फिर वह दिन भी आ गया जब पुल बन कर तैयार हो गया। उस दिन उससे जुड़े सारे लोग बहुत खुश थे। तभी एक महिला मजदूर सावित्री की नजर पुल की मुंडेर पर निश्चेष्ट पड़ी उस गिलहरी पर पड़ी, जिसने महिनों उन सब का दिल बहलाया था। उसे हिला-ड़ुला कर देखा गया, पर उस नन्हें जीव के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। यह विड़ंबना ही थी कि जिस दिन पुल बन कर तैयार हुआ उसी दिन उस गिलहरी ने अपने प्राण त्याग दिए ..................!
#हिन्दी_ब्लागिंग
हजारों साल पहले, त्रेतायुग में जब राम जी की सेना लंका पर चढ़ाई के लिए सागर पर सेतु बना रही थी, कहते हैं तब एक छोटी सी गिलहरी ने भी अपनी तरफ से जितना बन पडा था योगदान कर प्रभू का स्नेह प्राप्त किया था। शायद उस गिलहरी की वंश-परंपरा अभी तक चली आ रही है ! क्योंकि फिर उसी देश में, एक गिलहरी ने फिर एक पुल के निर्माण में सहयोग किया था ! लोगों का प्यार भी उसे भरपूर मिला पर अफ़सोस जिंदगी नहीं मिल पाई !
अंग्रेजों के जमाने की बात है। दिल्ली-कलकत्ता मार्ग पर इटावा शहर के नौरंगाबाद इलाके के एक नाले पर एक पुल का निर्माण हो रहा था। पचासों मजदूरों के साथ-साथ बहुत सारे सर्वेक्षक, ओवरसियर, इंजिनीयर तथा सुपरवाईजर अपने-अपने काम पर जुटे, समय पर कार्य पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे। जाहिर है भोजनावकाश के दौरान, इतने लोगों के कलेवे-नाश्ते के अन्नकण यहां-वहां बिखर ही जाते थे ! उन्हीं को अपना भोजन बनाने के लिए कहीं से एक गिलहरी वहां रोज आने लगी !
यह छोटी सी समाधी पुल की मुंड़ेर पर बनी हुई है, इसिलिये इस पुल का नाम भी गिलहरी का पुल पड़ गया। आस-पास के लोग कभी-कभी इस पर दिया-बत्ती कर जाते हैं
शुरु-शुरु में तो वह काफी ड़री-ड़री और सावधान रहती थी ! जरा सा भी किसी के पास आने या आहट होते ही झट से किसी सुरक्षित स्थान पर जा छुपती थी। पर धीरे-धीरे वह वहां के वातावरण से हिलमिल गई। उसको समझ आ गया कि इन मानवों से उसे कोई खतरा नहीं है। कुछ ही दिनों में वह काम में लगे मजदुरों से इतनी हिल-मिल गई कि अब बिना किसी डर के उनके पास ही दौड़ती-घूमती रहने लगी। उनके हाथ से खाना भी लेने लग गई ! उसकी हरकतों और तरह-तरह की आवाजों से काम करने वालों का भी मनोरंजन तो होता ही था साथ ही इस जीवित खिलौने की अठखेलियों से कुछ हद तक उनका काम का तनाव भी दूर रहने लगा था। वे भी रोज की एकरसता से आने वाली सुस्ती से मुक्त हो काम करने लगे थे !
फिर वह दिन भी आ गया जब पुल बन कर तैयार हो गया। उस दिन उससे जुड़े सारे लोग बहुत खुश थे। तभी एक महिला मजदूर सावित्री की नजर पुल की मुंडेर पर निश्चेष्ट पड़ी उस गिलहरी पर पड़ी, जिसने महिनों उन सब का दिल बहलाया था। उसे हिला-ड़ुला कर देखा गया पर उस नन्हें जीव के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। यह विड़ंबना ही थी कि जिस दिन पुल बन कर तैयार हुआ उसी दिन उस गिलहरी ने अपने प्राण त्याग दिये। उपस्थित सारे लोग उदासी से घिर गये। कुछ मजदुरों ने वहीं उस गिलहरी की समाधी बना दी। जो आज भी देखी जा सकती है। यह छोटी सी समाधी पुल की मुंड़ेर पर बनी हुई है, इसिलिये इस पुल का नाम भी गिलहरी का पुल पड़ गया। आस-पास के लोग कभी-कभी इस पर दिया-बत्ती कर जाते हैं।
@चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से
25 टिप्पणियां:
सुन्दर
हार्दिक आभार, सुशील जी
सुंदर लेख पर दुखद अंत
रोचक, पर नन्हीं जान का दुख भी
कदम जी
यह सत्य घटना है
कदम जी
सचमुच! पढ-सुन कर इतना दुख हो रहा है तो वास्तव में उस समय लोगों पर क्या गुजरी होगी
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(२१-१०-२०२१) को
'गिलहरी का पुल'(चर्चा अंक-४२२४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अनीता जी
सम्मिलित कर मान देने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
सुंदर प्रस्तुति
ओंकार जी
बहुत-बहुत धन्यवाद
बहुत भावपूर्ण , मर्मस्पर्शी
भावनाओं से ओतप्रोत बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी लेख!
बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी सृजन।
हृदयस्पर्शी घटना । बहुत सीधा और फुर्तीला जीव । बहुत मार्मिक प्रसंग।
बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन
हृदय स्पर्शी कथानक सत्य कथा को हम-सब को पढ़वाने के लिए हृदय से आभार गगन जी।हृदय द्रवित करती कहानी कज्हने का सुंदर ढंग।
बहुत सुंदर।
ज्योति जी
आपका सदा स्वागत है
मनीषा जी
अनेकानेक धन्यवाद
सुधा जी
सच में दुख होता है ऐसी घटनाएं सुन-देख
मीना जी
बिलकुल! सीधा फुर्तीला और प्यारा जीव
मनोज जी
वहां उपस्थित लोगों पर क्या बीती होगी, यह सोच कर और भी दुख होता है
बहुत-बहुत आभार, कुसुम जी
मर्मस्पर्शी...
विकास जी
दुखद भी
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