शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

बच्चों की मासूमियत छीनते ये विज्ञापन

भोजन की मेज पर पति-पत्नि बात कर रहे हैं किसी के बच्चे के विदेश जाने की। साथ ही बैठा तीन-चार साल का बच्चा उनकी बातें बुरा सा मुंह बना कर सुन रहा है। उनकी बात खत्म होते ही वह अपने पिता से पूछता है कि मेरे भविष्य के बारे में तुमने क्या सोचा है?
दूसरा दृष्य, बाप थका-हारा काम से लौट कर अभी खड़ा ही होता है कि बच्चा फिर सवाल दागता है, क्या सोचा? बाप पूछता है किस बारे में ? बच्चा कहता है मेरे भविष्य के बारे में। एक अदना सा बच्चा जिसके दूध के दांत भी पूरे नहीं टूटे होंगे, उसके मुंह से ऐसी बातें निकलवा कर यह विज्ञापन दाता क्या जताना चाहते हैं। क्या आज के मां-बापों को अपने बच्चों की फिक्र नहीं है। या कि आदमी की जेब से पैसा निकलवा कर उसके मरने के बाद के हसीन सपने दिखाने वाली ये कंपनियां बताना चाहती हैं कि तुम्हारे बच्चों की फिक्र तुमसे ज्यादा हम करते हैं। या फिर पश्चिम की तर्ज पर बच्चों को बचपन से ही मां-बाप के विरुद्ध खड़े करने की साजिश है। समय के फेर से संयुक्त परिवार तो खत्म होते ही जा रहे हैं, रही-सही कसर यह धन-लोलूप बाजार, जिसके लिये नाते, रिश्ते, ममता, स्नेह का कोई मोल नहीं है, पूरी करने पर उतारू है। यह विज्ञापन है "बजाज आलियांस" का। अभी इसकी दो किश्तें ही प्रसारित हुई हैं शायद। आगे क्या गुल खिलाता है वही जाने!!!!!!

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

उन लोगों के लिए जो हिंदी को हेय समझते हैं

हिंदी को चाहने वालों के लिये अच्छी और उसको दोयम समझने वालों की जानकारी के लिये एक खबर। हमारी एक आदत है कि जब तक पश्चिम किसी बात पर मोहर ना लगा दे हम उसे प्रमाणिक नहीं मानते। खास कर काले अंग्रेज।
तो एक सवाल उठा कि दुनिया में तरह-तरह की अनेकों लिपियां हैं पर उनमें वैज्ञानिक दृष्टि से सर्वोतम या श्रेष्ठ कौन है ? तरह-तरह की खोजें शुरु हुईं और फ्रांस के वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगात्मक तरीके से जो उत्तर प्राप्त किया उससे यह निष्कर्ष सामने आया कि देवनागरी विश्व की श्रेष्ठतम लिपि है।
उन्होंने विभिन्न लिपियों के वर्णों के अनुसार चीनी-मिट्टी के समानुपातिक खोखले खांचे बनाए। जिनके दो सिरे खुले रखे गये। जब देवनागरी लिपि के अक्षरों मे एक ओर से फूंक मारी गयी तो पाया गया कि उसमें से वैसी ही ध्वनि सुनाई पड़ती है जिन अक्षरों के अनुसार उन्हें निरूपित किया गया है। यानि 'अ' अक्षर से 'अ' और 'ग' से 'ग' ही उच्चारित हुआ। देवनागरी के बाद ग्रीक तथा लेटिन लिपियां अपने वर्णों के अनुरूप पायी गयीं।
अन्य लिपियों के वर्ण आकारों से मिलने वाली ध्वनियां त्रुटिपूर्ण पाई गयीं।
पर दुख तो इसी बात का है कि इसी भाषा से नाम-दाम-यश-शोहरत पाने वाले भी जब मंच पर आते हैं तो उन्हें भी हिंदी बोलने में शर्म आती है। और किसी विधा को छोड़ भी दें तो हम सबने देखा ही है कि हिंदी गानों से अपनी पहचान बनाने वाले 'तथाकथित गवैइये' जब बोलना शुरू करते हैं तो अंग्रेजी में बोल कर शायद यह दर्शाने की कोशिश करते हैं कि गाते जरूर हैं हम हिंदी में पर.........

