शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

संतरा और कीनू, फर्क क्या है ?

आम धारणा है कि एक जैसी चीजों में यदि किसी एक वस्तु की कीमत दूसरी से कम है तो उसकी गुणवत्ता में भी जरूर कुछ कमी होगी ¡ जैसे संतरे की तुलना में कीनू की कीमत में फर्क होने के कारण इसको कुछ कम कर के आंका जाता है ¡ जब की यह हर लिहाज से संतरे के पासंग है। सस्ता होने के बावजूद यह ऊर्जाप्रद, खनिज, विटामिन और लाभकारी पोषण तत्वों से भरपूर फल है । इसका रस और फल बड़ों और बच्चों सभी के लिए संतरे के समान ही सुरक्षित है। यह सबसे स्वस्थकर साइट्रस फलों में से एक माना जाता है ....... ¡

#हिन्दी_ब्लागिंग 
जैसे  गर्मियों में फलों के राजा आम की बहार रहती है वैसे ही सर्दियों में संतरा या नारंगी अपने स्वाद, सुगंध और
कीनू 
अपनी गुणवत्ता के कारण सबका चहेता बना रहता है। हालांकि यह फ़रवरी-मार्च तक आसानी से उपलब्ध रहता है पर इस बार यह हाट-बाज़ार-नुक्कड़-ढेले सब  ठीयों से अचानक ही गायब हो गया है और उसकी जगह, अफरात रूप में हर जगह उसी परिवार का एक सदस्य कीनू या किन्नू नजर आने लगा है। पर संतरे की बनिस्पत कहीं सस्ता होने के बावजूद लोग इसे लेने में थोड़ा हिचकिचाते हैं। आम धारणा है कि यह संतरे जितना लाभदायक नहीं है ! मेरी भी कुछ ऐसी ही सोच थी पर पिछले महीने पंजाब प्रवास पर सारे भ्रम दूर हो गए ! 

पंजाब में मेरे मामाजी के दोस्त हैं श्री रामपाल जी, उनके पुश्तैनी कीनू के बाग़ हैं। इस बार उनसे मिलना हुआ और बाग़ की सैर भी ! बीस-बीस फुट ऊँचे पेड़ों पर पत्तियां कम कीनू फल ही ज्यादा नजर आ रहे थे। सारा
पेड़ों पर लदे कीनू 
वातावरण जैसे नारंगी रंग में रंग गया हो। रामपाल जी ने ही बताया कि संतरे और कीनू एक ही बिरादरी के फल हैं। पर जहां संतरे का अस्तित्व बहुत पहले का है वहीं कीनू संतरे और माल्टे की संकर प्रजाति है। संतरे की तुलना में उसकी गुणवत्ता में कोई कमी या फर्क नहीं होता। उल्टा कीनू में ज्यादा मिठास और रस होता है ! और यह 
सबसे स्‍वस्‍थ साइट्रस फलों में से एक माना जाता है। रंग-रूप तक़रीबन एक जैसे होने के बावजूद दोनों में बहुत मामूली सा अंतर होता है, जिससे लोगों को इनमें फर्क करने में दिक्कत होती है। कीनू का आकार कुछ बड़ा होता है। इसका छिलका कुछ पतला, चमकदार और मुलायम होता है तथा इसमें बीजों की मात्रा संतरे से ज्यादा होती है। हाँ ''पैकिंग'' के लिहाज से संतरे का अंदुरुनी भाग कुछ सफाई और सलीकेदार होता है और आसानी से छिला जा सकता है, जबकि कीनू का थोड़ा बेतरतीब ! वह भी शायद उसके बचाव की दृष्टि हेतु। इसका उत्पादन भी संतरे की बनिस्पत बहुत ज्यादा होता है। जो किसानों के लिए भी आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद है। 

