सही समय पर इलाज ना हो पाने के कारण कमला अमरनानी के पति तथा पुत्र की असमय मौत हो गयी थी। उस भीषण दुख से उबरते हुए उन्होंने ऐसे लोगों की मदद करने का संकल्प लिया जो किसी भी कारणवश अपनों की जिंदगी बचा पाने में असमर्थ होते हैं। उल्हास नगर में गरीबों के बीच माता के नाम से लोकप्रिय कमलाजी से शहर के रिश्वतखोर डाक्टर भी घबड़ाते हैं। यदी उन्हें किसी भी डाक्टर के रिश्वत लेने या अपने काम के प्रति लापरवाह होने का पता चलता है तो फिर उस डाक्टर की खैर नहीं रहती। 44 साल पहले उन्होंने डाक्टरों की हड़ताल के कारण अपने पति और पुत्र को खोया था और अब वे नहीं चाहती कि उनकी तरह किसी और को उस विभीषीका का सामना करना पड़े। आज 96 साल की उम्र में भी वे पूरी तरह सक्रिय हैं।
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अमेरिकी सेना में तैनात सार्जेंन्ट जानी कैंपेंन इराक गया तो था लोगों की मौत का पैगाम लेकर, पर इंसान के मन को कौन जान सका है। अपने इराक अभियान के दौरान जानी की मुलाकात वहां के राहत कैंप में एक आंख की बिमारी से ग्रस्त बच्ची, जाहिरा, से हुई, जिसका इलाज हो सकता था। जानी ने अपने गृह नगर में अपने दोस्तों और नगरवासियों से अपील कर एक बडी राशी एकत्र कर उसे अस्पताल में भर्ती करवाया। आप्रेशन सफ़ल रहा। आज जाहिरा दुनिया देख सकती है। उसकी दादी कहती है कि युद्ध चाहे तबाही लाया हो, पर मेरी पोती के लिये उसी फौज का सिपाही भगवान बन कर आया।
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बैंकाक में तीन पहिया स्कूटर को "टुक-टुक" कहते हैं। इसी पर सवार हो कर जो हवस्टर और एन्टोनियो बोलिंगब्रोक केंट ने बैंकाक से ब्रिटेन तक 12 हजार मील की यात्रा सिर्फ़ इस लिए की जिससे मानसिक तौर पर विकलांगों की सहायता की जा सके। इसमे वे सफ़ल भी रहीं और उन्होंने 50 हजार पौंड जुटा अपना मिशन पूरा किया।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
ये भी तो प्रशंसा के हकदार हैं
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
लो खरगोश फिर हार गया
बहुत हो गया। वर्षों से बदनामी का दंश सहते-सहते पूरी खरगोश जाति ग्लानी से पूरे जंगल में मुंह छुपाए रहती थी। भले ही कोई अब कुछ ना कहता हो पर शर्म के मारे खरगोशों की किसी उत्सव या जश्न मे भाग लेने की इच्छा नहीं होती थी। सो इस स्थिति से उबरने के लिए उन्होंने कोई उपाय खोजने की खातिर एक मीटिंग बुलवाई। उसमें सर्वसम्मति से फैसला हुआ कि फिर एक बार कछुओं को दौड़ के लिए राजी किया जाए और इस बार उन्हें हरा कर वर्षों से माथे पर चिपके हार के दाग को धो ड़ाला जाए। शक था कि कछुए नहीं मानेंगे पर पूरी खरगोश जाति खुशी से उछल पड़ी जब कछुओं ने बिना किसी प्रतिवाद और शर्त के फिर एक बार फिर दौड़ आयोजित करने की सहमति दे दी। खरगोश कछुओं की इस बेवकूफी की बात करते ना थकते थे।
दिन, समय, स्थान, दूरी सब तय हो गया। पूरे जंगल को इस खास दौड़ के लिए आमंत्रित किया गया ताकि सनद रहे, सारे पशु-पक्षी गवाह रहें खरगोशों की जीत के।
खरगोशों ने अपना खिलाड़ी चुन रोज प्रैक्टिस करनी शुरु कर दी। पर कछुआ कैंप में उन्हें कोई हलचल ना दिखाई देती थी। इस पर वे खुश भी थे। दौड़ का दिन आ पहुंचा। खरगोशों ने अपने प्रतियोगी को ढेर सारी नसीहतें दीं, जिनमें सबसे प्रमुख थी कि कुछ भी हो जाए, आसमान भी टूट पड़े पर उसे अपनी दौड़ खत्म किए बिना कहीं भी रुकना नहीं है। फिर ढोल-ढमाके के साथ उसे दौड़ शुरु होने के स्थान पर लाया गया। शेर ने सीटी बजा दौड़ शुरु करवाई। सीटी बजते ही खरगोश तीर की तरह अपने गंतव्य की ओर भाग निकला। इतना तेज तो वह तब भी नहीं भागा था जब एक बार उसके पीछे भेड़िया पड़ गया था। पर इस बार सारे जाति की इज्जत का सवाल था। सारी दूरी उसने बिना रुके पार की। कुछ ही दूरी पर सीमा रेखा भी दिखने लगी थी। कछुए का कहीं अता-पता भी नहीं था। मन ही मन खुशी के लड्डू फोड़ता जैसे ही वह अंतिम रेखा के पास पहुंचा कि उसने देखा कि कछुआ धीरे-धीरे सीमा रेखा पार कर रहा है और इसके वहां पहुंचते-पहुंचते कछुए ने फिर एक बार बाजी मार ली।
सारे जंगल में यह खबर आग की तरह फैल गयी। खरगोश की समझ में कुछ नहीं आया कि गलती कहां हुई। पर जो होना था वह हो चुका था। कछुए ने सभी के सामने खरगोश को एक बार फिर मात दे दी थी।
कुछ दिन बीत गये। एक रात जिस कछुए ने दौड़ मे भाग लिया था उसका पुत्र सोते समय अपने बाप से लिपट कर अपने पूर्वजों की शौर्य गाथाएं सुन रहा था। तभी उसने अचानक पूछा, बाबा एक बात बताओ, खरगोश अंकल तो इतना तेज दौड़ते हैं और आप इतना धीरे चलते हैं तो उस दिन आप जीत कैसे गये?
