बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

रावण का अंतर्द्वंद्व

हमारे प्राचीन साधू-संत, ऋषि-मुनि  अपने  विषयों के प्रकांड  विद्वान हुआ  करते थे।   उनके द्वारा  बताए   गए उपदेश,  कथाएँ,   जीवनोपयोगी  निर्देश   उनके जीवन   भर के      अनुभवों का सार हुआ करता था जो आज भी प्रासंगिक हैं। उनके कहे पर शक करना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा ही है। पर समय के साथ या फिर अपनी क्षुद्र बुद्धि से कुछेक लोगों ने  अपने हितों के लिए उनकी हिदायतों को तोड़ मरोड़ लिया हो, ऐसा भी संभव है। रामायण के सन्दर्भ में ही देखें तो करीब पांच हजार साल पहले  ऋषि वाल्मीकि जी  के   द्वारा    उल्लेखित रावण में  और आज के प्रचारित रावण  में जमीन-आसमान का फर्क देखने को मिलता है....      


अभी भी सूर्योदय होने में कुछ विलंब था। पर क्षितिज की सुरमयी कालिमा धीरे-धीरे सागर में घुलने लगी थी। कदर्थित रावण पूरी रात अपने महल के उतंग कंगूरों से घिरी छत पर बेचैन घूमता रहा था। पेशानी पर बल पड़े हुए थे। मुकुट विहीन सर के बाल सागर की हवा की शह पा कर उच्श्रृंखलित हो बार-बार चेहरे पर बिखर-बिखर जा रहे थे। रात्रि जागरण से आँखें लाल हो रहीं थीं। पपोटे सूज गए थे। सदा गर्वोन्नत रहने वाले मस्तक को कंधे जैसे संभाल ही नहीं पा रहे थे। तना हुआ शरीर, भीचीं हुई  मुट्ठियाँ, बेतरतीब डग, जैसे विचलित मन की गवाही दे रहे हों। काल की क्रूर लेखनी कभी भी रावण के तन-बदन या मुखमंडल पर बढती उम्र का कोई चिन्ह अंकित नहीं कर पायी थी। वह सदा ही तेजस्वी-ओजस्वी, ऊर्जावान नजर आता था । पर आज की घटना ने जैसे उसे प्रौढ़ता के द्वार पर ला खड़ा कर दिया था। परेशान, चिंताग्रस्त रावण को अचानक आ पड़ी विपत्ति से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। एक ओर प्रतिष्ठा थी, इज्जत थी, नाम था, धाक थी जगत मे। दूसरी ओर इस जीवन के साथ-साथ पूरी राक्षस जाति का विनाश था। 


कल की ही तो बात थी। रोती कलपती उच्छिन्ना शुर्पणखा ने भरे दरबार में प्रवेश किया था। सारा चेहरा खून से सना हुआ था, हालांकि नाक-कान पर खरुंड ज़मने लगा था पर खून का रिसना बंद नहीं हुआ था। जमते हुए रक्त ने जुल्फों को जटाओं में बदल कर रख दिया था। रेशमी वस्त्र धूल-मिटटी व रक्त से लथ-पथ हो चीथड़ों में बदल गए थे। रूप-रंग-लावण्य सब तिरोहित हो चुका था,बचा था वीभत्स, डरावना, लहुलूहान चेहरा। राजकुमारी को ऐसी हालत में देख चारों ओर सन्नाटा छा गया था। सारे सभासद इस अप्रत्याशित दृश्य को देख कर सकते मे आ खडे हो गये थे। विशाल बाहू रावण ने दौड कर अपनी प्यारी बहन को अपनी सशक्त बाहों का सहारा दे अपने कक्ष मे पहुंचाया तथा स्वयं मंदोदरी की सहायता से उसे प्राथमिक चिकित्सा देते हुए अविलम्ब सुषेण वैद्य को हाजिर होने का आदेश दिया। घंटों की मेहनत और उचित सुश्रुषा के बाद कुछ व्यवस्थित होने पर शुर्पणखा ने जो बताया वह चिंता करने के लिये पर्याप्त था।



