सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

सेहत ठीक रही तभी जीभ भी स्वाद लेने लायक रहेगी

कोशिश करें कि ऐसे खाद्य पदार्थों से जितना बचा जा सके बचे और खाने के बाद यथासंभव गर्म जल का सेवन कर अपने दिल और पेट को थोडा सहयोग प्रदान करें। क्योंकि यदि ये स्वस्थ रहे तभी जिह्वा का स्वाद भी रह पाएगा।

एक सर्वे से यह बात सामने आई है कि खाने के बाद यदि ठंडे पानी की बजाए गुनगुना या गर्म पानी पिया जाए तो ह्रदयाघात की आशंका बहुत कम हो जाती है। वैसे भी इलाज की हर पैथी में खाने के साथ पानी ना पीने या सिर्फ दो-तीन घूंट लेने की सलाह दी जाती है पर खाने के दौरान या तुरंत बाद ठंडा पानी पीना बहुत सकूनदायक लगता है इसलिए अधिकांश लोग खाने के तुरंत बाद पानी जरुर पीते हैं। पर वह खाए गये पदार्थों के तैलीय अंश को और गाढा बना उनके पचने में रुकावट ही डालता है। जिससे पाचन क्रिया बेहद धीमी हो जाती है। जिससे खाद्य पदार्थ पेट के एसिड से मिल जटिल पदार्थों का निर्माण कर देते हैं जो कुपथ्य हो तरह-तरह की बिमारियों का कारण बन जाते हैं। इसलिए ठंडे पानी की बजाए गरम सूप या पानी पीना बहुत लाभदायक होता है।

आजकल समय की कमी,  देखा-देखी या फैशन के तहत फ्रेंच फ्राई या बर्गर जैसे फास्ट-फूड का चलन बढता ही जा रहा है जो कि हमारे जठर के सबसे बडे दुश्मन हैं। उस पर इन सब चीजों के साथ बर्फ जैसे ठंडे पेय पदार्थों के सेवन का चलन है जो करेले की बेल को नीम के पेड की संगत दे देते हैं। जो कि हमारे दिल के लिए सबसे ज्यादा खतरा पैदा करने वाले पदार्थ बन जाते हैं। सिर्फ दूसरे देशों से आयातीत खाद्य पदार्थ ही नहीं अपने यहां के समोसे, कचौडी, पूरी, चाट  जैसे अति तेल रंजित खाद्य भी इसी श्रेणी में आते हैं। दुकानों इत्यादि में बनने वाले ऐसे पदार्थ और भी हानीकारक हो जाते हैं क्योंकि वहां इस्तेमाल हुआ तेल बदला नहीं जाता, रोज के बचे हुए तेल में ही नया तेल मिला कर उपयोग मे ले लिये जाने के कारण वह तेल खाने के लिहाज से बहुत हानीकारक हो जाता है खास कर हमारे दिल के लिए। इसलिए कोशिश करें कि ऐसे खाद्य पदार्थों से जितना बचा जा सके बचे और खाने के बाद यथासंभव गर्म जल का सेवन कर अपने दिल और पेट को थोडा सहयोग प्रदान करें। क्योंकि यदि ये स्वस्थ रहे तभी जिह्वा का स्वाद भी रह पाएगा।

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

इस नरक से छुटकारा पाना है


 इसी के लिए एक विदेशी ने भारत भ्रमण के बाद देश को A VAST OPEN-AIR LAVATRY बताया था। सुनने में बहुत बुरा लगता है पर यह कडवी सच्चाई भी तो है। देश के करोड़ों लोगों के पास शौचालय की सुविधा न हो, तो इससे बड़ा सामाजिक अन्याय या इससे बड़ी विषमता और क्या हो सकती है! 