कछुआ मुस्कुराया और बोला, बेटा उस दिन दोनों जातियों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई थी। किसी भी तरह हमें अपनी इज्जत बचानी थी। इस बार खरगोश पूरी तैयारी से थे। हमारा जीतना तो नामुमकिन ही था। सो हमने एक योजना बनाई थी। जिस दिन स्थान और दिन का फैसला हुआ था उसी दिन तुम्हारा ननकु चाचा दौड़ खत्म होने वाली सीमा रेखा की ओर चल पड़ा था। दौड़ के दिन जैसे ही सीटी बजी और खरगोश दौड़ा मैं तो चुपचाप घर आ गया था। जो जीता वह तो तेरा काकू था। चल अब सो जा।
दिन, समय, स्थान, दूरी सब तय हो गया। पूरे जंगल को इस खास दौड़ के लिए आमंत्रित किया गया ताकि सनद रहे, सारे पशु-पक्षी गवाह रहें खरगोशों की जीत के।
खरगोशों ने अपना खिलाड़ी चुन रोज प्रैक्टिस करनी शुरु कर दी। पर कछुआ कैंप में उन्हें कोई हलचल ना दिखाई देती थी। इस पर वे खुश भी थे। दौड़ का दिन आ पहुंचा। खरगोशों ने अपने प्रतियोगी को ढेर सारी नसीहतें दीं, जिनमें सबसे प्रमुख थी कि कुछ भी हो जाए, आसमान भी टूट पड़े पर उसे अपनी दौड़ खत्म किए बिना कहीं भी रुकना नहीं है। फिर ढोल-ढमाके के साथ उसे दौड़ शुरु होने के स्थान पर लाया गया। शेर ने सीटी बजा दौड़ शुरु करवाई। सीटी बजते ही खरगोश तीर की तरह अपने गंतव्य की ओर भाग निकला। इतना तेज तो वह तब भी नहीं भागा था जब एक बार उसके पीछे भेड़िया पड़ गया था। पर इस बार सारे जाति की इज्जत का सवाल था। सारी दूरी उसने बिना रुके पार की। कुछ ही दूरी पर सीमा रेखा भी दिखने लगी थी। कछुए का कहीं अता-पता भी नहीं था। मन ही मन खुशी के लड्डू फोड़ता जैसे ही वह अंतिम रेखा के पास पहुंचा कि उसने देखा कि कछुआ धीरे-धीरे सीमा रेखा पार कर रहा है और इसके वहां पहुंचते-पहुंचते कछुए ने फिर एक बार बाजी मार ली।
सारे जंगल में यह खबर आग की तरह फैल गयी। खरगोश की समझ में कुछ नहीं आया कि गलती कहां हुई। पर जो होना था वह हो चुका था। कछुए ने सभी के सामने खरगोश को एक बार फिर मात दे दी थी।
कुछ दिन बीत गये। एक रात जिस कछुए ने दौड़ मे भाग लिया था उसका पुत्र सोते समय अपने बाप से लिपट कर अपने पूर्वजों की शौर्य गाथाएं सुन रहा था। तभी उसने अचानक पूछा, बाबा एक बात बताओ, खरगोश अंकल तो इतना तेज दौड़ते हैं और आप इतना धीरे चलते हैं तो उस दिन आप जीत कैसे गये?
