#हिन्दी_ब्लागिंग
बहुत दिनों से एक सोच आ-आ कर टक्करें मार रही थी कि हमाम गायिकी यानी बाथरूम सिंगिंग का भी एक घराना जरूर होना चाहिए था। गायिकी के घरानों की बात करें तो देश में ऐसे पच्चीस-तीस घराने ही तो होंगे, जहां अत्यंत उच्च कोटि का गायन सिद्धहस्त गुरुओं और उस्तादों द्वारा मनोयोग से सिखाया जाता रहा है। वहां प्रवेश मिलना तो दूर उसके लिए सोचने की भी ख़ास योग्यता की जरुरत होती है। गुरु और शिष्य तन, मन और पूरी निष्ठा से सुरों को साधने में वर्षों लगा देते हैं। इसीलिए वहां से हीरे ही निकलते भी हैं। पर कितने ! पांच हज़ार, दस हज़ार, बीस हज़ार !! पर मुद्दा यह है कि दुनिया को सिर्फ डॉक्टर ही थोड़े चाहिए होते हैं ! सहायक, नर्सें, वार्ड-ब्वाय भी तो उतने ही जरुरी होते हैं ! इसीलिए यह सोच बार-बार जोर मार रही थी कि एक अदद ऐसा घराना भी होना चाहिए था, जो काश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से आसाम तक पाए जाने वाले उन लाखों-लाख 'सुरतालयों' को, जिन्होंने अपनी संगीत साधना से गली-मौहल्ले तक को सराबोर कर रखा हो, एक जगह इकट्ठा कर उन्हें अपना नाम दे उनकी पहचान बनवा सकने में सहायक होता।
ये सुरताले वे कलाकार हैं जो देश के हर हिस्से में पाए जाते हैं। इनमें गायन की जन्मजात प्रतिभा होती है। इनका पहला क्रंदन भी सुर से भटका नहीं होता, जिसकी गवाह उस समय इनके पास खड़ी दाई या नर्स हो सकती है। ऐसे स्वयंभू गायकों के लिए भाषा भी कोई बाधा नहीं होती। ये गायन की हर विधा और भाषा पर अपनी पकड़ बना लेते हैं। पर इनके साथ विडंबना यह होती है कि जैसे-जैसे इनकी उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे इनकी प्रतिभा तो फैलती जाती है यानि उस समय का हर दिग्गज गायक इनकी नक़ल के सामने बौना होता जाता है ! पर इनका खुद का भौतिक दायरा छोटा होता जाता है और ये घर के एक कमरे में, जिसे स्नानागार कहते हैं, सिमट कर रह जाते हैं। जी हाँ, उन्हीं हजारों-लाखों 'बाथ रूम सिंगर' की बात हो रही है जिन्हें देश कभी पहचान नहीं पाया। इसीलिए इनको एक ऐसे मंच की जरुरत है जो इन्हें दरवाजे की कड़ी-चिटकनी के लगे होने ना होने की आशंका और उस पर बाहर इंतजार करते लोगों की थपथपाहट को नजरंदाज कर सिर्फ अपने आलाप को पूरी कॉलोनी में प्रसारित करने की फिक्र हो ! सुर तो इनका हर देशी-विदेशी धुन को साधने में सिद्धहस्त होता है, इनको तो सिर्फ यह सिखाने की जरुरत है कि नहाते समय पानी कहाँ और कैसे डालें जिससे आरोह-अवरोह में सामंजस्य बना रहे !
एकाध बार इन्हें पहचान दिलाने की अधकचरी कोशिश हुई भी, जैसे फिल्म "पति-पत्नी और वो" में संजीव कुमार जी द्वारा अभिनीत पात्र को सामने कर 'बाथरूम सिंगिंग' यानि 'हमाम गायिकी' के विषय को छुआ गया था, पर वह मूल मुद्दे से भटक एक हास्य दृश्य बन कर रह गया। उनका बाल्टी-लोटे से नहाना उस गाने को वह ऊंचाइयां नहीं छूने देता जिसकी वहां आवश्यकता थी। हालांकि उस पात्र ने इस कला को जीवित रखने के लिए अपने बेटे को भी इस विधा में प्रशिक्षित करने की कोशिश की थी ! पर हर साधना के कुछ नियम होते हैं जिनका पालन करना ही पड़ता है। बाल्टी-लोटे या मग्गे से नहाते समय गायक का ध्यान बाल्टी के कम होते पानी और लोटे-मग्गे को साधने में ही अटका रहता है ! जिससे सुर भटकने का खतरा बन जाता है। दूसरी तरफ पानी जरूर कुछ ज्यादा लगता है पर बात शॉवर से छलकती जल-राशि से ही बनती है।
गाने और पानी का सदियों से नाता रहा है या यूं कहिए पानी की कलकल ध्वनि ने गायन की विधा को ऊंचाइयों पर पहुंचाने में अहम योगदान दिया है। अब सागर, नदियां, सरोवर तो वैसे रहे नहीं कि उनके किनारे सुर साधे जा सकें ! ले-दे कर स्नानगृह ही ऐसी जगह बची है जहां कुछ-कुछ पानी भी है, कुछ-कुछ तन्हाई भी और कुछ-कुछ फुर्सत भी, जिसे दिल ढूँढ़ता रहता है। इसीलिए इसी कुछ-कुछ में बहुत कुछ ढूंढते इन अंजान कलाकारों को कोई तो ठीहा मिलना ही चाहिए ! तो क्या ऐसा लगता नहीं कि इन बहुआयामी कलाकारों को भी हक़ है अपनी पहचान बनाने का, अपनी कला को निखारने का, अपनी निश्छल सेवा भावना के बदले समाज से कुछ पाने का, अपना घराना बनवाने का !! क्योंकि ये वे कलाकार हैं जो अपनी कला से प्यार करते हैं पर उस कला की मेहरबानी इन पर कभी नहीं होती।
8 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर ¡ हमारी भी सुनने वाला कोई होना चाहिए
रोचक... ऐसा हो जाए तो हम भी उस घराने में अपना नाम लिखा लें.... हा हा हा
कदम जी
आवाज में असर होना चाहिए ! प्रभाव जरूर पडता है
विकास जी
तब जल्दी करनी पडेगी, नहीं तो हजारों उम्मीदवारियां हो जाऐंगी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 14 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यशोदा जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक थन्यवाद
वाकई ! कुछ अलग सा ... बहुत ही बढ़िया ।
अमृता जी
सदा स्वागत है आपका
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