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009

धनतेरस और आने वाली दीपावली सब के लिए मंगलमय हो

आप सभी को इन शुभ दिनों की बधाई। सब जने, परिवार सहित, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। सोने के समय को छोड़ जीवन में सदा आलोक छाया रहे।
भले ही नोक-झोंक होती रहे पर हमारा आपसी प्रेम, स्नेह तथा अपनापा बना रहे, प्रभू से यही प्रार्थना है।

बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

राधा नौ मन तेल होने पर ही क्यूँ नाचेगी ?

एक मुहावरा है “ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी”। अब सोचने की बात यह है कि राधा नाचेगी ही क्यूं ? बिना मतलब के तो कोई नाचता नहीं। तो कोई खास आयोजन होगा, पर यदि ऐसा है तो नौ मन तेल की शर्त क्यूं रखी गयी है ?
ऐसा लगता है कि ये राधाजी कोई बड़ी जानी-मानी डांसिंग स्टार होंगी और किसी अप्रख्यात जगह से उन्हें बुलावा आया होगा। हो सकता है कि उस जगह अभी तक बिजली नहीं पहुंची हो और वहां सारा कार्यक्रम मशाल वगैरह की रोशनी में संम्पन्न होना हो। इस बात का पता राधा एण्ड़ पार्टी को वेन्यू पहुंच कर लगा होगा और अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल हर चीज ना पा कर आर्टिस्टों का मूड उखड़ गया होगा और उन्होंने ऐसी शर्त रख दी होगी जिसको पूरा करना गांव वालों के बस की बात नहीं होगी। फिर सवाल उठता है कि नौ मन तेल ही क्यूं राउंड फिगर में दस या पन्द्रह मन क्यूं नहीं ? तो हो सकता है कि यह आंकड़ा काफी दर-मोलाई के बाद फिक्स हुआ हो।
ऐसा भी हो सकता है कि पेमेन्ट को ले कर मामला फंस गया हो। वहां ग्रामिण भाई कुछ नगद और कुछ राशन वगैरह दे कर आयोजन करवाना चाहते हों पर राधा के सचिव वगैरह ने पूरा कैश लेना चाहा हो। बात बनते ना देख उसने इतने तेल की ड़िमांड रख दी हो जो पूरे गांव के भी बस की बात ना हो।

तो मुहावरे का लब्बो-लुआब यह निकलता है कि एक विख्यात ड़ांसिंग स्टार अपने आरकेस्ट्रा के साथ किसी छोटे से गांव में अपना प्रोग्राम देने पहुंचीं। उन दिनों मैनेजमेंट गुरु जैसी कोई चीज तो होती नहीं थी सो गांव वालों ने अपने हिसाब से प्रबंध कर लिया होगा और यह व्यवस्था राधा एण्ड कंपनी को रास नहीं आयी होगी। पर उन लोगों ने डायरेक्ट मना करने की बजाय अपनी एण्ड़-बैण्ड़ शर्त रख दी होगी। जो उस हालात और वहां के लोगों के लिये पूरा करना नामुमकिन होगा। इस तरह वे जनता के आक्रोश और अपनी बदनामी दोनों से बचने में सफल हो गये होंगे। इसके बाद इस तरह के समारोह करवाने वाले और सारी व्यवस्थाओं के साथ-साथ नौ-दस मन तेल का भी इंतजाम कर रखने लग गये होंगे क्योंकि फिर कभी राधाजी और तेल के नये आंकड़ों की खबर नहीं आयी।
इस बारे में नयी जानकारियों का स्वागत है।

रविवार, 11 अक्टूबर 2009

ये भी इसी दुनिया के लोग हैं !

अभी पिछले दिनों सोनिया गांधी के हवाई सफर की काफी चर्चा रही थी। पर इन दो उदाहरणों को देख आप क्या कहेंगे :-

* ब्रुनेई के सुल्तान को पिछले दिनों लगा कि उनके सर के बाल काफी बढ गये हैं तो उन्हें सेट करवाने के लिये उन्होंने अपने प्रिय "नाई" केन मोडेस्टु को लंदन से बुलवा भेजा। खबर भेजते ही उन्हें भय लगा कि वो महाशय अपने साथ कहीं "सुअर फ्लू" के वाइरस भी ना ले आयें, सो उन्होंने मोडेस्टु साहब के लिये जहाज में एक प्रायवेट लक्जरी केबिन की व्यवस्था करवाई। जिसके ताम-झाम पर खर्च आया सिर्फ नौ लाख रुपये। इस पूरी यात्रा में आने-जाने का खर्च 12 लाख रुपये पड़ा। यानि एक बार के केश कर्तन पर खर्च आया बारह लाख रुपये। तकदीर के धनी मोडेस्टु साहब जिन्हें लंदन में 50 डालर मिलते हैं एक बार कटिंग करने के, पिछले सोलह सालों से सुल्तान के प्रिय बने हुए हैं और हर बार बुलाने पर बिना किसी गिले-शिकवे के 7000 मील का चक्कर लगाने को तैयार बैठे रहते हैं।