कछुआ मुस्कुराया और बोला, बेटा उस दिन दोनों जातियों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई थी। किसी भी तरह हमें अपनी इज्जत बचानी थी। इस बार खरगोश पूरी तैयारी से थे। हमारा जीतना तो नामुमकिन ही था। सो हमने एक योजना बनाई थी। जिस दिन स्थान और दिन का फैसला हुआ था उसी दिन तुम्हारा ननकु चाचा दौड़ खत्म होने वाली सीमा रेखा की ओर चल पड़ा था। दौड़ के दिन जैसे ही सीटी बजी और खरगोश दौड़ा मैं तो चुपचाप घर आ गया था। जो जीता वह तो तेरा काकू था। चल अब सो जा।
बुधवार, 15 दिसंबर 2010
भारत में ऐसा भी
गांव - अंजनी, जिला - मैनपुरी, राज्य - उत्तर प्रदेश।
हनुमानजी की माता अंजनी के नाम पर बसे इस गांव में दूध बेचना पाप समझा जाता है। आज जबकी देश में पानी भी खरीद कर पीना पडता है, इस दो हजार भैंसों वाले गांव में यदि कोई चोरी-छिपे दूध बेचता पाया जाता है तो उसे सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पडती है नहीं तो गांव छोड कर जाना पडता है। हजारों लीटर दूध का उत्पादन करने वाला यह गांव सार्वजनिक उत्सवों या कार्यक्रमों में मुफ़्त दूध दे उस जमाने की याद ताजा करता रहता है, जब कहा जाता था कि इस देश में दूध की नदियां बहा करती थीं। यहां की आबादी मेँ 99 प्रतिशत यदुवंशियों का है जो दूध बेचने को बेटा बेचने जैसा जघन्य काम मानते हैं। यह गांव आर्थिक रूप से काफी संपन्न है।
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नाम - जब्बार हुसैन , उम्र - 66 साल, निवास - फ़तहपुर बिंदकी।
लगन हो तो हुसैन साहब की तरह। 42 बार हाईस्कूल की परीक्षा में फ़ेल हो जाने के बावजूद इन्होंने हिम्मत नहीं हारी है और एक बार फिर ये पूरे जोशोखरोश के साथ परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए हैं। उनकी जिद है कि वह हाईस्कूल की परीक्षा जरूर पास करेंगे वह भी बिना गलत तरीकों को अपनाये। इस जनून के चलते उनकी बीवी ने उनसे तलाक ले लिया है पर हुसैन साहब अपनी धुन पर कायम हैं। इसके चलते उन्होंने जूतों की दुकान की, ट्युशन लगाई, कडी मेहनत की। उनके हौसले बुलंद हैं, वह एक-न-एक दिन अपनी मंजिल जरूर पा लेंगे। आमीन ।
हनुमानजी की माता अंजनी के नाम पर बसे इस गांव में दूध बेचना पाप समझा जाता है। आज जबकी देश में पानी भी खरीद कर पीना पडता है, इस दो हजार भैंसों वाले गांव में यदि कोई चोरी-छिपे दूध बेचता पाया जाता है तो उसे सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पडती है नहीं तो गांव छोड कर जाना पडता है। हजारों लीटर दूध का उत्पादन करने वाला यह गांव सार्वजनिक उत्सवों या कार्यक्रमों में मुफ़्त दूध दे उस जमाने की याद ताजा करता रहता है, जब कहा जाता था कि इस देश में दूध की नदियां बहा करती थीं। यहां की आबादी मेँ 99 प्रतिशत यदुवंशियों का है जो दूध बेचने को बेटा बेचने जैसा जघन्य काम मानते हैं। यह गांव आर्थिक रूप से काफी संपन्न है।
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नाम - जब्बार हुसैन , उम्र - 66 साल, निवास - फ़तहपुर बिंदकी।
लगन हो तो हुसैन साहब की तरह। 42 बार हाईस्कूल की परीक्षा में फ़ेल हो जाने के बावजूद इन्होंने हिम्मत नहीं हारी है और एक बार फिर ये पूरे जोशोखरोश के साथ परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए हैं। उनकी जिद है कि वह हाईस्कूल की परीक्षा जरूर पास करेंगे वह भी बिना गलत तरीकों को अपनाये। इस जनून के चलते उनकी बीवी ने उनसे तलाक ले लिया है पर हुसैन साहब अपनी धुन पर कायम हैं। इसके चलते उन्होंने जूतों की दुकान की, ट्युशन लगाई, कडी मेहनत की। उनके हौसले बुलंद हैं, वह एक-न-एक दिन अपनी मंजिल जरूर पा लेंगे। आमीन ।
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
फौज में जनरल की भी तो जरूरत होती है :-)
दिनोंदिन बढती मंहगाई से तंग आ एक बुजुर्गवार फौज में भरती होने पहुंच गये।
वहां सार्जेंट ने उनसे कहा, क्या आपको मालुम नहीं कि सैनिक के पद के लिए आपकी उम्र के लोगों को भरती नहीं किया जाता?