मेरे यह पूछने पर कि इतने गुणों के बावजूद इसकी कीमतें संतरे से इतनी कम क्यों होती हैं ! इस पर रामपालजी ने इसके दो प्रमुख कारण बताए ! पहला तो यह कि कीनू का छिलका बहुत नरम होता है, अतः इसे पेड़ से तोड़ना और पैक करके एक्सपोर्ट करना कुछ मुश्किल काम है। इसके ढीले छिलके के कारण, कीनू को
संतरे 
एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के दौरान अतिरिक्त देखभाल की आवश्यकता होती है, क्योंकि यह आसानी से क्षतिग्रस्त हो जाता है। दूसरे इसमें बीजों की अधिकता से इसका जूस या स्क्वैश बनाना थोड़ा कठिन होता है क्योंकि ऐसा करते समय यदि इसका एक भी बीज भी पिस जाए तो सारे रस का स्वाद बिगड़ जाता है ! व्यावसायिक उपयोग
 तथा एक्सपोर्ट नहीं होने के कारणों से ही इसकी कीमत संतरे से कम भी उतना हो जाती है वरना यह भी उतना ही लाभदायक फल है। इसमें कैलौरी कम होती है पर पोषक तत्वों की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। 


इसलिए यदि संतरे और कीनू को लेकर कोई संदेह मन में हो तो उसे नि:संकोच त्याग, कम कीमत में इस 


ऊर्जावान, लाभप्रद, खनिज, विटामिन और पोषक तत्वों से भरपूर फल का रोज सेवन करें। किन्नू का रस और फल बड़ों और बच्चों सभी के लिए सुरक्षित है। पर अति तो हर चीज की नुकसानदायक होती है सो इसका भी हर खाद्य पदार्थ की तरह उचित मात्रा में ही उपयोग किया जाना चाहिए। बाकि तो सब ठिक्के है.........!

मंगलवार, 8 जनवरी 2019

रिलायंस जूट मील, स्वर्गादपि गरीयसी

आज के बच्चे और उनके कुछ पहले के युवा तो शायद हमारे उन सुनहरे दिनों की कल्पना भी नहीं कर सकते, जब रिलायंस के बच्चे ही नहीं पूरा स्टाफ एक परिवार की तरह हुआ करता था ! हरेक का सुख-दुःख, ख़ुशी-गमी, सफलता-असफलता, रीती-रिवाज सबके हुआ करते थे ! हम बच्चे सबके सांझा थे, मजाल है कि खाने-नाश्ते के समय आप किसी और के घर पर हों और बिना खाए रह जाओ ! अच्छा लगा होगा यह पढ़ कर ! पर इसके साथ ही यह भी था कि शरारत-बदमाशी-मस्ती करते पकडे जाने पर शिकायत के लिए पापा या मम्मी का इंतजार नहीं किया जाता था, जो भी काका-काकी सामने होते थे वही, वहीं ''लपेट-लपुट'' कर मामला निपटा देते थे  :-)

#हिन्दी-ब्लागिंग   
कभी-कभी यादों के लगातार थपेड़ों से जब यादाश्त पर जमी काई की कुछ परत छटती है तो कभी-कभी ऐसे नायाब और बेशकीमती मोती उभर कर सामने आ जाते हैं, जिन्हें अपने पास रखा ही नहीं जा सकता वे होते ही हैं बांटने के लिए ! बचपन से युवावस्था तक का समय जहां गुजरा हो उसे भूल पाना असंभव होता है ! इसीलिए जब-जब रिलायंस ग्रुप की पिक्स सामने आती हैं तब-तब दिमाग के स्क्रीन पर पुरानी यादें आ-आ कर पुराने दिनों को साकार कर देती हैं। आज के बच्चे और उनके कुछ पहले के युवा तो शायद हमारे उन सुनहरे दिनों की कल्पना भी नहीं कर सकते, जब रिलायंस के बच्चे ही नहीं पूरा स्टाफ एक परिवार की तरह हुआ करता था ! हरेक का सुख-दुःख, ख़ुशी-गमी, सफलता-असफलता, रीती-रिवाज सबके हुआ करते थे ! हम बच्चे सबके सांझा थे, मजाल है कि खाने-नाश्ते के समय आप किसी और के घर पर हों और बिना खाए रह जाओ ! अच्छा लगा होगा यह पढ़ कर ! पर इसके साथ ही यह भी था कि शरारत-बदमाशी-मस्ती करते पकडे जाने पर शिकायत के लिए पापा या मम्मी का इंतजार नहीं किया जाता था, जो भी काका-काकी सामने होते थे वही, वहीं ''लपेट-लपुट'' कर मामला निपटा देते थे ! आज उन्हीं दिनों एक किस्सा झाड़-पोछ कर सबके सामने रखने की कोशिश करता हूँ !  

