मंगलवार, 8 जनवरी 2019

रिलायंस जूट मील, स्वर्गादपि गरीयसी

आज के बच्चे और उनके कुछ पहले के युवा तो शायद हमारे उन सुनहरे दिनों की कल्पना भी नहीं कर सकते, जब रिलायंस के बच्चे ही नहीं पूरा स्टाफ एक परिवार की तरह हुआ करता था ! हरेक का सुख-दुःख, ख़ुशी-गमी, सफलता-असफलता, रीती-रिवाज सबके हुआ करते थे ! हम बच्चे सबके सांझा थे, मजाल है कि खाने-नाश्ते के समय आप किसी और के घर पर हों और बिना खाए रह जाओ ! अच्छा लगा होगा यह पढ़ कर ! पर इसके साथ ही यह भी था कि शरारत-बदमाशी-मस्ती करते पकडे जाने पर शिकायत के लिए पापा या मम्मी का इंतजार नहीं किया जाता था, जो भी काका-काकी सामने होते थे वही, वहीं ''लपेट-लपुट'' कर मामला निपटा देते थे  :-)

#हिन्दी-ब्लागिंग   
कभी-कभी यादों के लगातार थपेड़ों से जब यादाश्त पर जमी काई की कुछ परत छटती है तो कभी-कभी ऐसे नायाब और बेशकीमती मोती उभर कर सामने आ जाते हैं, जिन्हें अपने पास रखा ही नहीं जा सकता वे होते ही हैं बांटने के लिए ! बचपन से युवावस्था तक का समय जहां गुजरा हो उसे भूल पाना असंभव होता है ! इसीलिए जब-जब रिलायंस ग्रुप की पिक्स सामने आती हैं तब-तब दिमाग के स्क्रीन पर पुरानी यादें आ-आ कर पुराने दिनों को साकार कर देती हैं। आज के बच्चे और उनके कुछ पहले के युवा तो शायद हमारे उन सुनहरे दिनों की कल्पना भी नहीं कर सकते, जब रिलायंस के बच्चे ही नहीं पूरा स्टाफ एक परिवार की तरह हुआ करता था ! हरेक का सुख-दुःख, ख़ुशी-गमी, सफलता-असफलता, रीती-रिवाज सबके हुआ करते थे ! हम बच्चे सबके सांझा थे, मजाल है कि खाने-नाश्ते के समय आप किसी और के घर पर हों और बिना खाए रह जाओ ! अच्छा लगा होगा यह पढ़ कर ! पर इसके साथ ही यह भी था कि शरारत-बदमाशी-मस्ती करते पकडे जाने पर शिकायत के लिए पापा या मम्मी का इंतजार नहीं किया जाता था, जो भी काका-काकी सामने होते थे वही, वहीं ''लपेट-लपुट'' कर मामला निपटा देते थे ! आज उन्हीं दिनों एक किस्सा झाड़-पोछ कर सबके सामने रखने की कोशिश करता हूँ !  

बीच वाली बिल्डिंग 
अंग्रजों द्वारा बंगाल के चौबीस परगना के भाटपारा में स्थापित #रिलायंस_जूट_मील पर 1963-64 में कानोरिया परिवार का मालिकाना हक़ हुआ। उस समय तीन ही बिल्डिंग्स हुआ करती थीं। जेटी के पास वाली, बीच वाली और उधर गेट के पास तीसरी। उस समय डागा जी, चीफ एग्जेक्युटिव थे। शांत स्वभाव के बुजुर्ग, रोब-दाब भरी गंभीर शक्शियत, समय और काम के पाबंद, उसूलों के पक्के ! सुलझे हुए एडमिनिस्ट्रेटर। इस सबके बावजूद उन्हें कभी गुस्से में जोर से बोलते किसी ने नहीं सुना। हम सब के दादाजी के समान। 
पैदल पथ 
आज की जेनेरेशन को सुन कर अजीब लगेगा कि उन दिनों फ्रिज, गीजर, एसी वगैरह तो हुआ नहीं करते थे ! यहां तक कि रसोई गैस भी नहीं थी। तब हर घर में कोयले की सिगड़ी पर ही खाना बनता था। कोयला ठीक से सुलगने के पहले बहुत धुआं देता है सो घरों में काम करने वाले सहायक/सहायिकाएं चूल्हे को सुलगा कर घरों के बाहर रख देते थे, फिर धुआं ख़त्म होने के पश्चात उसे रसोई में ले जाया जाता था। तब हर घर के लिए रोज 15 कीलो कोयला, 5 कीलो बर्फ फ्रिज की जगह, जिसे ''मील-मेड आइस बॉक्स'' में रखा जाता था और गर्म पानी के लिए घरों के पिछवाड़े की ओर बड़े-बड़े सिलिंडर हुआ करते थे, जिनमें कोयले से पानी गर्म कर घरों में भेजा जाता था। एक चौपहिया वाहन ''एम्बैसडर'' हुआ करता था जो वक्त-जरुरत सबके लिए उपलब्ध था। मील के अंदर हर छोटा-बड़ा पैदल ही चलता था। 