तो बुजुर्गवार ने कहा, ठीक है, सैनिक ना सही पर फौज में जनरल की भी तो जरुरत होती है।
एक महिला से भगवान ने प्रसन्न हो उसे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा।
महिला बोली, जो देना है फटाफट दे कर नक्की करो, टी.वी.पर सीरियल शुरु होने वाला है।
पत्नी :- अपना चंदू दौड़ में फर्स्ट आया है।
पति :- बेटा किसका है....
पत्नी :- शर्म नहीं आती आपको ऐसी बातें पूछते?
वहां सार्जेंट ने उनसे कहा, क्या आपको मालुम नहीं कि सैनिक के पद के लिए आपकी उम्र के लोगों को भरती नहीं किया जाता?
तो बुजुर्गवार ने कहा, ठीक है, सैनिक ना सही पर फौज में जनरल की भी तो जरुरत होती है।
एक महिला से भगवान ने प्रसन्न हो उसे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा।
महिला बोली, जो देना है फटाफट दे कर नक्की करो, टी.वी.पर सीरियल शुरु होने वाला है।
पत्नी :- अपना चंदू दौड़ में फर्स्ट आया है।
पति :- बेटा किसका है....
पत्नी :- शर्म नहीं आती आपको ऐसी बातें पूछते?
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
पैसे का प्रलोभन ठुकराना भी सबके वश की बात नहीं है.
आज के जमाने में पैसों का प्रलोभन ठुकराना बहुत जिगरे की बात है। पर कुछ लोग होते हैं जिनके लिए अभी भी पैसे से बढ़ कर नैतिकता का मोल है। सचिन ने वही किया जो उनके दिल और दिमाग ने बताया। शराब सिगरेट स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं हैं तो नहीं हैं। बातें हम बड़ी-बड़ी करें और अनाप-शनाप पैसा दिखे तो दम दबा लें, यह तो दोगली निति ही हुई न। कहने को कहा जा सकता है कि सचिन को पैसे की अब उतनी जरूरत नहीं है पर उनके संगी साथियों ने, जिन्होंने यह आफर लपका वह भी कोई ऐरे-गैरे तो नहीं हैं।
चलिए सचिन की बात नहीं करते पर आप प्रसिद्ध बैडमिन्टन खिलाड़ी , पुलेला गोपीचंद को क्या कहेंगे जिनको "आल इंग्लैण्ड चैंपियनशिप" जीतने के बाद एक विश्वप्रसिद्ध शीतल पेय का भारी भरकम आफर मिला था पर उन्होंने उस यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि जिस चीज का मैं खुद उपयोग नहीं करता उसके बारे में जानते हुए दूसरों को कैसे उपयोग में लाने को कह सकता हूँ। उस समय वह कोई करोडपति तो थे नहीं ।
तो सारी बात यही है कि पैसों का प्रलोभन ठुकराना भी सबके बूते की बात नहीं है।
चलिए सचिन की बात नहीं करते पर आप प्रसिद्ध बैडमिन्टन खिलाड़ी , पुलेला गोपीचंद को क्या कहेंगे जिनको "आल इंग्लैण्ड चैंपियनशिप" जीतने के बाद एक विश्वप्रसिद्ध शीतल पेय का भारी भरकम आफर मिला था पर उन्होंने उस यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि जिस चीज का मैं खुद उपयोग नहीं करता उसके बारे में जानते हुए दूसरों को कैसे उपयोग में लाने को कह सकता हूँ। उस समय वह कोई करोडपति तो थे नहीं ।
तो सारी बात यही है कि पैसों का प्रलोभन ठुकराना भी सबके बूते की बात नहीं है।
रविवार, 12 दिसंबर 2010
जब कुली ने मेरे मित्र को रेल के डिब्बे की खिड़की से अन्दर 'पोस्ट' किया
दो दिन पहले स्टेशन जाना पड़ा था एक प्रियजन को गाड़ी चढाने। भीड़ और आपाधापी देख वर्षों पहले की एक मजेदार घटना याद आ गयी।
बहुत पुरानी बात है। मेरी उम्र रही होगी कोई 14-15 साल की। तब गाड़ियां भी आज जितनी नहीं चला करती थीं और उनके डिब्बे भी इतने आराम दायक नहीं होते थे। चोरी वगैरह होती थी पर बहुत कम इसीलिए डिब्बों की खिड़कियों में राड वगैरह भी नहीं लगी होती थीं।
