बिना किसी अपेक्षा के, अपनी अंतरात्मा की आवाज पर, निस्वार्थ भाव से किसी के लिए किया गया कोई भी कर्म जिंदगी भर संतोष प्रदान करता रहता है। यह रचना काल्पनिक नहीं बल्कि सत्य पर आधारित है। श्रीमती जी शिक्षिका रह चुकी हैं। उनका एक अनुभव उन्हीं के शब्दों में ....
काफी पुरानी बात है, उस समय कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली स्कूली दुकानें नहीं खुली थीं। हमारा विद्यालय भी एक संस्था द्वारा संचालित था जहां योग्यता के अनुसार दाखिला किया जाता था। यहां की सबसे अच्छी बात थी कि स्कूल में समाज के हर दर्जे के परिवार के बच्चे बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा पाते थे। उनमें कार से आने वाले बच्चे पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता था जितना मेहनत-मजदूरी करने वाले घर से आने वाले बच्चे पर। किसी भी तरह का अतिरिक्त आर्थिक भार किसी पर नहीं डाला जाता था। फीस से ही सारे खर्चे पूरे करने की कोशिश की जाती थी। इसीलिए स्टाफ की तनख्वाह कुछ कम ही थी पर माहौल का अपनापन और शांति यहां बने रहने के लिए काफी थी। हालांकि करीब तीस साल की लम्बी अवधि में विभिन्न जगहों से कई नियुक्ति प्रस्ताव आए पर इस अपने परिवार जैसे माहौल को छोड़ कर जाने की कभी भी इच्छा नहीं हुई। स्कूल में कार्य करने के दौरान तरह-तरह के अनुभवों और लोगों से दो-चार होने का मौका मिलता रहता था। इसीलिए इतना लंबा समय कब गुजर गया पता ही नहीं चला।
ऐसा ही एक छात्र था, राजेन्द्र, उसकी माँ ललिता हमारे स्कूल में ही आया का काम करती थी। एक दिन वह अपने चार-पांच साल के बच्चे का पहली कक्षा में दाखिला करवा उसे मेरे पास ले कर आई और एक तरह से उसे मुझे सौंप दिया। वक्त गुजरता गया। मेरे सामने वह बच्चा, बालक और फिर युवा हो बारहवीं पास कर महाविद्यालय में दाखिल हो गया। इसी बीच ललिता को तपेदिक की बीमारी ने घेर लिया। पर उसने लाख मुसीबतों के बाद भी राजेन्द्र की पढ़ाई में रुकावट नहीं आने दी। उसकी मेहनत रंग लाई, राजेन्द्र द्वितीय श्रेणी में सनातक की परीक्षा पास कर एक जगह काम भी करने लग गया। वह लड़का कुछ कहता नहीं था, मन की बात जाहिर नहीं होने देता था, पर उसकी सदा यही इच्छा रहती थी कि जिस तरह भी हो वह अपने माँ-बाप को सदा खुश रख सके। अच्छे चरित्र के उस लडके ने अपने अभिभावकों की सेवा में कोई कसर नहीं रख छोड़ी। उससे जितना बन पड़ता था अपने माँ-बाप को हर सुख-सुविधा देने की कोशिश करता रहता था। माँ के लाख कहने पर भी अपना परिवार बनाने को वह टालता रहता था। उसका एक ही ध्येय था, माँ-बाप की ख़ुशी। ऐसा पुत्र पा वे दोनों भी धन्य हो गए थे। इस तरह इस परिवार ने कुछ समय ही ज़रा सा सुख देखा था कि एक दिन ललिता के पति का तपेदिक से देहांत हो गया। इस विपदा के बाद तो बेटा माँ के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गया। पर भगवान को कुछ और ही मंजूर था, ललिता अपने पति का बिछोह और अपनी बिमारी का बोझ ज्यादा दिन नहीं झेल पाई और पति की मौत के साल भर के भीतर ही वह भी उसके पास चली गयी। राजेन्द्र बिल्कुल टूट सा गया। मेरे पास अक्सर आ बैठा रहता था। जितना भी और जैसे भी हो सकता था मैं उसे समझाने और उसका दुःख दूर करने की चेष्टा करती थी। समय और हम सब के समझाने पर धीरे-धीरे वह नॉर्मल हुआ। काम में मन लगाने लगा। सम्मलित प्रयास से उसकी शादी भी करवा दी गयी।
आज राजेन्द्र अपने परिवार के साथ रह रहा है। पर जब कभी भी मुझसे मिलता है तो उसकी विनम्रता, विनयशीलता मुझे अंदर तक छू जाती है और मेरे सामने वही पांच साल का पहली कक्षा का मासूम सा बच्चा आ खड़ा होता है। ऊपर से उसके माँ-बाप उसे देखते होंगे तो उनकी आत्मा भी उसे ढेरों आशीषों से नवाजती होगी।
#हिन्दी_ब्लागिंग
15 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर संस्मरण.
धन्यवाद, राजीव जी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (20-07-2017) को ''क्या शब्द खो रहे अपनी धार'' (चर्चा अंक 2672) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बेहतरीन वाकया, आपने लिखा भी जोरदार, शुभकामनाएं.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
शास्त्री जी
आभार
ताऊ जी
स्नेह बना रहे
वाह्ह...क्या बात...बहुत अच्छा लिखा आपने।
श्वेता जी,
सदा स्वागत है
सुन्दर रचना.
श्वेता जी
आभार
विनोद जी
सदा स्वागत है
शिक्षकों के लिए अपने विद्यार्थियों को उन्नति करते देखना ही सबसे बड़ा पुरस्कार होता है । आपकी रचना इसी बात का समर्थन करती है गगनजी । मैं स्वयं भी शिक्षिका हूँ । बहुत अच्छा लगा आपका अनुभव पढ़कर!
मीना जी,
सदा स्वागत है आपका। देखा जाए तो यही जिंदगी की असली उपलब्धि है।
बहुत प्रेरणादायक संस्मरण साझा किया आपने | अपने विद्यार्थियों की उन्नति बहुत हर्ष व् संतोष देती हैं ... वंदना बाजपेयी
हार्दिक धन्यवाद, वंदना जी
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