इन सीढ़ियों के पास ही अंगीठी सुलग रही थी, यहीं से धुआं अंदर जा ऊपर तक धुआं-धुआं किए दे रहा था 
मैं जो बताने जा रहा हूँ वह बात शायद 64-65 की है। तीनों बिल्डिंग्स में बाहर-बाहर रंग-पुताई हुई थी। उन दिनों भी सिर्फ बाहर के रंग-रोगन में 15 से 20 हजार का खर्च आ जाता था जो एक बड़ी रकम हुआ करती थी। रंग वगैरह हुए हफ्ता-दस दिन ही हुए थे। एक शाम डागा जी शाम के समय मेन आफिस से घर आ रहे थे। जब वे बीच वाली बिल्डिंग के पास पहुंचे तो देखा वहां एक सिगड़ी सुलग-सुलग कर धुऐं का गुबार उगल रही है। उस दिन हवा भी जेटी की तरफ से इधर की ओर चल रही थी; सो धूआँ मजे से सीढ़ियों से होता हुआ ऊपर दूसरी मंजिल तक जा रहा था। अपने इस सफर में वह पहली और दूसरी मंजिल की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से बाहर भी किसी मनचले की तरह ताका-झाँकी करने से बाज नहीं आ रहा था ! डागा जी यह देखते ही खड़े हो गए ! ना कोई पूछ-ताछ की, ना हीं गुस्से से चिल्लाए ! उधर लॉन में एक माली काम कर रहा था; उसे बुलाया और चूल्हा उठवा कर गंगा में फिंकवा दिया !! उसी दम वापस लौटे, आफिस गए, एक साथ पच्चीस गैस कनेक्शन का आर्डर पास किया, इस हिदायत के साथ कि दो घंटे के अंदर हर घर में गैस पहुंच जानी चाहिए ! मील के बाहर ही पेट्रोल पंप था (अभी भी होगा) उन्हीं के पास गैस की भी एजेंसी थी ! उस रात रिलायंस में सबके घर धुंआ रहित वातावरण में खाना बना। 
जिधर से चूल्हा गंगा धाम सिधारा 
ऐसे हुआ करते थे एडमिनिस्ट्रेटर ! जो संस्था को अपना समझ चलाते थे। पर अपने स्टाफ का दुःख-दर्द भी समझते थे। वे जानते थे कि कोयले का उपयोग ही होता है भोजन बनाने में उसके सिवा और कोई चारा नहीं है। पर दूसरी तरफ संस्था का नुक्सान भी अनदेखा नहीं किया जा सकता था ! त्वरित निर्णय ने दोनों समस्याएं हल कर दीं। तभी तो छोटा-बड़ा हर स्टाफ, कर्मचारी, सदस्य उन्हें अपना मान उनकी इज्जत करता था तथा अपना बेहतर देने को तत्पर रहता था। 

@यह संस्मरण पसंद आए तो कुछ और रोचक प्रसंग याद करने की कोशिश को प्रोत्साहन मिलेगा। यदि इससे किसी को कुछ और याद आ जाए तो साझा जरूर करे !      

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-01-2019) को "घूम रहा है चक्र" (चर्चा अंक-3211) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Jyoti khare ने कहा…

सार्थक

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

खरे जी, कुछ अलग सा पर सदा स्वागत है

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