दिल्ली घर होने की वजह से छुट्टियों में वहां जाना होता रहता था। उस बार एक मित्र ने भी जाने की इच्छा जाहिर की। अचानक ही सब हुआ था। सो आरक्षण नहीं हो पाया था। देख लेंगें सोच कर हावड़ा स्टेशन पहुंच गये थे। उन दिनों मुझे 'तूफान एक्सप्रेस' बहुत लुभाती थी। हालांकि और गाड़ियों से ज्यादा समय लेती थी। पर एक तो वह ताजमहल को दिखाती हुई जाती थी दूसरे रेल में ज्यादा समय बिताने का मौका देती थी, इसलीए बड़ों के समझाने के बावजूद मुझे उसी में आना-जाना अच्छा लगता था। तो मुद्दा यह कि दोनों मित्र स्टेशन पहुंचे, टिकट लिया और प्लेटफार्म पर जा धमके। गाड़ी अभी लगी नहीं थी। पर वहां की भीड़ देख लगा कि कुछ चूक हो गयी है। बिना जगह मिले इतने दूर का सफर मुश्किल लगने लगा। हमें कुछ हैरान परेशान देख एक कुली हमारे पास आया और गाड़ी और हमारे गंतव्य का पता कर बोला कि सीट दिला दूंगा, दोनों के चालीस रुपये लगेंगे। सौदा पच्चिस में तय हो गया। गाड़ी आनेवाली थी। उसने हम दोनों को आंखों में तौला फिर मेरे मित्र को कहा कि आप मेरे साथ आओ। उसे ले वह स्टेशन के आखिरी छोर तक चला गया। बाद का सारा वृतांत मुझे मित्र की जुबानी पता चला। उसने बताया कि कुली और वह स्टेशन के आखिर में चले गये तो उसने अपना एक कपड़ा दोस्त को थमा दिया और जैसे ही गाड़ी प्लेटफार्म पर आई उसने मेरे दोस्त को उठा कर खिड़की से एक कोच के अंदर पहुंचा दिया और कहा कि एक बर्थ पर कपड़ा बिछा सीट घेर ले और जोर-जोर से गोविंद-गोविंद बोलता रहे। फिर कुली तेजी से दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बोला जिस डिब्बे से गोविंद-गोविंद की आवाज आ रही हो उसमें चढ जाना। मैंने ऐसा ही किया। इस तरह बैठने की दो सीटों का इंतजाम हो पाया। तब जा कर उस कुली का हमें घूर कर देखने और मित्र को साथ ले जाने का रहस्य भी खुला। बात यह थी कि मेरे मित्र महोदय कद काठी में मुझसे सोलह थे सो उनके मुझसे हल्के होने के कारण कुली ने उन्हें चुना था, जिससे उन्हें उठा कर खिड़की के अंदर 'पोस्ट' करने में उसे आसानी होती। फिर उसे यानि कुली को मेरा नाम तो मालुम था नहीं सो उसने 'गोविंद-गोविंद की आवाज लगाते रहने को कहा था जिससे मैं सही डिब्बे में चढ सकूं।
अब यह दूसरी बात है कि हम बस बैठ ही पाए थे यही गनीमत थी। नहीं तो उपर-नीचे, दाएं-बाएं मानुष ही मानुष। वह भी इतने की लोग 'प्रकृति की पुकार' को भी अनदेखा अनसुना करने को मजबूर थे। खाने पीने की चीजें बकायदा खिड़कियों से ही लाई ले जाई जाती रही थीं। बहुत पुरानी बात है याद नहीं रात कैसे कटी थी। हां मेरा ज्यादा देर गाड़ी के सफर का मजा लेने और गाड़ी की खिड़की से ताज को देखने का भूत तब से भाग गया।
पर जब भी वह दिन याद आता है बरबस हंसी आ जाती है।
बहुत पुरानी बात है। मेरी उम्र रही होगी कोई 14-15 साल की। तब गाड़ियां भी आज जितनी नहीं चला करती थीं और उनके डिब्बे भी इतने आराम दायक नहीं होते थे। चोरी वगैरह होती थी पर बहुत कम इसीलिए डिब्बों की खिड़कियों में राड वगैरह भी नहीं लगी होती थीं।