बीच वाली बिल्डिंग 
अंग्रजों द्वारा बंगाल के चौबीस परगना के भाटपारा में स्थापित #रिलायंस_जूट_मील पर 1963-64 में कानोरिया परिवार का मालिकाना हक़ हुआ। उस समय तीन ही बिल्डिंग्स हुआ करती थीं। जेटी के पास वाली, बीच वाली और उधर गेट के पास तीसरी। उस समय डागा जी, चीफ एग्जेक्युटिव थे। शांत स्वभाव के बुजुर्ग, रोब-दाब भरी गंभीर शक्शियत, समय और काम के पाबंद, उसूलों के पक्के ! सुलझे हुए एडमिनिस्ट्रेटर। इस सबके बावजूद उन्हें कभी गुस्से में जोर से बोलते किसी ने नहीं सुना। हम सब के दादाजी के समान। 
पैदल पथ 
आज की जेनेरेशन को सुन कर अजीब लगेगा कि उन दिनों फ्रिज, गीजर, एसी वगैरह तो हुआ नहीं करते थे ! यहां तक कि रसोई गैस भी नहीं थी। तब हर घर में कोयले की सिगड़ी पर ही खाना बनता था। कोयला ठीक से सुलगने के पहले बहुत धुआं देता है सो घरों में काम करने वाले सहायक/सहायिकाएं चूल्हे को सुलगा कर घरों के बाहर रख देते थे, फिर धुआं ख़त्म होने के पश्चात उसे रसोई में ले जाया जाता था। तब हर घर के लिए रोज 15 कीलो कोयला, 5 कीलो बर्फ फ्रिज की जगह, जिसे ''मील-मेड आइस बॉक्स'' में रखा जाता था और गर्म पानी के लिए घरों के पिछवाड़े की ओर बड़े-बड़े सिलिंडर हुआ करते थे, जिनमें कोयले से पानी गर्म कर घरों में भेजा जाता था। एक चौपहिया वाहन ''एम्बैसडर'' हुआ करता था जो वक्त-जरुरत सबके लिए उपलब्ध था। मील के अंदर हर छोटा-बड़ा पैदल ही चलता था। 