वर्षों पहले बंगाल की राजधानी कलकत्ता (तब का नाम) को साफ-सुथरा रखने के लिए एक अभियान चलाया गया था जिसके तहत किसी भी आदमी को सडक किनारे लघु-शंका निवारण करते पाये जाने पर उसपर जुर्माना करने की पुलिस को छूट थी। विचार और इरादा नेक था पर अमल में लाने लायक नहीं था। क्योंकि इस तरह की जन सुविधाओं की शहर में हद दर्जे तक कमी थी। तो पहले सुविधा तो उपलब्ध हो फिर कानून लागू करवाया जाए तो बात समझ में आती है। वैसा ही कुछ आज-कल हमारी सरकार प्रचार कर रही हैं कि खुले में शौच करने वालों को गिरफ्तार कर लेना चाहिए या उन घरों में बेटियां नहीं देनी चाहिए, जिनके घरों में शौचालय न हों। सुनने में यह सब बहुत अच्छा लगता है लेकिन क्या इसे तत्कालिक रूप से व्यवहारिक बनाया जा सकता है? क्या रातों-रात बदलाव लाया जा सकता है?    

दुखद सत्य है कि स्वतंत्रता मिलने के सालों बाद भी सुबह होते ही करोंडों नर-नारियों को इस असहनीय, नाकाबिले-बर्दास्त  प्रकृति की पुकार का शर्मनाक तरीके से, लोक-लाज के बावजूइस द खुले में जा कर शमन करना पडता है। इसी के लिए एक विदेशी ने भारत भ्रमण के बाद देश को A VAST OPEN-AIR LAVATRY बताया था। सुनने में बहुत बुरा लगता है पर यह कडवी सच्चाई भी तो है। देश के करोड़ों लोगों के पास शौचालय की सुविधा न हो, तो इससे बड़ा सामाजिक अन्याय या इससे बड़ी विषमता और क्या हो सकती है! आखिर राजनीतिक दलों के नेता गणों या मानवाधिकार के झंडाबदारों या फिर महिलाओं की स्थिति पर घडियाली आंसू बहाने वालों को क्यों यह नरक नज़र नहीं आता? क्या कभी उन्होंने सोचा भी है कि इस स्थिति से रोज दो-चार होने वाली महिलाओं पर क्या गुजरती होगी? जब कि दुनिया के दूसरे देशों से तुलना करें तो इस मामले में कयी पायदानों पर हम ही हम हैं। हमारे बाद किसी देश का नम्बर आता है तो वह है इंडोनेशिया जहां कुछ लाख लोगों को ही इस संकट का सामना करना पडता है।  

विडंबना देखिए कि किसी के नेता बनते ही उसके  घर को झोंपडी से बंगला और फिर महल बनते देर नहीं लगती। जिनको लुभावने स्वप्न दिखाए जाते हैं वे सपनों में ही खोए रहते हैं और इधर करोंडों की मुर्तियां टूटती बनती रहती हैं और जिसके पैसों से यह सब होता है वह रोज जहालत झेलता रहता है। 

अब इसे नासमझी कह लें या अशिक्षा पर यह तो जाहिर है कि हमने या सरकारों ने शौचालय की व्यवस्था को जितनी प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी नहीं दी। हमने सामाजिक न्याय और समता की बातें तो खूब कीं, लेकिन जिंदगी की बुनियादी जरूरतों की ओर उतना ध्यान नहीं दिया। व्यापक तौर पर इसके पीछे गरीबी-बेरोजगारी और सरकारी तंत्र की नाकामी भी जिम्मेदार है। पर जब जागे तब सबेरा, निर्मल भारत अभियान से भी उम्मीद बनी है। पर जरूरत है लोगों को जागरूक करने की ना कि दंडित करने की। धीरे-धीरे ही सही पर इस तस्वीर को, उपर लिखे "टैग" को मिटाना ही है हमें, हर कीमत पर।

बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

रावण का अंतर्द्वंद्व

हमारे प्राचीन साधू-संत, ऋषि-मुनि  अपने  विषयों के प्रकांड  विद्वान हुआ  करते थे।   उनके द्वारा  बताए   गए उपदेश,  कथाएँ,   जीवनोपयोगी  निर्देश   उनके जीवन   भर के      अनुभवों का सार हुआ करता था जो आज भी प्रासंगिक हैं। उनके कहे पर शक करना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा ही है। पर समय के साथ या फिर अपनी क्षुद्र बुद्धि से कुछेक लोगों ने  अपने हितों के लिए उनकी हिदायतों को तोड़ मरोड़ लिया हो, ऐसा भी संभव है। रामायण के सन्दर्भ में ही देखें तो करीब पांच हजार साल पहले  ऋषि वाल्मीकि जी  के   द्वारा    उल्लेखित रावण में  और आज के प्रचारित रावण  में जमीन-आसमान का फर्क देखने को मिलता है....      


