हमारे यहां सीख दी जाती है कि अंधे को अंधा या लंगडे को लंगडा नहीं कहना चाहिए पर जिन देशों की हम नकल करते हैं वहां ऐसा रिवाज नहीं है वह तो जैसा है वैसा ही सच बोलते हैं, फिर चाहे उनके निशाने पर कोई भी क्यों ना हो।
कभी जगतगुरु होने का दावा करने वाला अपना देश आज कहाँ आ खडा हुआ है? चारों ओर भर्ष्टाचार, बेईमानी, चोर-बाजारी का आलम है । कारण सब जानते हैं। साफ सुथरी छवि वाले, पढ़े-लिखे, ईमानदार, देश-प्रेम का जज्बा दिल में रखने वालों के लिए सत्ता तक पहुँचना सपना बन गया है। धनबली और बाहूबलियों ने सत्ता को रखैल बना कर रख छोडा है।
वर्षों तक हम इसी मुगालते में रहे कि हम चुन-चुन कर लायक लोगों को देश की बागडोर सौंपते हैं। जबकि सत्य तो यह था कि ज्यादातर तिकडमी लोग खुद को चुनवा कर सत्ता हथियाते रहे हैं। ऐसे चरित्रवान लोगों का रवैया जनता विधान-सभाओं और लोक-सभा में साक्षात देख चुकी है। अभी तक राज्य-सभा के बारे में सबकी धारणा कुछ अलग थी। लोगों की ऐसी मान्यता थी कि इस उच्च सदन में आने वाले सदस्य राजनीति की तिकडमों से कुछ हद तक बचे रहते हैं। खासकर अपने क्षेत्र में महारत हासिल करने वाले कुछ सदस्यों के कारण भी इस सदन का गौरव बढ जाता है।
पर जब से कुछ नेताओं ने अपने "चारणों" और चाटुकारों को येन-केन-प्रकारेण यहां त्रिशंकू बना भेजना शुरु किया है तब से इस सदन की मर्यादा भी धूल-धूसरित होने लग गयी है। पिछले दिनों इन वरिष्ठ सदस्यों की हाथा-पाई अपनी कहानी खुद कहती है। जब की इस नौटंकी के एक मूक दर्शक के रूप में हमारे प्रधान मंत्री भी वहां मौजूद थे।
ऐसे में समय आ गया है कि हम पुरानी यादों से अपने को गौरवान्वित करना छोड सच्चाई का सामना करें। अपनी बुराईयों को दूर करने के लिए छोटे-बडे का झूठा दंभ तोड जहां भी अच्छाई हो उसे ग्रहण करें। इसके लिए बहुत दूर ना जाकर हम अदने से भूटान से भी सीख ले सकते हैं।
हमारे इस छोटे से पड़ोसी "भूटान" ने अपने स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ने के इच्छुक लोगों के लिए कुछ मापदंड तय कर रखे हैं। उसके लिए पढ़े-लिखे योग्य व्यक्तियों को ही मौका देने के लिए पहली बार लिखित और मौखिक परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है। इसमें प्रतियोगियों की पढ़ने-लिखने की क्षमता, प्रबंधन के गुण, राजकाज करने का कौशल तथा कठिन समय में फैसला लेने की योग्यता को परखा जाता है। इस छोटे से देश ने अच्छे तथा समर्थ लोगों को सामने लाने का जो कदम उठाया है, क्या हम उससे कोई सीख लेने की हिम्मत कर सकते हैं?
यदि देश को आगे ले जाना है, आने वाली पीढियों को एक स्वस्थ, भ्रष्टाचार से मुक्त, सिर उठा कर खडे होने का, दूसरे देशों से आंख मिला कर बात करने का माहौल देना है तो पहल तो करनी ही पडेगी। हमारे यहां सीख दी जाती है कि अंधे को अंधा या लंगडे को लंगडा नहीं कहना चाहिए पर जिन देशों की हम नकल करते हैं वहां ऐसा रिवाज नहीं है वह तो जैसा है वैसा ही सच बोलते हैं, फिर चाहे उनके निशाने पर कोई शीर्ष नेता ही क्यों ना हो। उनके इस कदम से आग-बबूला हो उन्हें कोसने की बजाए हम अपना आचरण ठीक कर लें इसी में बेहतरी है।
2 टिप्पणियां:
अनुकरणीय उदाहरण बने, पहले नहीं तो बाद में ही सीख लें।
प्रवीण जी, कौन करेगा पहल और ऐसी सीख कौन लेने जाएगा जिससे 'उनके हमाम' के भविष्य पर ही खतरा मंडराने लगे।
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