जालंधर तक आना हो और बहुत ही मजबूरी ना हो तो शायद ही कोई अमृतसर जाए बिना लौटना चाहेगा। समय कम था फिर भी बिना वहां गये वापस नहीं आना चाहते थे सब। पता नहीं फिर कभी और कब आना होता है। इसीलिए शादी की थकान को तीन-चार घंटे की नींद से कुछ कम कर हम करीब एक बजे अमृतसर के लिए रवाना हो गये।
तीन बजे गाड़ी स्टैंड़ में खड़ी की। गर्मी बहुत थी। छुट्टियों के समय के कारण भीड़ भी उतनी ही थी। देश के हर इलाके के लोग वहां पहुंचे हुए थे। जिनमें बंगाली, मराठी, यू।पी या बिहार वालों को तुरंत पहचान लिया था। गर्मी से सभी त्रस्त थे पर उत्साह की किसी में भी कमी नहीं थी।
सबसे पहले 'जलियां वाला बाग' गये, अनाम शहीदों को याद कर श्रद्धाजंली दी। कैसा होगा वह काला दिन जब निहत्थे, निर्दोष शांति के साथ बैठे लोगों पर गोलियां बरसी होंगी। कहीं छुपने की जगह नहीं। कहीं निकलने का रास्ता नही। जंगली जानवर भी जनरल डायर से कम वहशी होंगे। शहीदों को नमन कर भारी मन से बाहर आ हरमंदिर साहब का रुख किया। दोपहर बाद का समय फिर भी लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ, बेशुमार भीड़। मंदिर परिसर में जूते रखने का इतना विशाल स्थान मैंने आज तक और कहीं नहीं देखा था। पर सब कुछ व्यवस्थित कोई अफरा-तफरी नहीं। भीड़ के बावजूद समर्पित कार्यकर्ता बिना किसी को ज्यादा इंतजार करवाए अपने काम को अंजाम दे रहे थे। पवित्र सरोवर से आचमन करते समय देखा कि पानी में रंग-बिरंगी बड़ी-बड़ी मछलियां ऐसे मजे से तैर रही थीं जैसे प्रभू के आशिर्वाद से वे सब जीवन-मरण के दुखों से मुक्त हो गयीं हों। उधर दर्शनों के लिए पता नहीं हजार लोग लाईन में खड़े थे कि दो हजार। कम से कम ढाई-तीन घंटे का समय अंदर जाने में लगना मामूली बात थी। सो मंदिर की परिक्रमा की। एक जगह बैठ कर शांत मन से प्रार्थना की दर्शन ना कर पाने के लिए क्षमा मांगी और सिर नवा कर बाहर आ गये। चार बज रहे थे वहां से सीधे 'दुर्गयाना मंदिर' गये। इस 86 साल पुराने मंदिर की बनावट पूरी तौर से हरमंदिर साहब जैसी ही है। वैसे ही विशाल सरोवर में स्वर्ण जड़ित कलश के साथ यह वैसा ही आभास देता है। मंदिर के पट ठीक चार बजे खुलते हैं अपेक्षाकृत यहां भीड़ कम थी। बिना किसी हड़बड़ी के दर्शन किए। वहीं के 'गार्ड़' ने पास ही 700 साल पुराने मां और बड़े हनुमान जी के मंदिर तक जाने की सलाह दी। वहां भी हाजिरी लगा पुजारीजी से आशिर्वाद ले, मंदिरों की भव्यता को आंखों में संजोए स्टैंड की ओर चल पड़े।
समय को हम कंजूस के धन की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। वर्षों से अमृतसर के कुलचो-छोलों, कुल्फियों तथा "केसर के ढाबे" का नाम सुन रखा था पर जब मौका आया तो सब "इल्ले"। फिर भी दौड़ते-भागते किसी तरह कुल्फियों का मजा तो ले ही लिया गया। बाकि सबेरे किए गये कलेवे ने दिन भर आसरा दिए रखा।