अभी भी सूर्योदय होने में कुछ विलंब था। पर क्षितिज की सुरमयी कालिमा धीरे-धीरे सागर में घुलने लगी थी। कदर्थित रावण पूरी रात अपने महल के उतंग कंगूरों से घिरी छत पर बेचैन घूमता रहा था। पेशानी पर बल पड़े हुए थे। मुकुट विहीन सर के बाल सागर की हवा की शह पा कर उच्श्रृंखलित हो बार-बार चेहरे पर बिखर-बिखर जा रहे थे। रात्रि जागरण से आँखें लाल हो रहीं थीं। पपोटे सूज गए थे। सदा गर्वोन्नत रहने वाले मस्तक को कंधे जैसे संभाल ही नहीं पा रहे थे। तना हुआ शरीर, भीचीं हुई  मुट्ठियाँ, बेतरतीब डग, जैसे विचलित मन की गवाही दे रहे हों। काल की क्रूर लेखनी कभी भी रावण के तन-बदन या मुखमंडल पर बढती उम्र का कोई चिन्ह अंकित नहीं कर पायी थी। वह सदा ही तेजस्वी-ओजस्वी, ऊर्जावान नजर आता था । पर आज की घटना ने जैसे उसे प्रौढ़ता के द्वार पर ला खड़ा कर दिया था। परेशान, चिंताग्रस्त रावण को अचानक आ पड़ी विपत्ति से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। एक ओर प्रतिष्ठा थी, इज्जत थी, नाम था, धाक थी जगत मे। दूसरी ओर इस जीवन के साथ-साथ पूरी राक्षस जाति का विनाश था। 


कल की ही तो बात थी। रोती कलपती उच्छिन्ना शुर्पणखा ने भरे दरबार में प्रवेश किया था। सारा चेहरा खून से सना हुआ था, हालांकि नाक-कान पर खरुंड ज़मने लगा था पर खून का रिसना बंद नहीं हुआ था। जमते हुए रक्त ने जुल्फों को जटाओं में बदल कर रख दिया था। रेशमी वस्त्र धूल-मिटटी व रक्त से लथ-पथ हो चीथड़ों में बदल गए थे। रूप-रंग-लावण्य सब तिरोहित हो चुका था,बचा था वीभत्स, डरावना, लहुलूहान चेहरा। राजकुमारी को ऐसी हालत में देख चारों ओर सन्नाटा छा गया था। सारे सभासद इस अप्रत्याशित दृश्य को देख कर सकते मे आ खडे हो गये थे। विशाल बाहू रावण ने दौड कर अपनी प्यारी बहन को अपनी सशक्त बाहों का सहारा दे अपने कक्ष मे पहुंचाया तथा स्वयं मंदोदरी की सहायता से उसे प्राथमिक चिकित्सा देते हुए अविलम्ब सुषेण वैद्य को हाजिर होने का आदेश दिया। घंटों की मेहनत और उचित सुश्रुषा के बाद कुछ व्यवस्थित होने पर शुर्पणखा ने जो बताया वह चिंता करने के लिये पर्याप्त था।