 शुर्पणखाअपने भाईयों की चहेती, प्राणप्रिय, इकलौती बहन थी। बचपन से ही सारे भाई उस पर जान छिडकते आए थे। उसकी राह मे पलक-पांवडे बिछाये रहते थे। इसी से समय के साथ-साथ वह उद्दंड व उच्श्रृंखल होती चली गयी थी। विभीषण तो फिर भी यदा-कदा उसे मर्यादा का पाठ पढ़ा देते थे, पर रावण और कुम्भकर्ण तो सदा उसे बालिका मान उसकी जायज-नाजायज इच्छाएं पूरी करने को तत्पर रहते थे। यही कारण था कि पति के घर की अपेक्षा उसका ज्यादा समय अपने पीहर में ही व्यतीत होता था। यहां परम प्रतापी भाईयों के स्नेह का संबल पा शुर्पणखा सारी लोक-लाज, मर्यादा को भूल बरसाती नदी की तरह सारे तटबंधों को तोड दूनिया भर मे तहस-नहस मचाती घूमती रहती थी। ऋषि-मुनियों को तंग करना, उनके काम में विघ्न डालना, उनके द्वारा आयोजित कर्म-कांडों को दूषित करना उसके प्रिय शगल थे और इसमे उसका भरपूर साथ देते थे खर और दूषण।

इसी तरह अपने मद में मदहोश वह मूढ़मती उस  दिन अपने सामने राम और लक्ष्मण को पा उनसे प्रणय निवेदन कर बैठी और उसी का फल था यह अंगविच्छेद। क्रोध से भरी शुर्पणखा ने रावण को हर तरह से उकसाया था अपने अपमान का बदला लेने के लिए,  यहां तक   कि  पिता  समान बडे भाई पर व्यंगबाण छोडने से भी नहीं हिचकिचाई  थी। यही कारण था रावण की बेचैनी का, रतजगे का और शायद लंका के पराभव का। रावण धीर, गंभीर, बलशाली सम्राट के साथ-साथ विद्वान् पंडित तथा भविष्यवेता भी था। उसे साफ नजर आ रहा था अपने देश, राज्य तथा सारे कुल का विनाश।  इसीलिये वह उद्विग्न था। राम के अयोध्या छोड़ने से लेकर उनके लंका की तरफ़ बढ़ने के सारे समाचार उसको मिलते रहते थे पर उसने अपनी प्रजा तथा देश की भलाई के लिए कभी भी आगे बढ़ कर बैर ठानने की कोशिश नहीं की थी। युद्ध का अंजाम वह जानता था।  पर अब तो घटनाएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। अब यदि वह अपनी बहन के अपमान का बदला नहीं लेता है तो संसार क्या कहेगा !  दिग्विजयी रावण जिससे देवता भी कांपते हैं, जिसकी एक हुंकार से दसों दिशाएँ कम्पायमान हो जाती हैं वह कैसे चुप बैठा रह सकता है। इतिहास क्या कहेगा,   कि देवताओं को  भी त्रासित करने वाला  लंकेश्वर अपनी बहन के अपमान पर, वह भी तुच्छ मानवों  द्वारा, चुप बैठा रहा ?    क्या कहेगी राक्षस जाति,   जो  अपने प्रति  किसी की  टेढी भृकुटि भी  बर्दास्त नहीं कर सकती, वह कैसे इस अपमान को अपने                                                          
गले के नीचे उतारेगी? उस पर वह शुर्पणखा, जिसका भतीजा इन्द्र को पराजित करने वाला हो, कुम्भकर्ण जैसा सैकड़ों हाथीयों के बराबर बलशाली भाई हो,  कैसे अपमानित हो शांत रह जायेगी?