दिल्ली घर होने की वजह से छुट्टियों में वहां जाना होता रहता था। उस बार एक मित्र ने भी जाने की इच्छा जाहिर की। अचानक ही सब हुआ था। सो आरक्षण नहीं हो पाया था। देख लेंगें सोच कर हावड़ा स्टेशन पहुंच गये थे। उन दिनों मुझे 'तूफान एक्सप्रेस' बहुत लुभाती थी। हालांकि और गाड़ियों से ज्यादा समय लेती थी। पर एक तो वह ताजमहल को दिखाती हुई जाती थी दूसरे रेल में ज्यादा समय बिताने का मौका देती थी, इसलीए बड़ों के समझाने के बावजूद मुझे उसी में आना-जाना अच्छा लगता था। तो मुद्दा यह कि दोनों मित्र स्टेशन पहुंचे, टिकट लिया और प्लेटफार्म पर जा धमके। गाड़ी अभी लगी नहीं थी। पर वहां की भीड़ देख लगा कि कुछ चूक हो गयी है। बिना जगह मिले इतने दूर का सफर मुश्किल लगने लगा। हमें कुछ हैरान परेशान देख एक कुली हमारे पास आया और गाड़ी और हमारे गंतव्य का पता कर बोला कि सीट दिला दूंगा, दोनों के चालीस रुपये लगेंगे। सौदा पच्चिस में तय हो गया। गाड़ी आनेवाली थी। उसने हम दोनों को आंखों में तौला फिर मेरे मित्र को कहा कि आप मेरे साथ आओ। उसे ले वह स्टेशन के आखिरी छोर तक चला गया। बाद का सारा वृतांत मुझे मित्र की जुबानी पता चला। उसने बताया कि कुली और वह स्टेशन के आखिर में चले गये तो उसने अपना एक कपड़ा दोस्त को थमा दिया और जैसे ही गाड़ी प्लेटफार्म पर आई उसने मेरे दोस्त को उठा कर खिड़की से एक कोच के अंदर पहुंचा दिया और कहा कि एक बर्थ पर कपड़ा बिछा सीट घेर ले और जोर-जोर से गोविंद-गोविंद बोलता रहे। फिर कुली तेजी से दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बोला जिस डिब्बे से गोविंद-गोविंद की आवाज आ रही हो उसमें चढ जाना। मैंने ऐसा ही किया। इस तरह बैठने की दो सीटों का इंतजाम हो पाया। तब जा कर उस कुली का हमें घूर कर देखने और मित्र को साथ ले जाने का रहस्य भी खुला। बात यह थी कि मेरे मित्र महोदय कद काठी में मुझसे सोलह थे सो उनके मुझसे हल्के होने के कारण कुली ने उन्हें चुना था, जिससे उन्हें उठा कर खिड़की के अंदर 'पोस्ट' करने में उसे आसानी होती। फिर उसे यानि कुली को मेरा नाम तो मालुम था नहीं सो उसने 'गोविंद-गोविंद की आवाज लगाते रहने को कहा था जिससे मैं सही डिब्बे में चढ सकूं।
अब यह दूसरी बात है कि हम बस बैठ ही पाए थे यही गनीमत थी। नहीं तो उपर-नीचे, दाएं-बाएं मानुष ही मानुष। वह भी इतने की लोग 'प्रकृति की पुकार' को भी अनदेखा अनसुना करने को मजबूर थे। खाने पीने की चीजें बकायदा खिड़कियों से ही लाई ले जाई जाती रही थीं। बहुत पुरानी बात है याद नहीं रात कैसे कटी थी। हां मेरा ज्यादा देर गाड़ी के सफर का मजा लेने और गाड़ी की खिड़की से ताज को देखने का भूत तब से भाग गया।
पर जब भी वह दिन याद आता है बरबस हंसी आ जाती है।
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
जिसे भी हम पूजते हैं, उसकी ऐसी की तैसी कर डालते हैं
हम एक धार्मिक देश के वाशिंदे हैं। हम बहुत भीरू हैं। इसी भीरुता के कारण हम अपने बचाव के लिए तरह-तरह के टोने-टोटके करते रहते हैं। हमें जिससे डर लगता है हम उसकी पूजा करना शुरु कर देते हैं। हमने अपनी रक्षा के लिए पत्थर से लेकर वृक्ष, जानवर और काल्पनिक शक्तियों को अपना संबल बना रखा है। पर जैसे-जैसे हमारी सुरक्षात्मक भावना पुख्ता होती जाती है, हम अपने आराध्यों की ऐसी की तैसी करने से बाज नहीं आते।
घर से ही शुरु करें जब तक मतलब निकलना होता है मां-बाप से और ज्यादा प्यारा और कोई नहीं होता पर जैसे ही उन्हीं कि बदौलत अपने पैरों पर खड़े होने की कुव्वत आ जाती है तो उनके लिए वृद्धाश्रम की खोज शुरु हो जाती है।
हमारे यहां यह बात काफी ज्यादा प्रचलित है कि जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता वास करते हैं। देख लीजिए जहां देवता वास करते हैं वहां नारी का क्या हाल है। अरे देवता ही जब उसकी कद्र नहीं कर पाए तो हम तो गल्तियों के पुतले, इंसान हैं। कभी सुना है कि देवताओं ने अपना मतलब सिद्ध हो जाने पर किसी देवी को इंद्र का सिंहासन सौंपा हो?