 शुर्पणखाअपने भाईयों की चहेती, प्राणप्रिय, इकलौती बहन थी। बचपन से ही सारे भाई उस पर जान छिडकते आए थे। उसकी राह मे पलक-पांवडे बिछाये रहते थे। इसी से समय के साथ-साथ वह उद्दंड व उच्श्रृंखल होती चली गयी थी। विभीषण तो फिर भी यदा-कदा उसे मर्यादा का पाठ पढ़ा देते थे, पर रावण और कुम्भकर्ण तो सदा उसे बालिका मान उसकी जायज-नाजायज इच्छाएं पूरी करने को तत्पर रहते थे। यही कारण था कि पति के घर की अपेक्षा उसका ज्यादा समय अपने पीहर में ही व्यतीत होता था। यहां परम प्रतापी भाईयों के स्नेह का संबल पा शुर्पणखा सारी लोक-लाज, मर्यादा को भूल बरसाती नदी की तरह सारे तटबंधों को तोड दूनिया भर मे तहस-नहस मचाती घूमती रहती थी। ऋषि-मुनियों को तंग करना, उनके काम में विघ्न डालना, उनके द्वारा आयोजित कर्म-कांडों को दूषित करना उसके प्रिय शगल थे और इसमे उसका भरपूर साथ देते थे खर और दूषण।

इसी तरह अपने मद में मदहोश वह मूढ़मती उस  दिन अपने सामने राम और लक्ष्मण को पा उनसे प्रणय निवेदन कर बैठी और उसी का फल था यह अंगविच्छेद। क्रोध से भरी शुर्पणखा ने रावण को हर तरह से उकसाया था अपने अपमान का बदला लेने के लिए,  यहां तक   कि  पिता  समान बडे भाई पर व्यंगबाण छोडने से भी नहीं हिचकिचाई  थी। यही कारण था रावण की बेचैनी का, रतजगे का और शायद लंका के पराभव का। रावण धीर, गंभीर, बलशाली सम्राट के साथ-साथ विद्वान् पंडित तथा भविष्यवेता भी था। उसे साफ नजर आ रहा था अपने देश, राज्य तथा सारे कुल का विनाश।  इसीलिये वह उद्विग्न था। राम के अयोध्या छोड़ने से लेकर उनके लंका की तरफ़ बढ़ने के सारे समाचार उसको मिलते रहते थे पर उसने अपनी प्रजा तथा देश की भलाई के लिए कभी भी आगे बढ़ कर बैर ठानने की कोशिश नहीं की थी। युद्ध का अंजाम वह जानता था।  पर अब तो घटनाएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। अब यदि वह अपनी बहन के अपमान का बदला नहीं लेता है तो संसार क्या कहेगा !  दिग्विजयी रावण जिससे देवता भी कांपते हैं, जिसकी एक हुंकार से दसों दिशाएँ कम्पायमान हो जाती हैं वह कैसे चुप बैठा रह सकता है। इतिहास क्या कहेगा,   कि देवताओं को  भी त्रासित करने वाला  लंकेश्वर अपनी बहन के अपमान पर, वह भी तुच्छ मानवों  द्वारा, चुप बैठा रहा ?    क्या कहेगी राक्षस जाति,   जो  अपने प्रति  किसी की  टेढी भृकुटि भी  बर्दास्त नहीं कर सकती, वह कैसे इस अपमान को अपने                                                          
गले के नीचे उतारेगी? उस पर वह शुर्पणखा, जिसका भतीजा इन्द्र को पराजित करने वाला हो, कुम्भकर्ण जैसा सैकड़ों हाथीयों के बराबर बलशाली भाई हो,  कैसे अपमानित हो शांत रह जायेगी?

रावण का आत्ममंथन जारी था। वह जानता था कि देवता, मनुष्य, सुर,   नाग, गंधर्व,  विहंगों मे कोई भी ऐसा  नहीं है  जो मेरे  समान बलशाली खर-दूषण से पार भी पा सके। उन्हें साक्षात प्रभू के सिवाय कोई नहीं मार सकता। ये दोनों ऋषीकुमार साधारण मानव नहीं हो सकते। अब यदि देवताओं को भय मुक्त करने वाले नारायण ही मेरे सामने हैं तब तो हर हाल मे, चाहे मेरी जीत हो या हार, मेरा कल्याण ही है और फिर इस तामस शरीर को छोडने का वक्त भी आ गया है।    यदी साक्षात प्रभू ही मेरे द्वार आये हैं तो    उनके तीक्ष्ण बाणों के   आघात से  प्राण त्याग मैं भव सागर तर जाऊंगा। प्रभू के प्रण को पूरा करने के लिए मैं उनसे हठपूर्वक शत्रुता मोल लूंगा ! पर किस तरह !!  जिससे राक्षस जाति की मर्यादा भी रह जाये और मेरा उद्धार भी हो जाए ?

