बेटों का विवाह भी हो गया, बच्चे भी हो गये।बडे बेटे ने एक  कमरे का फ्लैट संभाल लिया  और शोभराज अपनी पत्नी, बेटे, उसकी पत्नी और दो साल के पोते के साथ यहां रह रहा है। शीत-ताप नियंत्रित कक्षों में बैठ कर मानव हितों की रक्षा पर लाखों रुपयों की एवज में बडी-बडी बातें बनाने वालों के चेहरे पर तमाचे की तरह है कि इस नारकीय स्थिति में रहने के लिए भी उसे 800 रुपये महीना देना पडता है।

आस-पास के लोगों के इस परिवार के प्रति अलग-अलग विचार हैं। कोई इनकी बेचारगी पर तरस खाता है तो कोई सरकारी जमीन पर रहना इनका अतिक्रमण मानता है। पर जो भी हो अपने मृदु व्यवहार के चलते इस परिवार से किसी को कोई शिकायत नहीं है। शोभराज के अनुसार प्रकृति भी अमीर-गरीब में भेद करती है। जहां अमीर इस कूडेदान के पास आते ही अपने को बीमार समझने लगता है वहीं छोटी-मोटी तकलीफ के अलावा उसका पूरा परिवार स्वस्थ ही रहता है। 

सौजन्य
TOI          

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

ईश्वर सबको स्वच्छ और सुरभित जीवन दे..

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

पता नहीं वह कहां सोया पडा है। चढावे वालों का बोलबाला हो गया है उसके दरबार में भी।

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