ठीक है अंग्रेजी का महत्व अपनी जगह है। पर उसके कारण, अकारण ही हम अपनी भाषा को हीन समझते हैं, उसे दोयम दर्जे की मान लेते हैं ! दुःख तो तब होता है जब सिर्फ हिंदी के कारण विख्यात होने वाले, इसी की कमाई खाने वाले कृतघ्न, कोई मंच मिलते ही अंग्रेजी में बोलना शुरू कर देते हैं। शायद उनके कम-अक्ल दिमाग में कहीं यह हीन भावना रहती है कि हिंदी में बोलने से शायद उन्हें गंवार ही न समझ लिया जाए.............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
14 सितम्बर, हिंदी दिवस। अपनी राष्ट्र भाषा को संरक्षित करने के लिए, उसकी बढ़ोत्तरी, उसके विकास के लिए मनाया जाने वाला दिन। पर मेरे लिए इस दिन की शुरुआत ही बड़ी अजीब रही ! अभी अपने संस्थान पहुंचा ही था कि एक छात्रा सामने पड़ गयी। छूटते ही बोली, हैप्पी हिंदी डे सर ! मैं भौंचक, क्या बोलूँ क्या न बोलूँ ! सर हिला कर आगे बढ़ गया। पर दिन भर दिमाग इसी में उलझा रहा कि क्या हम सचमुच अपनी भाषा का आदर करते हैं ? क्या हमारी दिली ख्वाहिश है की हिंदी आगे बढे ! इसे विश्व परिदृश्य में सम्मान मिले ! इसकी एक समृद्ध भाषा के रूप में पहचान बने ? या फिर इस एक दिन की नौटंकी सिर्फ औपचारिकता पूरी करने के लिए वातानुकूलित कमरों में बैठ सिर्फ सरकारी पैसे का दुरुपयोग करने के लिए की जाती है ?
शिखर की दस भाषाओं ने विश्व की करीब 40 प्रतिशत आबादी को समेट रखा है। उन दस भाषाओं में हमारी हिंदी तीसरे स्थान पर है। उसके आगे सि र्फ चीन की मैंड्रीन पहले नम्बर पर तथा दूसरे नम्बर पर अंग्रेजी है। इन आंकड़ों से हिंदी की अहमियत को अच्छी तरह समझा जा सकता है
संसार भर में करीब 7000 भाषाएं बोली जाती हैं। जिनमें करीब 1700 को बोलने वाले 1000 से भी कम लोग हैं। कुछ तो ऐसी भाषाएं भी हैं जिन्हें 100 या उससे भी कम लोग बोलते हैं। करीब 6300 अलग-अलग भाषाओं को एक लाख या उससे अधिक लोग बोलते हैं। जिसमें शिखर की 150-200 ही ऐसी भाषाएं हैं जिन्हें दस लाख या उससे ज्यादा लोग प्रयोग करते हैं। ऐसा कहा जा सकता है की 7000 में से सिर्फ 650-700 भाषाओं को पूरे विश्व की 99.9 प्रतिशत आबादी बोलती है। इसमें भी शिखर की दस भाषाओं ने विश्व की करीब 40 प्रतिशत आबादी को समेट रखा है। उन दस भाषाओं में हमारी हिंदी तीसरे स्थान पर है। उसके आगे सिर्फ चीन की मैंड्रीन पहले नम्बर पर तथा दूसरे नम्बर पर अंग्रेजी है। इन आंकड़ों से हिंदी की अहमियत अच्छी तरह समझी जा सकती है।
हिंदी हमारी संस्कृति की संवाहक है ! अंदाजन जिसे 45 से 50 करोड़ लोग आपस में संपर्क करने के लिए काम में लाते हैं। अपने देश में कुछ हठधर्मिता, कुछ राजनीतिक लाभ के कारण इसके विरोध को छोड़ दें, तो यह पूरे देश की संपर्क भाषा है। यह हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ऐसी भाषा के संरक्षण के लिए हमारे देश में दिन निर्धारित किया जाता है। हम उसके लिए सप्ताह या पखवाड़ा मना, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। वह भी तब जबकि इसका "ग्रामर" पूर्णतया तर्कसम्मत है। बोलने में जीभ को कसरत नहीं करनी पड़ती। इसकी विशेषता है कि इसे जैसा लिखा जाता है वैसा ही पढ़ा भी जाता है। इतना सब होते हुए भी हमारी मानसिकता ऐसी हो गयी है कि हम इसे इसका उचित स्थान और सम्मान नहीं दिला पा रहे। विडंबना है की इतनी समृद्ध भाषा के लिए भी हमें दिन निश्चित करना पड़ता है। जबकि तरक्कीशुदा देशों में इसकी अहमियत पहचान, इसे सम्मान का दर्जा दिया जा रहा है।