* पिछले दिनों मिसेज ओबामा को भी लगा होगा कि कहीं बाजार से सब्जी-भाजी लाने वाला नौकर पांच-दस रुपये तो नहीं दबा रहा, तो जांच करने के लिये वे भी एक दिन निकल पड़ीं सब्जी बाजार की ओर। पर यह क्या इतना आसान था कि अमेरिका की प्रथम महिला एवेंई सब्जी भाजी खरीद ले। तो हुआ क्या देखिये, आई मीन पढिये -
मैडम के जाने के पहले ही बाजार को करीब तीन दर्जन सुरक्षा वाहनों ने घेर लिया था। उनकी हथियार बंद लिमोजिन कार के साथ दर्जनों गाड़ियों का बेड़ा चल रहा था। बाजार को बैरीकेड्स लगा कर लोगों की आवा-जाही घंटों पहले रोक दी गयी थी। सारे इलाके में विस्फोटक पहचानू कुत्तों को फैला दिया गया था। सारी चीजों की गहन छानबीन की गयी थी। इतना ही नहीं एक सर्व सुसज्जित अपाचे हेलीकाप्टर मैडम के वहां रहते पूरे समय आकाश में मंडराता रहा था। इतने ताम-झाम के बाद ही श्रीमती ओबामा मिशेल कुछ अंडे, टमाटर और आलू खरीद पायीं।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

प्रभू को यहीं क्यों अवतार लेना पङता है ?

बहुत बार यह विचार आता है कि हमारे ही यहां भगवन को अवतार लेने की क्यों जरुरत पड़ती रही है? और भी तो देश हैं, वहां भी तो अच्छे बुरों का जमावड़ा रहता है, वहां भी पाप और पुण्य दोनो फलते-फूलते हैं, तो फिर इसी धरा पर क्यों बार-बार, हर बार पदार्पण करने की जरुरत महसूसती है उन्हें? जबकि बाकि जगह अपने दूत या पैगम्बरों को भेज कर ही उनका काम चल जाता है।

दो ही बातें हो सकती हैं, या तो प्रभू को हमसे जबर्दस्त लगाव और प्यार है, या फिर हम इतने बड़े और भारी पापी हैं कि देवदूतों का बस हमारे ऊपर नहीं चल पाता और खुद ईश्वर को इस भूमि से विपदा दूर करने के लिये तरह-तरह के वेष धर कर आना पड़ता है। बार-बार, हर-बार।

इतने पर भी ना हम सुधरे और नहीं वह थका।

बुधवार, 7 अक्टूबर 2009

ऐसा सिर्फ हमारे देश में ही हो सकता है !!!

मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के पुनासा ब्लाक का सुरगाओं बनजारी गांव का एक सरकारी प्रायमरी स्कूल। यहां के हेड़ मास्टर साहब, श्रीमान गोदिआ चक्रे, अपने "जरूरी कामों" में ज्यादातर व्यस्त रहने के कारण अपनी अनुपस्थिति में स्कूल सुचारु रूप से चलता रहे, इसलिये एक सोलह साल के लड़के को कार्यभार सौंप खुद फारिग हो गये।
यह सोलह साला लड़का, जिसका नाम प्रताप है, गांव में गायें चराने का काम करता है। यह न सिर्फ स्कूल के बच्चों को "कंट्रोल" करता था बल्कि स्कूल के दूसरे शिक्षकों पर भी अपना हुक्म चलाता था। चलाता भी क्यों ना आखिर उसकी नियुक्ति हेड़ मास्साब द्वारा जो की गयी थी। प्रताप को वेतन भी चक्रे साहब ही देते थे।
बात तो एक न एक दिन सामने आनी ही थी, जब पता चला कि हेड मास्साब गायब रहते हैं तो उच्च अधिकारियों द्वारा जांच की गयी और पाया गया कि प्रताप साहब सिर्फ स्कूल चलाते ही नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने नियम-कायदे भी दूसरे शिक्षकों पर थोप रखे थे।
सारे मामले को गंभीरता से लेते हुए चक्रे जी को सस्पेंड कर दिया गया है।
*********************
यहां सवाल यह उठता है कि स्कूल के बाकि शिक्षकों की क्या "कमजोरी" थी कि वे सब इस हिमाकत को चुप-चाप देखते, सहते रहे ?

