शनिवार, 5 जनवरी 2019

हम वाकई में असहिष्णु हैं !

यह सब लिखने-बोलने की तनिक भी इच्छा नहीं करती, क्योंकि ऐसा करना बर्रे के छत्ते पर पत्थर फेंकने के समान है !पर जब कुछ लोग रोज-रोज सोशल मिडिया पर आ बकवास कर दूसरों पर सही-गलत इल्जाम मढ़ने से बाज नहीं आते तो ना चाहते हुए भी रोष प्रकट हो जाता है ! कई दिनों से घुमड़ता आक्रोश आज ना चाहते हुए भी सहिष्णुता का बाना त्याग असहिष्णुता का आकार पा ही गया ! पर यह भी सच है कि जिस दिन देश के अवाम के सामने सारी असलियत आ जाएगी, उस दिन ऐसे लोगों की तक़रीबन बंद हो चुकी दुकानें, ढहा भी दी जाएंगी। क्योंकि अति तो किसी भी चीज की खतरनाक होती है और सच का सूर्य कितने भी घने बादलों से ढका हो अपने तेज व प्रकाश से सामने आ ही जाता है और तब सहिष्णु और असहिष्णुता का फर्क भी किसी को समझाना नहीं पडेगा ............!

#हिन्दी_ब्लागिंग
हमारे देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो ना हीं देश को अपना मानते हैं और नाहीं भगवान को ! ऐसे लोगों को भी हमने सर माथे पर बैठा रखा है, क्योंकि हम असहिष्णु जो हैं ! यहां रह कर, यहां का खा-पी कर विदेशों का गुण-गान करने वालों को भी हम अपने देश के सम्मानों से सम्मानित करते नहीं अघाते, क्योंकि हम असहिष्णु हैं ! अपने देवी-देवताओं की, अपनी आस्थाओं की ऐसी की तैसी करने वालों को भी हमने माननीय बना रखा है, क्योंकि हम असहिष्णु हैं ! अपने नेताओं को, अपने शहीदों को, अपने सुरक्षा बलों को गालियां देने वालों, उनको नीचा दिखाने वालों, उनका अपमान करने वालों की बातों को भी हम टाल जाते हैं क्योंकि हम असहिष्णु जो ठहरे। ऊपर से विडंबना यह है कि ऐसे लोग भक्क से मुंह खोल खुद तो रोज विष-वमन करते हैं, पर अपना जरा सा विरोध होते ही अपने जामे से बाहर हो जाते हैं, सामने वाले को तरह-तरह के अलंकारों से विभूषित करते हुए ! इन्हें हमारे रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान, आस्था-धर्म, परंपरा-विश्वास यानी हर चीज से शिकायत है ! पर असहिष्णु कौन ?... हम !

इन जैसे सहिष्णु जानते हैं कि इस देश में कैसा भी अपराध करने, अराजकता फ़ैलाने, दुष्कर्म करने, वैमनस्य फैलाने यानी किसी भी प्रकार का गलत काम करने पर यदि उसका हजार लोग विरोध करेंगे तो दस लोग पक्ष में भी खड़े हो जाएंगे, इन्हीं दस लोगों का साथ, इनका हौसला और हिमाकत सदा बनाए रखता है। यह बात समाज के हर क्षेत्र में होने वाले दुष्कर्मों पर लागू होती है। ताजा उदहारण है, सिर्फ हठधर्मिता के कारण ऐसी दो महिलाओं ने सबरीमाला के मंदिर में प्रवेश किया जिन्हें शायद ही यह पता भी हो कि अय्यप्पा कौन थे ? पर सिर्फ करोड़ों लोगों को नीचा दिखाने की गरज से आठ सौ साल से चली आ रही परंपरा को तोड़ने की हिमाकत कर डाली गयी। भगवान के लिए उसके सारे बच्चे बिना भेदभाव के बराबर होते हैं ; हरेक को पूरा हक़ है उसके पास जाने का, उसे अपने सुख-दुःख का भागीदार बनाने का, उससे अपने कष्टों से निजात दिलाने की प्रार्थना करने का, क्योंकि मनुष्य का अंतिम सहारा तो वही होता है ! यदि कहीं कोई मतभेद है तो उसे सुलझाया भी जा सकता है ! पर इस तरह की हेकड़ी और अक्खड़ता तो कतई स्वीकार करने योग्य नहीं है। यह जो हुआ वह आस्था की बात ही नहीं है उसका ध्येय समाज में आपस में दरार डालने का था, अराजकता फैलाने का था और वह सफल हुआ ! क्योंकि उन महिला रूपी मोहरों का किसी भी तथाकथित आजादी वाले अभियान से या किसी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से या किसी आस्था से कोई लेना-देना नहीं था ! उनका संबंध उस पंथ से है, जो देवी-देवता-भगवान् आदि पर विश्वास ही नहीं करता। जब किसी पर तुम्हारा विश्वास ही नहीं है, आस्था ही नहीं है तो तुम मंदिर में कौन सी पूजा कर लोगों के सामने कोई आदर्श रखने जा रहे हो ? पर हम तो यह पूछ ही नहीं सकते क्योंकि हम तो असहिष्णु हैं !