ठीक है अंग्रेजी का महत्व अपनी जगह है। पर उसके कारण, अकारण ही हम अपनी भाषा को हीन समझते हैं, उसे दोयम दर्जे की समझते हैं। दुःख तो तब होता है जब सिर्फ हिंदी के कारण विख्यात होने वाले, इसी की कमाई खाने वाले कृतघ्न कोई मंच मिलते ही अंग्रेजी में बोलना शुरू कर देते हैं। शायद उनके कम-अक्ल दिमाग में कहीं यह हीन भावना रहती है कि हिंदी में बोलने से शायद उन्हें गंवार ही न समझ लिया जाए।
दुनिया के दूसरे देशों रूस, चीन, जापान, फ्रांस, स्पेन आदि से हमें सबक लेना चाहिए जिन्होंने अपनी तरक्की के लिए दूसरी भाषा को सीढी न बना अपनी भाषा पर विश्वास रखा और दुनिया में अपना स्थान बनाया।
@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से
16 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-09-2021) को चर्चा मंच "राजभाषा के 72 साल : आज भी वही सवाल ?" (चर्चा अंक-4188) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दुःख तो तब होता है जब सिर्फ हिंदी के कारण विख्यात होने वाले, इसी की कमाई खाने वाले कृतघ्न कोई मंच मिलते ही अंग्रेजी में बोलना शुरू कर देते हैं। शायद उनके कम-अक्ल दिमाग में कहीं यह हीन भावना रहती है कि हिंदी में बोलने से शायद उन्हें गंवार ही न समझ लिया जाए...बिलकुल सही कहा आपने,काफी कुछ तो हिंदी के खेवनहारों ने भी हिंदी के साथ अन्याय किया, हिंदी को नई पीढ़ी के बीच ले जाने के बजाय अंग्रेजी भाषा को समृद्ध करने का काम किया,सार्थक प्रश्न उठाया है आपने ।
शुभकामनाएं हिंदी दिवस की| सुन्दर
कुछ न कुछ तो हमारा भी दोष है इसकी प्रगति में बाधक बनने के लिए
शास्त्री जी
सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार
जिज्ञासा जी
कुछ अहम, कुछ पुर्वाग्रह सदा इसकी राह में रोड़े बिछाते रहे हैं
सुशील जी
यह सदा फले-फूले यही कामना है
कदम जी
यह भी एक सच्चाई है
वाह!बहुत बढ़िया सर।
आपके लेखन में हमेशा सकारात्मकता की महक होती है।
हार्दिक बधाई सर।
सादर नमस्कार
अनीता जी
बहुत-बहुत आभार
हिंदी दिवस पर अत्यंत सार्थक लेखन, हिंदी को अपना खोया हुआ सम्मान एक दिन अवश्य मिलेगा, हमें इसी तरह प्रयासरत रहना होगा
अनीता जी
हम सभी को यथासंभव प्रयास करते रहना होगा, अडचने तो सदा राशन-पानी ले मौके की तलाश में रहती हैं
अभी अपने संस्थान पहुंचा ही था कि एक छात्रा सामने पड़ गयी। छूटते ही बोली,हैप्पी हिंदी डे सर! ऐसे वाक्य सुनकर एक बार तो सामने वाले व्यक्ति की मूर्खता पर हंसी आती है
पर दूसरे पर ही पल अंतर्मन में सवालों के तूफान उठने लगते हैं !
आज के वक्त तो मध्य वर्ग के अभिभावक भी अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम विद्यालय में पढ़ाना पसंद करते हैं!ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनके बच्चे अधिक हुनरमंद कहलायेंगे! कहीं ना कहीं इसके पीछे यह कारण भी छुपा होता है कि आजकल इंग्लिश मीडियम स्कूल के बच्चे को अधिक तवज्जो दिया जाता है हिंदी मीडियम के बच्चों की तुलना में!
तब तो और दुख होता है जब कोई व्यक्ति हिंदी प्रेमी होने का दिखावा करता है! आपने एक बात बिल्कुल सही कही अगर हिंदी को अपनाना है तो दिल से अपनाओ....! प्रश्न मेरे मन में हमेशा एक सवाल उठता है कि हमारे यहां सभी विषयों की पढ़ाई हिंदी में क्यों नहीं उपलब्ध है! क्यों सिर्फ इंग्लिश में ही उपलब्ध होता है?
मनीषा जी
शुरू से ही देश के पूरब और दक्षिणी भाग से इसका विरोध होता आया है। हिंदी के विकास की बात होते ही उन्हें अपनी भाषाओं पर खतरा मंडराते नजर आने लगता है, हालांकि इसमें राजनीति का बहुत बडा हाथ है !
शानदार तथ्य, विस्तृत जानकारी युक्त उपयोगी पठनीय पोस्ट।
कुसुम जी
बहुत-बहुत धन्यवाद
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