क्या जिंदगी इसी का नाम हैं.....?
शहर की इस दौड़ में, दौड़ के करना क्या है?
जब यही जीना है दोस्तों तो फ़िर मरना क्या है?
पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है भूल गये भीगते हुए टहलना क्या है?
सीरियल्स् के किर्दारों का सारा हाल है मालूम पर माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुर्सत कहाँ है?
अब रेत पे नंगे पाँव टहलते क्यूं नहीं?
108 हैं चैनल् फ़िर दिल बहलते क्यूं नहीं?
इन्टरनैट से दुनिया के तो टच में हैं, लेकिन पडोस में कौन रहता है जानते तक नहीं।
मोबाइल, लैन्डलाइन सब की भरमार है, लेकिन जिग्ररी दोस्त तक पहुँचे ऐसे तार कहाँ हैं?
कब डूबते हुए सुरज को देखा था, याद है?
कब जाना था शाम का गुज़रना क्या है?
तो दोस्तों शहर की इस दौड़ में दौड़् के करना क्या है जब् यही जीना है तो फ़िर मरना क्या....???
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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7 टिप्पणियां:
आप से सहमत है जी, बहुत सुंदर लिखा
ज़िन्दगी में लोगों से लगी होड़ में
आगे निकलने के लिए
हम इतना तेज़ दौड़े
कि ज़िन्दगी ही पीछे छूट गई.......
बस...................यहीं आ कर
जीने वालों की कमर टूट गई
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
वाकई, अगर यही जीना है तो फिर मरना क्या है?
विचारणीय..
ek jaruri saval!!!
एक दम सटीक लिखा है भाई आपने. आज सब कुछ है हर किसी के भी पास बस एक फ़ुर्सत के सिवा.
वर्षों बाद पन्ने उलटते समय यह रचना दिखी ! जो मेरी नहीं थी पर अच्छी लगने के कारण ब्लॉग़ पर डाल दी थी ! चूक यह हुई कि लेखक के नाम का उल्लेख नहीं हो पाया, उसके लिए आज खेदग्रस्त अनुभव कर रहा हूँ, क्षमा भी चाहता हूँ
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