अब सोचता हूँ, यह कैसा है मेरा देना? जो चारों ओर तनावयुक्त माहौल बनाता है। सभी को तो कुछ ना कुछ दिया ही पर कोई भी खुश नजर नही आया। यहां तक कि मैं खुद अजीब सा महसूस कर रहा हूं। सिर भारी हो गया है। धड़कनें तेज हो रही हैं। रक्त-चाप बढा हुआ लग रहा है। थकान हावी है......................
पिछला सप्ताह "देने के सुख का सप्ताह" यानी "Joy of giving week" के नाम से मना या मनाया गया । मीडिया और बाजार बार-बार याद दिला रहा था, कि कुछ दान दक्षिणा करो भाई; देखो देने में कितना सुख मिलता है (किसे? खरीदना तो बाजार से ही है ना) याद करो हमारे पूर्वज कैसा-कैसा दान करते थे, देते-देते खुद नंगे-भिखमंगे हो जाते थे। बहुतों ने तो इस सुख के लिए अपनी जान तक गंवा दी थी। कई रसातल में जा पहुंचे थे। बहुतों ने तो अपना परिवार तक गंवा दिया था। तुम भी सोचो मत दूसरों को कुछ तो दो।
इस समझाइश से थोड़ा जागरुक हो कर मैंने भी अपने चारों ओर नजर दौड़ाई तो पाया कि प्रकृति और भगवान जैसी दार्शनिकता को छोड़ भी दें तो भी कोई ना कोई, कुछ ना कुछ तो दे ही रहा है और बदले में खुशी हासिल कर रहा है।
मतलबी देने लेने को देखें तो नेता वर्षों से आश्वासन देता आ रहा है और परिवार समेत खुश-समृद्ध रहता है। कारोबारी व्यक्ति प्रलोभन देता है और अपनी खुशी का इंतजाम करता है। छोटे व्यापारी तीन के बदले चार जैसा कुछ देते हैं, देने वाला जेब कटवा कर और लेने वाला दाम बना कर खुश हो जाते हैं।
पर कहीं-कहीं आपको सचमुच कुछ देकर भी खुश होने वाले लोग हैं। जो बिना किसी अपेक्षा के खुशियाँ बाँटते हैं, जिनसे आप रोज कुछ पाते हैं पर ध्यान नहीं देते। बुजुर्ग आशीर्वाद देते हैं जिससे आपको संबल मिलता है, मनोबल बना रहता है। पत्नी मुस्कान देती है, आपका हाथ बटाती है, घर-घर लगता है। भाई-बहन स्नेह देते हैं। बच्चे प्यार देते हैं। आपका जीवन सुखमय बना रहता है।
इतना सब मनन-चिंतन कर मैंने सोचा कि देखूं तो मैंने अब तक क्या दिया है दूसरों को? कुछ समझ नहीं आया, फिर थोड़ा ध्यान लगाया, याद किया सुबह से अपनी गतिविधियों को तो पाया कि मैं भी किसी से पीछे नहीं हूँ, बहुत कुछ देता आ रहा हूँ सभी को। सबेरे-सबेरे मां पापा को बिना मिले, बताए निकल आया था। चिंता सौंप आया था। अब दिन भर फिक्र करेंगे कि गुमसुम सा गया है सब ठीक-ठाक हो। मंहगाई का अंत नहीं है, पर्स कहता है मुझे हाथ मत लगाओ, पत्नी परेशान थी कुछ जरूरी खरीदारी करनी थी, ड़पट दे कर आया था। बच्चे तना चेहरा देख दुबके रहे। घर के माहौल का भारीपन महसूस करते रहे होंगें, उन्हें नजरंदाजी दे आया था। दफ्तर आ कर दो-चार को हड़कान दी बेवजह तनाव बनाया। आज बहुत जरूरी काम था, बास सोच रहा था शर्मा आएगा तो हो जाएगा। पर उसे भी टेंशन थमा दिया कि आज तो कुछ भी पूरा नहीं ही हो पाएगा।
अब सोचता हूँ, यह कैसा है मेरा देना? जो चारों ओर तनावयुक्त माहौल बनाता है। सभी को तो कुछ ना कुछ दिया ही पर कोई भी खुश नजर नही आया। यहां तक कि मैं खुद अजीब सा महसूस कर रहा हूं। सिर भारी हो गया है। धड़कनें तेज हो रही हैं। रक्त-चाप बढा हुआ लग रहा है। थकान हावी है। यह कैसा सुख है देने का?
सोचिए, ध्यान से, कहीं आप भी मेरी तरह, ऐसा ही कुछ तो नहीं दे रहे दूसरों को ?
4 टिप्पणियां:
हमें कुछ ऐसा परोसना चाहिए जो दूसरों को स्वादिष्ट लगे!
सदा हमें कम से कम में जीवन बिताना चाहिये।
sahi kahaa aapane...
इस आलेख के माध्यम से बहुत बड़ी सीख दी है आपने दूसरों को ऐसा कुछ दो जिससे दूसरों को भी ख़ुशी मिले और अपना दिल दिमाग भी तरोताजा रहे ये सोचकर पछतावा ना हो की हमने ये क्या दिया वाह बहुत बढ़िया आलेख दिया है आपने हम भी खुश और आपको तो हर टिपण्णी पर ख़ुशी मिलेगी
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