कोहेनूर जिसका नाम सुनते ही कलेजे में एक टीस उभर आती है। अपनी विरासत को सात समुद्र पार पड़ा देख, उसे वापस न पा सकने की कसक कचोटती रहती है दिलो-दिमाग को। अंग्रेजों ने हमारी सभ्यता, संस्कृति और बौद्धिक सम्पदा को तो हानि पहुंचाई ही साथ ही साथ हमें वर्षों लूट-लूट कर गरीबी के अंधियारे में धक्के खाने के लिए छोड़ दिया। सालों साल हमारा हर रूप से दोहन होता रहा। उसी का एक रूप था कोहनूर का ब्रिटेन पहुंचना। इसकी कीमत का कोई अंदाजा नहीं था। कहते हैं कि एक बार कोशिश की गयी थी इसका मोल आंकने की तो जवाब पाया गया था कि यदि एक ताकतवर इंसान चारों दिशाओं में पत्थर फेंके, फिर उन फेंके गये पत्थरों के बीच की भूमि को सोने से भर दिया जाय तो भी इसके मुल्य की कीमत नहीं मिल पाएगी। हो सकता है कि यह अतिश्योक्ति हो पर इसमें दो राय नहीं है कि यह दुनिया के बेशकिमती हीरों में से एक रहा है।
कोहनूर मुगल शासकों की सम्पत्ति का हिस्सा था। जिसे नादिरशाह ने लूट कर काबुल भिजवा दिया था। जहां से पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह जी ने वहां के शासक शाहशुजा को हरा फिर इसे अपने खजाने में स्थान दिया। पर समय की मार, द्वितीय अंग्रेज-सिक्ख युद्ध में जब पंजाब के राजा दिलीप सिंह को पराजय का सामना करना पड़ा तो राज्य के साथ-साथ यह अनमोल हीरा भी तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी को प्राप्त हो गया। उसे अपने आकाओं को खुश करने और उनकी नज़रें इनायत पाने का एक बेहतरीन मौका हाथ लग गया था। उसने इसे ब्रिटेन की महारानी को सौंपने का निश्चय कर लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसका विरोध किया, क्योंकि वह हीरे पर अपना हक समझती थी। पर साम्राज्यवादी डलहौजी को गवारा नहीं था कि ऐसी बेहतरीन वस्तु से इंग्लैंड वंचित रह जाए। उसने चुप-चाप इसे ब्रिटेन भेजने का निश्चय किया और इस षड़यंत्र में उसका साथ दिया लार्ड हाबहाऊस ने। सारा काम गुप्त रूप से किया गया। लाहौर से डलहौजी खुद हीरे को ले बंबई आया। वहां से एक युद्धपोत जिसका नाम 'मिदे' था, के द्वारा कोहनूर को भेजने का प्रबंध किया गया। योजना इतनी गुप्त रखी गयी थी कि जहाज के कप्तान को भी इस बात की जानकारी नहीं दी गयी उसे सिर्फ इतना पता था कि दो आदमियों को इंग्लैंड ले जाना है। पर किसी तरह इस षड़यंत्र की भनक लाहौरवासियों को लग गयी। पर विरोध के स्वर तेज होने के पहले ही जहाज बंदरगाह छोड़ चुका था।
इसे विचित्र संयोग ही कहेंगे कि कोहनूर जहां-जहां भी रहा वहां खून-खराबा या दुख: का भी पदार्पण हुआ। युद्धपोत 'मिदे' जब ब्रिटेन पहुंचा तो महारानी पारिवार में मौत के कारण शोकाग्रस्त थीं। पर इसके बावजूद कोहनूर को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पायीं। तीन जुलाई 1850 के दिन सायं ठीक साढे चार बजे यह नायाब और दुर्लभ तोहफा विशिष्ट मेहमानों की उपस्थिति में महारानी को भेंट कर दिया गया। आज भी यह ब्रिटिश राज परिवार की शोभा बढा रहा है।
18 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर जानकारी दी आप ने, लेकिन इस बेश्किमती हीरे के कारण ही आज तक यह परिवार खुश नही रह पाया.... अब यह हीरा भारत को केसे मिले जब ९०% नेता ही गददार हो....