ये वही लोग हैं जो सदा ग़रीबों की गरीबी का रोना रो-रो कर अपने वर्तमान-भविष्य को हंसाते रहे हैं। एक तिहाई शताब्दी तक एक प्रदेश पर राज करने के बावजूद उस प्रदेश का आज भी यह हाल है कि वहां भिखारियों की तादाद देश में सबसे ज्यादा है ! गरीब-गुरबों को बराबरी का सपना दिखाने वाले इनके नेताओं के अपने परिवार में जब कोई ''उत्सव'' होता है तो उसमें करोड़ों की राशि पानी की तरह बहा दी जाती है ! और असहिष्णु हम हो जाते हैं। इनसे कभी बात कर के देखिए, लगेगा किसी पड़ोसी दुश्मन देश के प्रवक्ता से बात हो रही है। पर असहिष्णुता हम पर थोप दी जाती है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि 1962 के युद्ध में हमारी बुरी तरह हार हुई थी ! हजारों जवान मारे और घायल हुए थे ! उसी समय कलकत्ता में घायल जवानों के उपचार के दौरान खून की जरुरत को लेकर रक्त-दान की अपील की गयी, एक पार्टी सदस्य ने अपना खून देने की इच्छा जाहिर की तो उसे पार्टी विरोधी हरकतों के इल्जाम के साथ बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, पर असहिष्णु हम कहलाते हैं !

अपने कालेज के दौरान यह विचार बहुत अच्छा लगता था कि देश में हर इंसान को बराबरी का हक़ होना चाहिए। सबकी जिंदगी में खुशहाली होनी चाहिए। सब को अपने काम का उचित पारश्रमिक मिलना चाहिए। शोषण ख़त्म होना चाहिए इत्यादि इत्यादि ! पर नौकरी के दौरान जब हकीकत सामने आई तो दृश्य कुछ और ही था ! अधिकाँश नेताओं का किसी से कोई लेना-देना नहीं था ! हड़ताल, विरोध, हंगामें के बाद इन नेताओं के घर और बड़े और पक्के होते जाते थे, पैरों के बीच गाड़ियां आ जाती थीं, चेहरे की लुनाई और बढ़ जाती थी ! और जिसके बल पर यह होता था वह अपनी हफ्ते की तीन-चार रूपए की बढ़ोत्तरी पर ही संतुष्ट हो, अपने इन्हीं आकाओं के झंडे कंधों पर उठाए, उनका स्तुति गान करते हुए, अपनी कभी ख़त्म ना होने वाली सदाबहार गरीबी को ढोता रहता था, ढोता रहता था ! उसकी वह नियति आज भी वैसी ही है। धीरे-धीरे सड़क छाप लोग नेता बन अवाम को डरा-धमका कर पंथ के नाम पर उनकी मेहनत की कमाई की छिनताई करने लगे। धंधा अच्छा था बिना मेहनत-मजदूरी किए सब कुछ हासिल हो जाता था। त्यौहार के दिनों में तो खाते-पीते लोग घर से बाहर निकलने से घबराने लगे थे। यह सब देख बहुतेरों का गरीबों के इन छद्म मसीहाओं से मोह-भंग हो गया।

कौन नहीं चाहता कि गरीब, सर्वहारा भी दो समय का भोजन पा रात को एक छत के नीचे चैन की नींद सो सके ?  उसके बच्चे ढंग की शिक्षा पा सकें, हारी-बिमारी में उसे दूसरों का मोहताज ना होना पड़े !  पर इसके लिए किसी और की, दिन-रात मेहनत कर कमाई गयी कमाई को तो छीना नहीं जाना चाहिए ! बराबरी का हक़ जरूर मिले पर इसका मतलब यह तो नहीं कि आप किसी के घर में घुस कर उस पर कब्ज़ा कर लें ! एक सवाल और कि यह जितने भी अपने आप को गरीबों का मसीहा साबित करने में जुटे हुए शातिर हैं उनका खुद का क्या योगदान है ग़रीबों की सहायता करने में ? दूसरों का धन तो कोई भी किसी को दे सकता है ! पर इन्होंने खुद अपनी जेब से क्या दिया, कभी किसी को, सिर्फ भाषणों, आश्वासनों के अलावा ! कितने दरियादिल लोग हैं इनमें, जो किसी एक भी गरीब परिवार का जिम्मा लिए हुए है ? कड़वी सच्चाई यह है कि किसी को अवाम से नहीं सिर्फ उसके मत से मतलब है, जिससे येन-केन-प्रकारेण: साम-दाम-दंड-भेद, निति-अनीति कुछ भी अपनाते हुए सत्ता हासिल करने या उसके नजदीक मंडराते रह कर, लोगों को बेवकूफ बना अपनी दूकान में रोटियां सेकी जा सकें ! यह किसी एक दल की बात नहीं है: देश में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हर दल में ऐसे अनेकों मौकापरस्त-अवसरवादी लोग घुसे बैठे हैं।

कई दिनों से घुमड़ता आक्रोश आज ना चाहते हुए भी सहिष्णुता का बाना त्याग असहिष्णुता का आकार पा ही गया ! पर यह भी सच है कि जिस दिन देश के अवाम के सामने असलियत आ जाएगी उस दिन ऐसे लोगों की तक़रीबन बंद हो चुकी दुकानें, ढहा भी दी जाएंगी। क्योंकि अति तो किसी भी चीज की खतरनाक होती है और सच का सूर्य कितने भी घने बादलों से ढका हो अपने तेज व प्रकाश से सामने आ ही जाता है और तब सहिष्णु और असहिष्णुता का फर्क भी किसी को समझाना नहीं पडेगा !

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-01-2019) को "कांग्रेस के इम्तिहान का साल" (चर्चा अंक-3208) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी, हार्दिक धन्यवाद

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 05/01/2019 की बुलेटिन, " टाइगर पटौदी को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शिवम जी, आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार

Onkar ने कहा…

विचारोत्तेजक लेख

विश्वमोहन ने कहा…

वैचारिक दर्शन स्वागत योग्य है। किन्तु, सबरीमाला मंदिर के संदर्भ में एक संविधान चालित देश में न्यायालय के आदेश की धज्जी उड़ाने वाले
सहिष्णु वीरों पर भी कुछ लिखते।

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