तभी गगन की सारी कालिमा सागर में विलीन हो गयी।   तम  का मायाजाल सिमट गया ।   भोर हो चुकी थी। कुछ ही पलों में आकाश मे अपने पूरे तेज के साथ भगवान भास्कर के उदय होते ही आर्यावर्त के दक्षिण मे स्थित सुवर्णमयी लंका अपने पूरे वैभव और सौंदर्य के साथ जगमगा उठी। जैसे दो सुवर्णपिंड एक साथ चमक उठे हों। एक आकाश मे तथा दूसरा धरा पर। परन्तु भगवान भास्कर की चमक मे जहां एक ताजगी थी, जिवन्तता थी, उमंग थी वहीं लंका मानो उदास थी, अपने स्वामी की परेशानी को लेकर। तभी रावण ने आखिर एक निष्कर्ष पर पहुंच ठंडी सांस ली। छत से अपनी प्रिय लंका को निहारा और आगे की रणनीति पर विचार करता हुआ मारीच से मिलने निकल पड़ा। 

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

"मां सिद्धिदात्री"


नवरात्र-पूजन के नवें दिन "मां सिद्धिदात्री" की पूजा का विधान है।


मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व , ये आठ प्रकार की सिद्धियां होती हैं। मां इन सभी प्रकार की सिद्धियों को देनेवाली हैं। इनकी उपासना पूर्ण कर लेने पर भक्तों और साधकों की लौकिक-परलौकिक कोई भी कामना अधूरी नहीं रह जाती। परन्तु मां सिद्धिदात्री के कृपापात्रों के मन में किसी तरह की इच्छा बची भी नही रह जाती है। वह विषय-भोग-शून्य हो जाता है। मां का सानिध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। संसार में व्याप्त समस्त दुखों से छुटकारा पाकर इस जीवन में सुख भोग कर मोक्ष को भी प्राप्त करने की क्षमता आराधक को प्राप्त हो जाती है। इस अवस्था को पाने के लिए निरंतर नियमबद्ध रह कर मां की उपासना करनी चाहिए।

मां सिद्धिदात्री कमलासन पर विराजमान हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपरवाले दाहिने हाथ में गदा तथा नीचेवाले दाहिने हाथ में चक्र है। ऊपरवाले बायें हाथ में कमल पुष्प तथा नीचेवाले हाथ में शंख है। इनका वाहन सिंह है। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव को भी इन्हीं की कृपा से ही सारी सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी। इनकी ही अनुकंपा से शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था और वे "अर्धनारीश्वर" कहलाये थे।

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

"महागौरी", महाशक्ति का आठवां स्वरूप


आज नवरात्रों का आठवां दिन है। आज के दिन दुर्गा माता के "महागौरी" स्वरूप की पूजा होती है। पुराणों के अनुसार मां पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी जिसके कारण इनके शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था। शिवजी ने इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर खुद इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से धोया जिससे इनका वर्ण विद्युत-प्रभा की तरह कांतिमान, उज्जवल व गौर हो गया। तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा।
इनकी आयु आठ वर्ष की मानी जाती है। इनके समस्त वस्त्र, आभूषण आदि भी श्वेत हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपर का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और नीचेवाले दाहिने हाथ में त्रिशुल है। ऊपरवाले बायें हाथ में डमरू और नीचे का बायां हाथ वर मुद्रा में है। मां शांत मुद्रा में हैं। ये अमोघ शक्तिदायक एवं शीघ्र फल देनेवालीं हैं। इनका वाहन वृषभ है।
भक्तजनों द्वारा मां गौरी की पूजा, आराधना तथा ध्यान सर्वत्र किया जाता है। इस कल्याणकारी पूजन से मनुष्य के आचरण से सयंम व दुराचरण दूर हो परिवार तथा समाज का उत्थान होता है। कुवांरी कन्याओं को सुशील वर तथा विवाहित महिलाओं के दाम्पत्य सुख में वृद्धि होती है। इनकी उपासना से पूर्व संचित पाप तो नष्ट होते ही हैं भविष्य के संताप, कष्ट, दैन्य, दुख भी पास नहीं फटकते हैं। इनका सदा ध्यान करना सर्वाधिक कल्याणकारी है।
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श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ।।
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बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