धन्यवाद, मै कल अपने देश मै पहुच रहां हुं,
धन्यवाद
ek kohinoor heera hi kyun...lakhon log roj prtibha palaayan kar rahe hai....unke baare me sochna jyada jroori hai...
चाहे दुर्भाग्यशाली होने का ठप्पा लगा हो मगर है तो यह हमारी विरासत.
प्रतिभा पालायन @ -
जाने और लेजाने में बहुत फर्क होता है।
यहां से जाने की परिस्थितियों को बनानेवाला कौन है उस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
भाटिया जी,
जैसा भी है अपना है। स्वदेश में स्वागत है।
बहुत अछिऊ जानकारी दी है. हमने तो सुन रखा था की कोहेनूर को उन लोगों ने कट करके राज मुकुट में जड़ रखा है.
हमारी चीजों के साथ दुर्भाग्य जोड़ने की अंग्रेजों की सामान्य फितरत है। भारतीय मान्यता को जड़ से ही खत्म कर देने के लिए उन्होंने क्या जतन नहीं किए।
फिर भी ऐसा माना जा सकता है कि भारत माता ही उस हीरे की असली हकदार है। इसलिए जो भी उसे अपनी निजी संपत्ति के तौर पर रखने की कोशिश करता है दुर्भाग्य उसका साथ पकड़ लेता है। इसलिए इंग्लैण्ड के राजदरबार को शीघ्र से शीघ्र अपने दुर्भाग्य से छुटकारा पाने के लिए हीरा भारत को सौंप देना चाहिए। :)
बढ़िया जानकारी दी अपने। इतनी बेशकीमती धरोहर गैरों के पास हो तो दिल तो कचोटता ही है।
बढ़िया जानकारी दी आपने !
अपनी बेशकीमती वस्तु अगर कोई चुरा कर ले जाए तो दुख होना तो लाजिमी है.....लेकिन सदियों से इस देश के साथ यही तो होता आया है.....भारतवर्ष को सोने की चिडिया यूं ही तो नहीं कहा जाता था.
जैसा भी हो-जानकारी बहुत बढ़िया दी.
लँदन यात्रा के दौरान कोहीनूर हीरे को देखा था और भी कई बहुमूल्य रत्न भी देखे और फिर सोचा कि इन सभी को भारत कैसे ले जाया जाये ?
- लावण्या
गगन जी ,
आपने कोहिनूर के बारे में नायाब जानकारी दी .....आज जाना की किस कदर हमारी ये धरोहर विदेशियों के हाथ चली गयी ...बहुत बहुत शुक्रिया आपका......!!
गगन जी, कोहिनूर के बारे में आपने बढ़िया जानकारी दी.
this was always a mystery for me .thanks a lot for this wonderful information.
ye jankari bahumulye hai. par mujhe thodi aur utsukta ho rahi hai ye janane ki, ye nayab heera mughlaon ke pass kanha se aaya. manta hoon ye bharat main tha par mughhal ise kanha se laye....
ye bhi ho sakta hai, ki bhart bhi is nayab heere ki yatara main ek vishram sthal raha ho , aur baad main iski yatra phir prarambh ho gayi ho..
योगेश जी,
इसका इतिहास काफी पुराना माना जाता है। पर ज्यादातर विद्वानों के अनुसार इसका उद्गम गोलकुंडा की खदानों से ही हुआ है। इसका सबसे पहला उल्लेख ग्वालियर से जुडा मिलता है जहां से अल्लाउद्दीन खिलजी ने इसे अपने कब्जे में लिया फिर तुगलक-लोधियों के पास से होता हुआ यह बाबर के पास आया मुगल वंश के पतन के बाद इसे नादिरशाह अपने साथ ले गया पर काल-चक्र के अंतरगत फिर लौट कर महाराजा रंजीतसिंह के पास रहा जिनकी मौत के बाद यह अंग्रेजों के हत्थे चढ गया।
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