रावण का आत्ममंथन जारी था। वह जानता था कि देवता, मनुष्य, सुर,   नाग, गंधर्व,  विहंगों मे कोई भी ऐसा  नहीं है  जो मेरे  समान बलशाली खर-दूषण से पार भी पा सके। उन्हें साक्षात प्रभू के सिवाय कोई नहीं मार सकता। ये दोनों ऋषीकुमार साधारण मानव नहीं हो सकते। अब यदि देवताओं को भय मुक्त करने वाले नारायण ही मेरे सामने हैं तब तो हर हाल मे, चाहे मेरी जीत हो या हार, मेरा कल्याण ही है और फिर इस तामस शरीर को छोडने का वक्त भी आ गया है।    यदी साक्षात प्रभू ही मेरे द्वार आये हैं तो    उनके तीक्ष्ण बाणों के   आघात से  प्राण त्याग मैं भव सागर तर जाऊंगा। प्रभू के प्रण को पूरा करने के लिए मैं उनसे हठपूर्वक शत्रुता मोल लूंगा ! पर किस तरह !!  जिससे राक्षस जाति की मर्यादा भी रह जाये और मेरा उद्धार भी हो जाए ?

तभी गगन की सारी कालिमा सागर में विलीन हो गयी।   तम  का मायाजाल सिमट गया ।   भोर हो चुकी थी। कुछ ही पलों में आकाश मे अपने पूरे तेज के साथ भगवान भास्कर के उदय होते ही आर्यावर्त के दक्षिण मे स्थित सुवर्णमयी लंका अपने पूरे वैभव और सौंदर्य के साथ जगमगा उठी। जैसे दो सुवर्णपिंड एक साथ चमक उठे हों। एक आकाश मे तथा दूसरा धरा पर। परन्तु भगवान भास्कर की चमक मे जहां एक ताजगी थी, जिवन्तता थी, उमंग थी वहीं लंका मानो उदास थी, अपने स्वामी की परेशानी को लेकर। तभी रावण ने आखिर एक निष्कर्ष पर पहुंच ठंडी सांस ली। छत से अपनी प्रिय लंका को निहारा और आगे की रणनीति पर विचार करता हुआ मारीच से मिलने निकल पड़ा। 

9 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

एन्टी हीरो सा है रावण का चरित्र...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

रावण को मानवीय चरित्र समझ कर वर्णन किया है..आप सबको भी विजयादशमी की शुभकामनायें।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ
♥(¯*•๑۩۞۩~*~विजयदशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाएँ!~*~۩۞۩๑•*¯)♥
ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आप सब को भी सपरिवार। आने वाला समय मंगलमय हो।

Vinay ने कहा…

बहुत ही सुंदर रचना

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सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा…

रावण का आत्ममंथन जारी था। वह जानता था कि देवता, मनुष्य, सुर, नाग, गंधर्व, विहंगों मे कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरे समान बलशाली खर -दूषण से पार भी पा सके। उन्हें साक्षात प्रभू के सिवाय कोई "नहीं मार सकता। ये दोनों ऋषीकुमार साधारण मानव नहीं हो सकते। अब यदि देवताओं को भय मुक्त करने वाले नारायण ही मेरे सामने हैं तब तो हर हाल मे, चाहे मेरी जीत हो या हार, मेरा कल्याण ही है और फिर इस तामस शरीर को छोडने का वक्त भी आ गया है। यदी साक्षात प्रभू ही मेरे द्वार आये हैं तो उनके तीक्ष्ण बाणों के आघात से प्राण त्याग मैं भव सागर तर जाऊंगा। प्रभू के प्रण को पूरा करने के लिए मैं उनसे हठपूर्वक शत्रुता मोल लूंगा। पर किस तरह --- जिससे राक्षस जाति की मर्यादा भी रह जाये और मेरा उद्धार भी हो जाए ।" .और आज का रावण !!!!!विजयादशमी की; अब यहाँ हिंदी शब्द लिखना ठीक मालूम नहीं पड़ रहा है; अतएव अंग्रेजी शब्द को ही हिंदी में लिखते हुए; "बिलेटेड" बधाई..... सुन्दर रचना

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ब्लाग बुलेटिन मे सम्मलित करने का आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सूर्यकांत जी, कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारे बहुतेरे पोराणिक और एतिहासिक चरित्रों का चरित्र-चित्रण न्याय संम्मत नहीं हो पाया है।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ब्लाग बुलेटिन मे सम्मलित करने का आभार

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