हमारे शक्तिपीठ



एक बार दुर्वासा ऋषि ने पराशक्ति की आराधना कर एक दिव्य हार प्राप्त किया था। इसकी असाधारणता के कारण दक्ष ने उसे ऋषि से मांग लिया था पर गलती से उसने हार को अपने पलंग पर रख दिया। जिससे वह दुषित हो गया और उसी कारण दक्ष के मन में शिव जी के प्रति दुर्भावना पैदा हो गयी,

भागवत के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में विष्णु जी मांस पिण्ड सदृश पडे थे। जिनमें पराशक्ति ने चेतना जागृत की। तब प्रभू के मन में सृष्टि को रचने का विचार आया और उनकी नाभी से कमल और फिर ब्रह्मा जी का उदय हुआ। 

ब्रह्मा जी ने मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद को अपने मन की शक्तियों से उत्पन्न किया। नारद जी को छोड इन सभी को प्रजा विस्तार का काम सौंपा गया। नारद जी इन सब को विरक्ति का उपदेश देते रहते थे। जिससे कोई पारिवारिक माया में नहीं फंसता था। इस पर ब्रह्मा जी ने ध्यान लगाया तो उन्होंने जाना कि अभी तक महामाया का अवतार नहीं हो पाया है सो उन्होंने दक्ष को महामाया को प्रसन्न करने का आदेश दिया। दक्ष के कठोर तप से मां महामाया प्रसन्न हुईं और उसे वरदान दिया कि मैं तुम्हारे घर विष्णु जी के सत्यांश से सती के रूप में जन्म लूंगी और मेरा विवाह शिव जी से होगा। बाद में ऐसा हुआ भी, पर !!!

एक बार दुर्वासा ऋषि ने पराशक्ति की आराधना कर एक दिव्य हार प्राप्त किया था। इसकी असाधारणता के कारण दक्ष ने उसे ऋषि से मांग लिया था पर गलती से उसने हार को अपने पलंग पर रख दिया। जिससे वह दुषित हो गया और उसी कारण दक्ष के मन में शिव जी के प्रति दुर्भावना पैदा हो गयी, जिसके कारण यज्ञ का विध्वंस और सती का आत्मोत्सर्ग हुआ। शिव जी उनके शरीर को लेकर उन्मादित हो गये, जगत का अस्तित्व खतरे में आ गया तब विष्णु जी ने अपने चक्र से सती के शरीर को काट कर शिव जी से अलग किया। वही टुकडे जिन 51 स्थानों पर गिरे वे शक्ति पीठ कहलाए। वे स्थान निम्नानुसार हैं :-

1-  कीरीट,   2-  वृन्दावन,  3-  करनीर,   4-  श्री पर्वत,  5-  वाराणसी,  6- गोदवरी तट, 7- शुचि, 8- पंच सागर, 9- ज्वालामुखी,  10- भैरव पर्वत,  11- अट्टहास,  12- जनस्थान,  13- काश्मीर,  14- नंदीपुर,  15-  श्री शैल, 16- नलहटी,  17- मिथिला,  18- रत्नावली, 19-प्रभास, 20-जालंधर, 21-रामगीरी, 22- वैद्यनाथ, 23-वक्त्रेश्वर, 24- कन्यकाश्रम,  25-बहुला,  26- उज्जैयिनी,  27- मणिवेदिक,  28- प्रयाग,  29- उत्कल,  30-  कांची,  
31- काल माधव, 32- शोण, 33- कामगीरी, 34- जयन्ती, 35- मगध, 36- त्रिस्नोता, 37- त्रिपुरा,  38- विभाष, 39- कुरुक्षेत्र,  40- युगाधा,  41- विराट,  42- काली पेठ,  43- मानस,  44- लंका,  45- गण्डकी,  46- नेपाल,     47-  हिंगुला,   48- सुगंधा,  49- करतोयातर,  50- चट्टल  तथा   51- यशोद

