हजारोँ-हजार साल पहले, रामायण काल में जब राम जी की सेना लंका पर चढ़ाई के लिए सेतु बना रही थी, तब कहते हैं की एक छोटी सी गिलहरी ने भी अपनी तरफ से जितना बन पडा था योगदान कर प्रभू का स्नेह प्राप्त किया था. शायद उस गिलहरी की वंश परंपरा अभी तक चली आ रही है. क्योंकि फिर उसी देश में, फिर एक गिलहरी ने, फिर एक पुल के निर्माण में सहयोग किया था. प्यार भी उसे भरपूर मिला पर अफ़सोस जिन्दगी नहीं मिल पाई।
अंग्रेजों के जमाने की बात है। दिल्ली – कलकत्ता मार्ग पर इटावा शहर के नौरंगाबाद इलाके के एक नाले पर पुल बन रहा था। सैकड़ों मजदूरों के साथ-साथ बहुत सारे सर्वेक्षक, ओवरसियर, इंजिनीयर तथा सुपरवाईजर अपने-अपने काम पर जुटे कड़ी मेहनत कर रहे थे। इसी सब के बीच पता नहीं कहां से एक गिलहरी वहां आ गयी और मजदुरों के कलेवे से गिरे अन्न-कणों को अपना भोजन बनाने लगी। शुरु-शुरु में तो वह काफी ड़री-ड़री और सावधान रहती थी, जरा सा भी किसी के पास आने या आवाज होने पर तुरंत भाग जाती थी, पर धीरे-धीरे वह वहां के वातावरण से हिलमिल गयी। अब वह काम में लगे मजदुरों के पास दौड़ती घूमती रहने लगी। उसकी हरकतों और तरह-तरह की आवाजों से काम करने वालों का तनाव दूर हो मनोरंजन भी होने लगा। वे भी काम की एकरसता से आने वाली सुस्ती से मुक्त हो काम करने लगे। फिर वह दिन भी आ गया जब पुल बन कर तैयार हो गया। उस दिन उससे जुड़े सारे लोग बहुत खुश थे। तभी एक महिला मजदूर सावित्री की नजर पुल की मुंडेर पर निश्चेष्ट पड़ी उस गिलहरी पर पड़ी, जिसने महिनों उन सब का दिल बहलाया था। उसे हिला-ड़ुला कर देखा गया पर उस नन्हें जीव के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। यह विड़ंबना ही थी कि जिस दिन पुल बन कर तैयार हुआ उसी दिन उस गिलहरी ने अपने प्राण त्याग दिये। उपस्थित सारे लोग उदासी से घिर गये। कुछ मजदुरों ने वहीं उस गिलहरी की समाधी बना दी। जो आज भी देखी जा सकती है।
यह छोटी सी समाधी पुल की मुंड़ेर पर बनी हुई है, इसिलिये इस पुल का नाम भी गिलहरी का पुल पड़ गया। आस-पास के लोग कभी-कभी इस पर दिया-बत्ती कर जाते हैं।
13 टिप्पणियां:
बडी अनोखी बात बताई आज आपने. पहली बार मालूम पडा. आभार आपका.
रामराम.
गिलहरी को देखते हुए तो काफी दुखद लेकिन यह भी विडंबना ही है कि जिस दिन पुल बना गिलहरी ने प्राण त्याग दिए
गगन जी, नमस्कार
जानकारी तो आपने बढ़िया दी है, लेकिन दिल कुछ भारी भारी सा हो गया है.
अरे यही तो हमारी भारतीय संस्कृति है.
अदभुत है यह बात भी .
अफसोस हुआ गिलहरी के मर जाने पे . बढ़िया दिलचस्प बात ......बढ़िया है जी .
हम भी संताप में चले गये. अद्भुत वृतांत. आभार.
anokhi baat bataayi aapne....aabhaar
dukh huaa ...lekin adbhut jaan kaari
ऐसे समाज में जहाँ आदमी की संवेदनाएं मर रही हैं, एक गिलहरी वियोग का आभास कर के अपनी जान दे देती है. मुझे आपने ग़मगीन कर दिया.
विनोद श्रीवास्तव
बहुत अलग सी जान कारी दी आप ने , साथ मै थोडा उदास भी कर दिया.
धन्यवाद
anokhi baat hai
us gilahri ke liye dil udas ho gaya
आपका पोस्ट पढ़कर मुझे उस गिलहरी की याद आ गई जो राम सेतु निर्माण के दौरान कंकर पत्थर चुन कर समंदर में दाल रही थी| राम जी ने प्रफुल्लित होकर उसपर अपनी तीन उंगलियाँ फेरीं, जिसका निशान आज भी गिलहरी पर देखा जा सकता है!!
अरे, बड़ी रोचक घटना है यह तो. लगता है गिलहरियों का पुलों से विशेष प्यार है. तभी पुलों से भरे हमारे पिट्सबर्ग में हर तरफ़ गिलहरियाँ ही गिलहरियाँ दिखाई देती हैं.
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