हम नदियों को देवी या मां का दर्जा देते हैं पर किसी एक भी नदी के पानी को पीने लायक नहीं छोड़ा है। पीते हैं कहीं, तो वह मजबूरी है।
गाय को सदा मां के समकक्ष माना गया है। पर कभी उनके जिस्म को निचोड़ने के अलावा उनकी सेहत का ख्याल रखा है? अपने शहरों में जगह-जगह घूमती कूड़ा खाती मरियल सी गायें शायद ही दुनिया में और कहीं हों।
पानी को ही ले लीजिए, जल देवता कहते-कहते हमारा मुंह नहीं थकता पर आज जैसी इस देवता की दुर्दशा कर दी गयी है लगता है कि इसके भी देवता कूच कर चुके हैं।
पेड़ों की तो बात ही ना की जाए तो बेहतर है। जीवन देने वाली इस प्रकृति की नेमत की कैसी पूजा आज कल हो रही है जग जाहिर है। कभी ध्यान गया है किसी मंदिर में लगे किसी अभागे वृक्ष की तरफ? उसके तने या जड़ के पास अपनी मन्नत पूरी करने के लिए दीया जला-जला कर उसकी लकड़ी को कोयला कर कर हमें लगता है कि वृक्ष महाराज हमारी मनोकामनाएं जरूर पूरी करेंगें। कोई कसर नहीं छोड़ते अपनी आयू बढाने के लिए उसकी जड़ों में अखाद्य पदार्थ ड़ाल-ड़ाल कर उसको असमय मृत्यु की ओर ढकेलने में। यही हाल वायु का है।
यानि कि हमने किसी भी पूज्य की ऐसी की तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
घर से ही शुरु करें जब तक मतलब निकलना होता है मां-बाप से और ज्यादा प्यारा और कोई नहीं होता पर जैसे ही उन्हीं कि बदौलत अपने पैरों पर खड़े होने की कुव्वत आ जाती है तो उनके लिए वृद्धाश्रम की खोज शुरु हो जाती है।
हमारे यहां यह बात काफी ज्यादा प्रचलित है कि जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता वास करते हैं। देख लीजिए जहां देवता वास करते हैं वहां नारी का क्या हाल है। अरे देवता ही जब उसकी कद्र नहीं कर पाए तो हम तो गल्तियों के पुतले, इंसान हैं। कभी सुना है कि देवताओं ने अपना मतलब सिद्ध हो जाने पर किसी देवी को इंद्र का सिंहासन सौंपा हो?
हम नदियों को देवी या मां का दर्जा देते हैं पर किसी एक भी नदी के पानी को पीने लायक नहीं छोड़ा है। पीते हैं कहीं, तो वह मजबूरी है।
गाय को सदा मां के समकक्ष माना गया है। पर कभी उनके जिस्म को निचोड़ने के अलावा उनकी सेहत का ख्याल रखा है? अपने शहरों में जगह-जगह घूमती कूड़ा खाती मरियल सी गायें शायद ही दुनिया में और कहीं हों।
पानी को ही ले लीजिए, जल देवता कहते-कहते हमारा मुंह नहीं थकता पर आज जैसी इस देवता की दुर्दशा कर दी गयी है लगता है कि इसके भी देवता कूच कर चुके हैं।
पेड़ों की तो बात ही ना की जाए तो बेहतर है। जीवन देने वाली इस प्रकृति की नेमत की कैसी पूजा आज कल हो रही है जग जाहिर है। कभी ध्यान गया है किसी मंदिर में लगे किसी अभागे वृक्ष की तरफ? उसके तने या जड़ के पास अपनी मन्नत पूरी करने के लिए दीया जला-जला कर उसकी लकड़ी को कोयला कर कर हमें लगता है कि वृक्ष महाराज हमारी मनोकामनाएं जरूर पूरी करेंगें। कोई कसर नहीं छोड़ते अपनी आयू बढाने के लिए उसकी जड़ों में अखाद्य पदार्थ ड़ाल-ड़ाल कर उसको असमय मृत्यु की ओर ढकेलने में। यही हाल वायु का है।
यानि कि हमने किसी भी पूज्य की ऐसी की तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
B.S.N.L. मेहरबान तो ब्लागिंग पहलवान।
पिछले तीन तारीख से यह मायाजाल रूठा हुआ था। अपनी सीमित कोशिशों से जब समस्या से पार नहीं पाया जा सका तो इसके मठ के तांत्रिकों से गुहार लगाई। पर सेवा कर देने के बावजूद सुनवाई जल्द नहीं हो पाई। कभी इधर की बेमौसम बरसात का दोष, कभी किसी की गैर हाजिरी, कभी समय का दुखड़ा करते-करते जब हफ्ता निकल गया तो फिर याद करवाते समय आवाज में तुर्षी आना स्वाभाविक हो गया था। अब पता नहीं किसकी मेहरबानी से संत पधारे, माथा पच्ची कर इसका उद्धार किया। चलो देर आयद दुरुस्त आयद, मेरी जान में तो जान आई।
दूसरी कंपनियों वाले कैसे गज की गुहार पर दौड़े चले आते हैं। अब यह पता नहीं कि दूसरे की थाली में घी ज्यादा दिख रहा है या वे भी इसी थैली के......हैं।
दूसरी कंपनियों वाले कैसे गज की गुहार पर दौड़े चले आते हैं। अब यह पता नहीं कि दूसरे की थाली में घी ज्यादा दिख रहा है या वे भी इसी थैली के......हैं।
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
एक बैंक जहां पैसे या कीमती वस्तुएं नहीं, कपडे रखे जाते हैं.
