गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

जागो ! कि तुम आधा विश्व हो


पिछले कई दिनों से दिल्ली में दरींदों के वहशीपन का शिकार बनी बेकसूर लडकी को न्याय दिलाने के लिए सरकार और जनता के बीच ठनी हुई है। सरकारी पाले के लोग इस गलतफहमी में हैं कि हर बार की तरह यह मुसीबत भी वे मौन साध कर टाल देंगें। पर इस बार उनका यह काम बिल्ली और कबूतर का हश्र करने वाला होगा। जिम्मेदार लोग जब अपने घर में भी लडकियां होने की बात करते हैं तो वे यह भूल जाते हैं कि उनकी लडकियों और आम जनता की बेटियों की सुरक्षा में जमीन-आसमान का फर्क है। उनकी बच्चियां जहां सुरक्षा के अभेद्य किले में रहती हैं तो आम लडकियों की सुरक्षा के लिए एक मिट्टी की दिवार भी मुयस्सर नहीं होती। 

ठीक है कि दोषियों को कडी से कडी सजा मिलनी चाहिए पर सिर्फ ऐसे कुछ लोगों को सजा देने से यह कोढ खत्म नहीं हो जाएगा। आज किसी भी दिन का अखबार उठा कर देख लें इतनी अफरा-तफरी के बावजूद देश के किसी ना किसी कोने में होने वाली ऐसी हरकतों की खबर छपी ही रहती है। जो इस कडवी सच्चाई को इंगित करती है कि देश की राजधानी में उठे तूफान का असर देश के दूसरे भागों में रह रहे राक्षसों पर बेअसर ही है। डर, भय, इंसानियत जैसी बातें इनके दिलों से कोसों दूर जा चुकी हैं। इसकी कुछ ना कुछ वजह तो हमारी सडी-गली व्यवस्था भी है। जो एक्के-दुक्के दुष्कर्मी को दंडित करने से सुधरने वाली नहीं है।  आज जरूरत है सोच बदलने की। इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। महिलाओं को दिल से बराबरी का दर्जा देने की। सबसे बडी बात महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करने की। यह इतना आसान नहीं है, हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन पुरुष उन्हें परोस कर अपना मतलब साधते रहते हैं। यह क्या पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन, आठ मार्च, महिला दिवस जैसा नामकरण कर उनको समर्पित कर दिया है। कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है? यदि ऐसा नहीं है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता? पर सभी खुश हैं। विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।  
आश्चर्य होता है, दुनिया के आधे हिस्से के हिस्सेदारों के लिए, उन्हें बचाने के लिए, उन्हें पहचान देने के लिए, उनके हक की याद दिलाने के लिए, उन्हें जागरूक बनाने के लिए, उन्हें उन्हींका अस्तित्व बोध कराने के लिए एक दिन, 365 दिनों में सिर्फ एक दिन निश्चित किया गया है। इस दिन वे तथाकथित समाज सेविकाएं भी कुछ ज्यादा मुखर हो जाती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए, जो खुद किसी महिला का सरेआम हक मार कर बैठी होती हैं। पर समाज ने, समाज में  उन्हें इतना चौंधिया दिया होता है कि वे अपने कर्मों के अंधेरे को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे। जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की, अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की। अपने सोए हुए जमीर को जगाने की। 

ऐसा भी नहीं है कि महिलाएं उद्यमी नहीं हैं, लायक नहीं हैं, मेहनती नहीं हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। पर पुरुष वर्ग ने बार-बार, हर बार उन्हें दोयम होने का एहसास करवाया है। आज सिर्फ माडलिंग को छोड दें, हालांकि वहां और बहुत से तरीके हैं शोषण के, तो हर जगह, हर क्षेत्र में महिलाओं का वेतन पुरुषों से कम है। हो सकता है इक्की दुक्की जगह इसका अपवाद हो।

इतिहास और पौराणिक ग्रंथ तक इसके गवाह हैं कि जब-जब पुरुष को महिला की सहायता की जरूरत पड़ी है उसने उसे सिर-आंखों पर बैठाया है, मतलब निकलते ही तू कौन तो मैं कौन? हमारे ग्रन्थों में वर्णित किस्से-कहानियां चाहे कल्पना हो चाहे हकीकत, उसमें भी नारी से पक्षपात सामने नजर आता है। देव जाति जो अपने आप को बहुत दयालू, न्यायप्रिय, सबका हित करने वालों की तरह पेश करती आई है, उस पर भी जब-जब मुसीबतें पड़ीं तो उसने भी एकजुट हो कर शक्ति रूपी नारी का आवाहन किया पर मुसीबत टलते ही उसे पूज्य बना कर एक कोने में स्थापित कर दिया। कभी सुना है कि स्वर्ग में किसी महिला का राज रहा हो। इस धरा पर माँ जैसा जन्मदाता, पालनहार, ममतायुक्त, गुरू जैसा कोई नहीं है फिर भी अधिकांश माताओं की हालत किसी से छिपी नहीं है।  

जब भी कभी इस आधी आबादी के भले की कोई बात होती है तो वहां भी पुरुषों की ही प्रधानता रहती है। वहां इकठ्ठा हुए बहूरूपिए कभी खोज-खबर लेते हैं, सिर पर ईंटों का बोझा उठा मंजिल दर मंजिल चढती रामकली की। अपने घरों में काम करतीं, सुमित्रा, रानी, कौशल्या, सुखिया की। कभी सोचते हैं तपती दुपहरी में खेतों में काम करती रामरखिया के बारे में। कभी ध्यान देते हैं दिन भर सर पर सब्जी का बोझा उठाए घर-घर घूमती आसमती पर। नहीं ! क्योंकि उससे अखबारों में सुर्खियां नहीं बनतीं, टी.वी. पर चेहरा नज़र नहीं आता। ऐसा यदि करना पड़ जाता है तो पहले कैमरे और माईक का इंतजाम होना जरूरी होता है। ऐसे दिखावे जब तक खत्म नहीं होंगें, महिला जब तक महिला का आदर करना नहीं शुरु करेगी तब तक चाहे एक दिन इनके नाम करें चाहे पूरा साल। चाहे किसी शहर के दरिंदों को सजा मिल भी जाए कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

3 टिप्‍पणियां:

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

गगन जी, आपका विचार-प्रवाह आदि से अंत तक केवल समस्या पर ही प्रकाश नहीं डालता, समाधान की भाषा भी बोलता है।

जब तक समूचे विश्व की आधी आबादी अपने लिए अलग से छोटी-छोटी व्यवस्थायें करवाने में ही संतोष मानेगी तब तक बदलाव नहीं आने वाला।

आप सही कहते हैं आधी आबादी को बराबरी का दर्जा देना होगा ...सर्वप्रथम, सामाजिक संकीर्णताओं से निकलकर नारी को नारी के लिए ही प्रयास करने होंगे। उसके बाद क्रमतर बदलाव भी आयेगा। पुरुषवादी (तानाशाही) परम्परायें अपना सनातनी चोला त्यागकर नया वैदिक चोला धारण करेंगी।

जानता हूँ ... वैचारिक क्रान्ति ही धीरे-धीरे सामाजिक क्रान्ति में तब्दील होती है। और इस वैचारिक क्रान्ति को सुलगाने में आपके आलेख की चिंगारी भी योगदान करेगी।

अन्तर सोहिल ने कहा…

सार्थक आलेख

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

प्रकृति के दो हिस्से भला बिना सच्चे प्रेम के कैसे रह सकते हैं।

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