वैसे समय की मार और भगवान की बेआवाज लाठी पडने के पहले भाग्यवश कुछ लोग इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि अपने आप को खुदा समझ बैठने की गलती कर बैठते हैं पर ऐसे लोगों का हश्र भी दुनिया सैंकडों बार देख चुकी है।
पिछले दिनों बीसीसीआई और महेंद्र अमरनाथ के बीच धोनी के कारण मतभेद होने के चलते क्रिकेट के प्रति समर्पित और सच्चाई के पक्षधर महेंद्र अमरनाथ को बाहर का रास्ता देखना पडा था। वह भी तब जब कुछ ही दिनों के बाद श्रीकांत के कार्य-काल के समापन के बाद उन्हें मुख्य चयनकर्ता का पद मिलना तय था। उन्हें वह साठ लाख की भारी-भरकम रकम का लालच भी अपने विचारों से नहीं डिगा पाया जो उन्हें पद ग्रहण करने के बाद मिलने वाली थी। पर जो अमरनाथ परिवार के बारे में जानते हैं उन्हें इस बात पर आश्चर्य नहीं हुआ होगा क्योंकि सच कहना और वस्तुस्थिति उजागर करना इस खानदान की आदत रहा है, उसके लिए चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पडा हो।
आजादी के पहले क्रिकेट के खेल पर राजा-महाराजाओं तथा सामंतों का दबादबा हुआ करता था। उनके सामने कोई अपना मत तो दूर जबान खोलने की हिम्मत भी नहीं रखता था। उस समय महेंद्र के पिता लाला अमरनाथ, जो एक स्वाभिमानी और सच्चाई के पक्षधर इंसान थे और जो स्वतंत्र भारत के पहले क्रिकेट कप्तान बने, ने 1936 के इंग्लैंड दौरे पर कप्तान महाराज कुमार विजयनगरम से मतभेद होने पर टीम में रहना गवारा ना करते हुए वापस घर का रुख कर लिया था। बाद में जिनकी अगुवाई में भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध पहला टेस्ट मैच जीता था।
हमारी बीसीसीआई का दबदबा तो दुनिया भर के क्रिकेट कंट्रोल बोर्डों पर हावी है। कोई भी इसकी अवहेलना नहीं कर सकता क्योंकि इसकी एक टेढी भृकुटि उस देश में क्रिकेट की लहलहाती फसल पर पाला मार सकती है। ऐसी शक्तिशाली संस्था को भी उसके विवादास्पद निर्णयों के कारण महेंद्र ने जोकरों का जमावडा कह दिया था। इसी से उनकी निर्भीकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। अब भी अंतर्राष्ट्रीय मैचों में धोनी की लगातार असफलता के कारण उन्होंने कप्तान बदलने की आवाज उठाई थी जो धोनी के आकाओं को नागवार गुजरी और उसी के फलस्वरूप उन्हें अपना पद छोडना पडा।
पर टी-20 के वर्ल्ड-कप में शर्मनाक हार के बाद अब धोनी के विरुद्ध जगह-जगह से आवाज उठने लगी हैं। यहां तक कि बीसीसीआई के एक सज्जन ने भी धोनी-सहवाग के बीच की अनबन को जाहिर कर दिया है। अब देखना यह है कि धोनी के सरपरस्त कुछ लोग उसके बचाव के लिए क्या करते हैं। वैसे समय की मार और भगवान की बेआवाज लाठी पडने के पहले भाग्यवश कुछ लोग इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि अपने आप को खुदा समझ बैठने की गलती कर बैठते हैं पर ऐसे लोगों का हश्र भी दुनिया सैंकडों बार देख चुकी है। पर फिर भी यह नस्ल ख़त्म नहीं होती दिखती।
5 टिप्पणियां:
सच बोलने वाले अभी भी हैं, ईश्वर का शुक्र है ।
जब तक चलती है गाडी तो सब चुपचाप बैठे रहते है जब रुक गयी तो आवाज ही आवाज हर तरफ से ..
बहुत बढ़िया सामायिक प्रस्तुति
साठ लाख की रकम थी, नहीं डिगा ईमान ।
गोपी चन्द्र, सुशील के, विज्ञापन मदपान ।
विज्ञापन मदपान, छोड़ते बड़ी खिलाड़ी ।
अमरनाथ भी श्रेष्ठ, रवैया नहीं अनाड़ी ।
छोड़ें नहिं सिद्धांत, हमेशा फ़िक्र शाख की ।
मारा झटपट लात, नौकरी साठ लाख की ।।
रविकर जी, जवाब नहीं, बहुत खूब।
सत्यमेव जयते.
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