हमारी आगे की मंजिल थी भारत-पाक सीमा, वाघा बार्ड़र। इस बार्ड़र को एशिया की "वाल आफ बर्लिन" कहा जाता है। यह जी।टी। रोड़ पर अमृतसर और लाहौर शहरों के बीच स्थित है, तथा दोनों देशों को सड़क मार्ग से जोड़ने वाला अकेला बार्ड़र है। जिससे दोनों देशों के बीच जरूरत के सामानों का आवागमन होता है। रोज शाम को अपने-अपने देशों के झंडे उतारते समय उनके सम्मानार्थ दोनों देश परेड़ का आयोजन करते हैं। जिसे देखने दूर-दूर से लोग उमड़े चले आते हैं। यहं किसी भी तरह के सामान को ले जाने की इजाजत नहीं है इसीलिए बिना किसी बैग, बोतल के ही आगे जाना होता था। कैमरा ले जाने की इजाजत थी पर हड़बड़ी में उसे हम गाड़ी में ही छोड़ आए। भीड़ इतनी कि एक दूसरे का हाथ पकड़े रहने के बावजूद साथ रहना चलना मुश्किल लग रहा था। घुड़सवार जवान लोगों को नियंत्रित करने में अपना पसीना बहा रहे थे। स्त्री-पुरुषों की अलग-अलग तलाशी के बाद ही आगे बढने की इजाजत थी, जिसमें अच्छी खासी देर लग रही थी। धक्का-मुक्की अपने पूरे शवाब पर थी। किसी तरह बढते-बढाते जब गंतव्य तक पहुंचे तो पाया कि कुछ भी कर लें इस मानव सागर को पार कर परेड़ देख पाना बिल्कुल असंभव है। तो यही तय पाया गया कि इसके पहले इस जन-सागर का ज्वार उल्टा शुरु हो उसके पहले ही हम वापस हो लेते है। सो देश भक्ती के गीतों को सुनते हुए खरामा-खरामा हम अपना इंतजार करती प्यारी सी "वैगन-आर" में आ बैठे जो हमें फिर वापसी के रास्ते पर ले उड़ी।
एक बात का जिक्र करना बहुत जरूरी है। यदि आप वाघा जाएं तो गाड़ी खड़ी करते समय ही पानी वगैरह जरूर पी लें। वहां तरह-तरह की बातें बना पानी की बोतलें बेचते लड़कों से पानी ना खरीदें। कुछ दूर चलते ही आपको वे बोतलें फेंक देनी पड़ेंगीं क्योंकि आगे अपने साथ कुछ भी ले जाना सख्त मना है। यह सब जानते हुए भी आपको पानी की बोतल थमाई जाती है सिर्फ कुछ पैसों के लालच में।
यह तो तय है कि हम सुधरेंगे नहीं चाहे कोई भी जगह हो या कैसा भी समय हो।
जय हिंद।
जालंधर जय
8 टिप्पणियां:
शर्मा जी अमृत सर की सेर का सुंदर विवरण दिया आप ने कमी फ़ोटू की रह गई, लेकिन विवरण बहुत अच्छा लगा, लगा जैसे हमीं घुम रहे हो, धन्यवाद
Shabdo ke madhyam se apni yatra evam anubhav ka khoobsurat chitran
Shabdo ke madhyam se apni yatra evam anubhav ka khoobsurat chitran
बहुत सुन्दर विवरण,
साभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
राज भाटिया जी ने फ़ोटुओं की कमी बता दी
कल आप सिर्फ़ फ़ोटु ही डाल दीजिए।
अच्छा लगा आपका अमृतसर और वाघा बार्डर का यात्रा वृतांत...अमृतसर तो हो आये मगर वाघा बार्डर नहीं देखा है.
राज जी,
कुछ भी पका कर पेट भर लेना एक बात है उसी को सुंदर तरीके से सजा कर परोसना अलग बात। बड़े शौक से फोटुएं लीं थीं बढिया भी आईं हैं, पर डालते समय सब बेतरतीब, गड्ड-मड़्ड़ हो गया सो हटा दीं। एक दो तो ठीक से ड़ल जाती हैं ज्यादा होने पर तंगाने लगती हैं। इस सजाने संवारने की कला को अच्छी तरह सीख नहीं पाया हूं। कोशिश जारी है।
Ghumaane kaa shukriyaa. Picks hoti to duganaa majaa aataa.
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