जय माता की, गलतियां क्षमा हों  


सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

अपने-अपने पिता की सीख


व्यापारी का लड़का सोच मे पड़ गया कि क्या बापू ने झूठ कहा था कि बंदर नकल करते हैं। उधर बंदर सोच रहा था कि आज बापू की सीख काम आई कि मनुष्यों की नकल कर कभी बेवकूफ़ मत बनना।

बहुत समय पहले की बात है एक व्यापारी तरह-तरह का सामान दूर-दराज के क्षेत्रों में ले जा कर बेचा करता था और इसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। उस समय गाडी-घोडे का उतना चलन नहीं था, वैसे भी वह पैदल ही अपना काम करते चलता था।   

एक बार वह तरह-तरह की रंगबिरंगी टोपियां ले दूसरे शहर बेचने निकला। चलते-चलते दोपहर होने पर वह एक पेड़ के नीचे सुस्ताने के लिए रुक गया। भूख भी लग आई थी, सो उसने अपनी पोटली से खाना निकाल कर खाया और थकान दूर करने के लिए वहीं लेट गया। थका होने की वजह से उसकी आंख लग गयी। कुछ देर बाद नींद खुलने पर वह यह देख भौंचक्का रह गया कि उसकी सारी टोपियां अपने सिरों पर उल्टी-सीधी लगा कर बंदरों का एक झुंड़ पेड़ों पर टंगा हुआ है। व्यापारी ने सुन रखा था कि बंदर नकल करने मे माहिर होते हैं। भाग्यवश उसकी अपनी टोपी उसके सर पर सलामत थी। उसने अपनी टोपी सर से उतार कर जमीन पर पटक दी। देखा-देखी सारे बंदरों ने भी वही किया। व्यापारी ने सारी टोपियां समेटीं और अपनी राह चल पड़ा।

समय गुजरता गया। व्यापारी बूढ़ा हो गया उसका सारा काम उसके बेटे ने संभाल लिया। वह भी अपने बाप की तरह दूसरे शहरों मे व्यापार के लिए जाने लगा। दैवयोग से एक बार वह भी उसी राह से गुजरा जिस पर वर्षों पहले उसके पिता का सामना बंदरों से हुआ था। भाग्यवश व्यापारी का बेटा भी उसी पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठा। उसने कलेवा कर थोड़ा आराम करने के लिए आंखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद हल्के से कोलाहल से उसकी तंद्रा टूटी तो उसने पाया कि उसकी गठरी खुली पड़ी है और टोपियां बंदरों के सर की शोभा बढ़ा रही हैं। पर वह जरा भी विचलित नहीं हुआ और पिता की सीख के अनुसार उसने अपने सर की एक मात्र टोपी को जमीन पर पटक दिया।
पर यह क्या!!! एक मोटा सा बंदर झपट कर आया और उस टोपी को भी उठा कर पेड़ पर चढ़ गया।

व्यापारी का लड़का सोच मे पड़ गया कि क्या बापू ने झूठ कहा था कि बंदर नकल करते हैं। उधर बंदर सोच रहा था कि आज बापू की सीख काम आई कि मनुष्यों की नकल कर कभी बेवकूफ़ मत बनना।

विशिष्ट पोस्ट

त्रासदी, नंबर दो होने की 😔 (विडियो सहित)

वीडियो में एक  व्यक्ति रैंप  पर स्नोबोर्डिंग  करने  की  कोशिश  करता  है, पर असफल  हो  जाता है।  यूट्यूब पर जावेद करीम के दुनिया के पहले  वीड...