ज्यादातर यही समझा जाता है कि बैंकों में पैसा या कीमती सामान ही रखा जाता है। पर झारखंड के जमशेदपुर मे एक बैंक ऐसा है जिसका पैसों से कोई लेना-देना नहीं है। इस अनोखे बैंक में इंसान की मूलभूत जरूरत कपड़े रखे जाते हैं तथा इसे "कपड़ों का बैंक" के नाम से जाना जाता है।
करीब एक दशक पुराने इस बैंक "गूंज" का मुख्य उद्देश्य देश के उन लाखों गरीब तथा जरूरतमंद लोगों को कपड़े उपलब्ध करवाना है, जो उचित वस्त्रों के अभाव मे अपमान और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम का सामना करते हैं। पूरी दुनिया में अनगिनत लोगों को कपड़ों के अभाव में शारिरिक व मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। भारत के ही कुछ भागों में महिलाओं को उचित वस्त्रों के अभाव में अनेकों बार अप्रिय परिस्थियों से गुजरना पड़ता है।
इसी तरह की परेशानियों से लोगों को रोज दो-चार होता देख, कुछ संवेदनशील लोगों ने मिल कर इस शर्मनाक परिस्थिति से त्रस्त उन अभावग्रस्त लोगों को बचाने के लिए जो हल निकाला, उसी का रूप है "गूंज"।
इसी तरह यदि छोटी-छोटी धाराएं अस्तित्व में आती रहें तो गरीबी के रेगिस्तान में कहीं-कहीं तो नखलिस्तान उभर कर कुछ तो राहत प्रदान कर ही सकता है।
करीब एक दशक पुराने इस बैंक "गूंज" का मुख्य उद्देश्य देश के उन लाखों गरीब तथा जरूरतमंद लोगों को कपड़े उपलब्ध करवाना है, जो उचित वस्त्रों के अभाव मे अपमान और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम का सामना करते हैं। पूरी दुनिया में अनगिनत लोगों को कपड़ों के अभाव में शारिरिक व मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। भारत के ही कुछ भागों में महिलाओं को उचित वस्त्रों के अभाव में अनेकों बार अप्रिय परिस्थियों से गुजरना पड़ता है।
इसी तरह की परेशानियों से लोगों को रोज दो-चार होता देख, कुछ संवेदनशील लोगों ने मिल कर इस शर्मनाक परिस्थिति से त्रस्त उन अभावग्रस्त लोगों को बचाने के लिए जो हल निकाला, उसी का रूप है "गूंज"।
इसी तरह यदि छोटी-छोटी धाराएं अस्तित्व में आती रहें तो गरीबी के रेगिस्तान में कहीं-कहीं तो नखलिस्तान उभर कर कुछ तो राहत प्रदान कर ही सकता है।
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
राजस्थानी भाषा में पति और पत्नी के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले कुछ शब्द
कल रात अपने एक राजस्थानी मित्र के चिरंजीव की शादी में जाना हुआ था। बातों ही बातों में पता चला कि राजस्थानी भाषा में पति और पत्नी के लिए अलग-अलग करीब २५० शब्दों का प्रयोग होता है। मित्र के पिताजी ने कुछ पर्याय बताए, वही पेश कर रहा हूँ :-
पति : अलबलियो, आलीजो, उमराव, कामणगारो, केसरियो बालम, गायड़मल, ईसर, गढपतियो, चतर, जलाल, ढोला, गुमानीड़ो, छैलभंवर, पिव, भरतार, मूंछालो, राईवर, रावतियो, पांवड़ां, ललबलिया, नवलबनो, भंवर, मारूजी, रसियो, राजकवंर, रायजादो, लसकरियो, सास सपूती रा पूत, साहिबां, सुगणो, नणद रो वीर, सायबो, सरदार, इत्यादि।
पत्नी : - अरधंगी, कामणगारी, गौरी, चितहरणी, चुड़ाहाली, अलबेली, कांमणी, नखराली, चंदाबदनी, फूलवंती, मरवण, मिरगानैणी, रमणी, लाडी, सुगणीनार, पद्मणी, नार, मारू, सुवागण, स्याणी, जोड़ायत, इत्यादि।
पति : अलबलियो, आलीजो, उमराव, कामणगारो, केसरियो बालम, गायड़मल, ईसर, गढपतियो, चतर, जलाल, ढोला, गुमानीड़ो, छैलभंवर, पिव, भरतार, मूंछालो, राईवर, रावतियो, पांवड़ां, ललबलिया, नवलबनो, भंवर, मारूजी, रसियो, राजकवंर, रायजादो, लसकरियो, सास सपूती रा पूत, साहिबां, सुगणो, नणद रो वीर, सायबो, सरदार, इत्यादि।
पत्नी : - अरधंगी, कामणगारी, गौरी, चितहरणी, चुड़ाहाली, अलबेली, कांमणी, नखराली, चंदाबदनी, फूलवंती, मरवण, मिरगानैणी, रमणी, लाडी, सुगणीनार, पद्मणी, नार, मारू, सुवागण, स्याणी, जोड़ायत, इत्यादि।
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