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

भूटान से ही कुछ सीखें

कभी जगतगुरु होने का दावा करने वाला अपना देश आज कहाँ आ खडा हुआ है? चारों ओर भर्ष्टाचार, बेईमानी, चोर-बाजारी का आलम है । कारण सब जानते हैं। साफ सुथरी छवि वाले, पढ़े-लिखे, ईमानदार, देश-प्रेम का जज्बा दिल में रखने वालों के लिए सत्ता तक पहुँचना सपना बन गया है। धनबली और बाहुबलीयों ने सत्ता को रखैल बना कर रख छोडा है। ऐसे में हमारे एक अदने से पड़ोसी ने जो राह दिखाई है क्या हम उससे कोई सीख ले सकते हैं ?
हमारा छोटा सा पड़ोसी "भूटान"। उसने अपने स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ने के इच्छुक लोगों के लिए कुछ मापदंड तय किए हैं। उसके लिए पढ़े-लिखे योग्य व्यक्तियों को ही मौका देने के लिए पहली बार लिखित और मौखिक परीक्षाओं का आयोजन किया गया है। इसमें प्रतियोगियों की पढ़ने-लिखने की क्षमता, प्रबंधन के गुण, राजकाज करने का कौशल तथा कठिन समय में फैसला लेने की योग्यता को परखा जाएगा। इस छोटे से देश ने अच्छे तथा समर्थ लोगों को सामने लाने का जो कदम उठाया है, क्या हम उससे कोई सीख लेने की हिम्मत कर सकते हैं ?

रविवार, 4 अक्टूबर 2009

इसे क्या कहें, बालों का कहर या जैसे को तैसा

परिवार के मुखिया कृपाशंकर दूबे, मितव्ययी, कर्मकांड़ी, अपने आचारों-व्यवहारों का कड़ाई से पालन करने वाले, एक सख्त मिजाज इंसान, जिनकी बात काटने की हिम्मत घर के किसी भी सदस्य की नहीं होती।
अच्छा घर और वर तथा वधू मिलते ही एक ही मंडप तथा मुहुर्त में अपने लड़के तथा लड़की की शादी कर एक ही साथ कन्यादान और वधू का गृह-प्रवेश करवा गंगा नहा लिये।
आज शादी के दूसरे दिन, नववधू की भोजन बनाने के रूप में अग्निपरीक्षा होनी है। सारे परिवार की उत्सुक निगाहें रसोई की तरफ लगी हुई हैं। प्रतिक्षा खत्म हुई वधू ने विभिन्न व्यंजन परोस दिये। खाना बहुत ही उम्दा और स्वादिष्ट बना था। हर सदस्य तृप्त तथा संतुष्ट नजर आ रहा था। तभी अचानक कृपाशंकर जी की भृकुटि पर बल पड़ गये, उनकी सब्जी में एक लम्बा सा बाल निकल आया था। जो निश्चित रूप से बहू का ही था। भोजन अधूरा छोड़ उन्होंने अपना आसन त्याग दिया तथा वहीं खड़े-खड़े अपने बेटे मोहन को बहू को उसके घर वापस छोड़ आने की आज्ञा सुना दी। सारा घर निस्तब्ध रह गया। किसी की भी हिम्मत प्रतिवाद करने की नहीं थी। परिस्थिति की गम्भीरता को समझ नववधू के आंसू थम ही नहीं रहे थे। तभी घर के बाहर से कुछ अजीब सी आवाजें तथा हलचल का आभास हुआ। जब तक वस्तुस्थिति का कुछ पता चलता, घर में दूबेजी की नवविवाहिता कन्या, कला, ने रोते हुए प्रवेश किया। सारे जने सन्न रह गये किसी विपत्ती को भांप कर। कन्या को बिठा कर सबने उससे इस तरह आने का कारण जानना चाहा, तो रोते-रोते बड़ी मुश्किल से कला ने बताया कि आज उसे पहली बार ससुराल में खाना बनाना था। सब ठीक था पर खाते समय श्वसुरजी की दाल में बाल निकल आया था।

शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

भगवान् का न्याय

भादों मास की एक शाम। आकाश में घने बादल गहराते हुए रौशनी को विदा करने पर आमदा थे। दामिनी एक सिरे से दूसरे सिरे तक लपलपाती हुई माहौल को और भी डरावना बना रही थी। जैसे कभी भी कहीं भी गिर कर तहस-नहस मचा देगी। हवा तूफान का रूप ले चुकी थी।
ऐसे में उस सुनसान इलाके में, एक जर्जर अवस्था में पहुंच चुके खंडहर में, एक आदमी ने दौड़ते हुए आकर शरण ली। तभी दो सहमे हुए मुसाफिरों ने भी बचते बचाते वहां आ कर जरा चैन की सांस भरी। फिर एक व्यापारी अपने सामान को संभालता हुआ आ पहुंचा। धीरे-धीरे वहां सात-आठ लोग अपनी जान बचाने की खातिर इकट्ठा हो गये। बरसात शुरु हो गयी थी। लग रहा था जैसे प्रलय आ गयी हो। इतने में एक फटे हाल बच्चा अपने पालतू सूअर के साथ अंदर आ गया। उसके आते ही मौसम ने प्रचंड रूप धारण कर लिया। बादलों की कान फोड़ने वाली आवाज के साथ-साथ ऐसा लगने लगा जैसे बिजली जमीन को छू-छू कर जा रही हो। सबको लगने लगा कि उस अछूत बच्चे के आने से ही प्रकृति का कहर बढ़ा है। यदि यह इस मंदिर में रहेगा तो भगवान के कोप से बिजली जरूर यहीं गिरेगी। इस पर सबने एक जुट हो, उस डरे, सहमे बच्चे और सूअर को जबर्दस्ती धक्के दे कर बाहर निकाल दिया। डर के मारे रोते हुए बच्चे ने कुछ दूर एक घने पेड़ के नीचे शरण ली।
उसके वहां पहुंचते ही जैसे आसमान फट पड़ा हो, बादलों की गड़गड़ाहट से कान बहरे हो गये। बिजली इतनी जोर से कौंधी कि नजर आना बंद हो गया। एक पल बाद जब कुछ दिखाई पड़ने लगा, तब तक उस खंडहर का नामोनिशान मिट चुका था। प्रकृति भी धीरे-धीरे शांत होने लगी थी।

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

छोटे कद पर विराट व्यक्तित्व के धनी शास्त्री जी

एक ही दिन जन्मदिन होने के कारण छोटे कद पर विराट व्यक्तित्व के धनी शास्त्रीजी को वह सम्मान नहीं मिल पाता, जिसके वह हकदार रहे हैं। वैसे भी वह चमकदार मेहराबों के बनिस्पत नींव का पत्थर होना ज्यादा पसंद करते थे। उनकी सादगी को दर्शाते ये दो संस्मरण उस समय के हैं, जब वे प्रधान मंत्री थे।
एक बार देश की एक बड़ी कपहा बनाने वाली कंपनी ने ललिताजी के लिए कुछ सिल्क की साड़ियां उपहार स्वरुप देने की पेशकश की। साड़ियां काफी खुबसूरत तथा मुल्यवान थीं। शास्त्रीजी ने उनकी कीमत पूछी, जब काफी जोर देने पर उन्हें कीमत बताई गयी तो उन्होंने यह कह कर साफ मना कर दिया कि मेरी तन्ख्वाह इतनी नहीं है कि मैं इतनी मंहगी साड़ी ललिताजी के लिए ले सकूं, और अपने निर्णय पर वे अटल रहे।
एक बार उनके बड़े बेटे हरिकिशनजी को एक ख्याति प्राप्त घराने से अच्छे पद का प्रस्ताव मिला, उन्होंने शास्त्रीजी से अनुमती चाही, तो उन्होंने जवाब दिया कि यह नौकरी मेरे प्रधान मंत्री होने के कारण तुम्हें दी जा रही है, यदि तुम समझते हो कि तुम इस पद के साथ न्याय कर पाओगे और तुम इस के लायक हो तो मुझे कोई आपत्ती नहीं है। हरिकिशनजी ने भी वह प्रस्ताव तुरंत नामंजूर कर दिया।इन्हीं आदर्शों की वजह से चाहे अंत समय तक उनका अपना कोई घर नहीं था नही ढ़ंग की गाड़ी थी, पर वे याद किए जाएंगें, जब तक भारत और उसका इतिहास रहेगा।
आज के वंशवादी, सत्ता पिपासु तथाकथित नेता क्या ऐसा सोच भी सकते हैं। जिनमें कुछ एक को छोड़ उनके राज्य के बाहर ही कोई उन्हें नहीं जानता और ना जानना चाहता है।

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...