इन सीढ़ियों के पास ही अंगीठी सुलग रही थी, यहीं से धुआं अंदर जा ऊपर तक धुआं-धुआं किए दे रहा था 
मैं जो बताने जा रहा हूँ वह बात शायद 64-65 की है। तीनों बिल्डिंग्स में बाहर-बाहर रंग-पुताई हुई थी। उन दिनों भी सिर्फ बाहर के रंग-रोगन में 15 से 20 हजार का खर्च आ जाता था जो एक बड़ी रकम हुआ करती थी। रंग वगैरह हुए हफ्ता-दस दिन ही हुए थे। एक शाम डागा जी शाम के समय मेन आफिस से घर आ रहे थे। जब वे बीच वाली बिल्डिंग के पास पहुंचे तो देखा वहां एक सिगड़ी सुलग-सुलग कर धुऐं का गुबार उगल रही है। उस दिन हवा भी जेटी की तरफ से इधर की ओर चल रही थी; सो धूआँ मजे से सीढ़ियों से होता हुआ ऊपर दूसरी मंजिल तक जा रहा था। अपने इस सफर में वह पहली और दूसरी मंजिल की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से बाहर भी किसी मनचले की तरह ताका-झाँकी करने से बाज नहीं आ रहा था ! डागा जी यह देखते ही खड़े हो गए ! ना कोई पूछ-ताछ की, ना हीं गुस्से से चिल्लाए ! उधर लॉन में एक माली काम कर रहा था; उसे बुलाया और चूल्हा उठवा कर गंगा में फिंकवा दिया !! उसी दम वापस लौटे, आफिस गए, एक साथ पच्चीस गैस कनेक्शन का आर्डर पास किया, इस हिदायत के साथ कि दो घंटे के अंदर हर घर में गैस पहुंच जानी चाहिए ! मील के बाहर ही पेट्रोल पंप था (अभी भी होगा) उन्हीं के पास गैस की भी एजेंसी थी ! उस रात रिलायंस में सबके घर धुंआ रहित वातावरण में खाना बना। 
जिधर से चूल्हा गंगा धाम सिधारा 
ऐसे हुआ करते थे एडमिनिस्ट्रेटर ! जो संस्था को अपना समझ चलाते थे। पर अपने स्टाफ का दुःख-दर्द भी समझते थे। वे जानते थे कि कोयले का उपयोग ही होता है भोजन बनाने में उसके सिवा और कोई चारा नहीं है। पर दूसरी तरफ संस्था का नुक्सान भी अनदेखा नहीं किया जा सकता था ! त्वरित निर्णय ने दोनों समस्याएं हल कर दीं। तभी तो छोटा-बड़ा हर स्टाफ, कर्मचारी, सदस्य उन्हें अपना मान उनकी इज्जत करता था तथा अपना बेहतर देने को तत्पर रहता था। 

@यह संस्मरण पसंद आए तो कुछ और रोचक प्रसंग याद करने की कोशिश को प्रोत्साहन मिलेगा। यदि इससे किसी को कुछ और याद आ जाए तो साझा जरूर करे !      

शनिवार, 5 जनवरी 2019

हम वाकई में असहिष्णु हैं !

यह सब लिखने-बोलने की तनिक भी इच्छा नहीं करती, क्योंकि ऐसा करना बर्रे के छत्ते पर पत्थर फेंकने के समान है !पर जब कुछ लोग रोज-रोज सोशल मिडिया पर आ बकवास कर दूसरों पर सही-गलत इल्जाम मढ़ने से बाज नहीं आते तो ना चाहते हुए भी रोष प्रकट हो जाता है ! कई दिनों से घुमड़ता आक्रोश आज ना चाहते हुए भी सहिष्णुता का बाना त्याग असहिष्णुता का आकार पा ही गया ! पर यह भी सच है कि जिस दिन देश के अवाम के सामने सारी असलियत आ जाएगी, उस दिन ऐसे लोगों की तक़रीबन बंद हो चुकी दुकानें, ढहा भी दी जाएंगी। क्योंकि अति तो किसी भी चीज की खतरनाक होती है और सच का सूर्य कितने भी घने बादलों से ढका हो अपने तेज व प्रकाश से सामने आ ही जाता है और तब सहिष्णु और असहिष्णुता का फर्क भी किसी को समझाना नहीं पडेगा ............!

#हिन्दी_ब्लागिंग
हमारे देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो ना हीं देश को अपना मानते हैं और नाहीं भगवान को ! ऐसे लोगों को भी हमने सर माथे पर बैठा रखा है, क्योंकि हम असहिष्णु जो हैं ! यहां रह कर, यहां का खा-पी कर विदेशों का गुण-गान करने वालों को भी हम अपने देश के सम्मानों से सम्मानित करते नहीं अघाते, क्योंकि हम असहिष्णु हैं ! अपने देवी-देवताओं की, अपनी आस्थाओं की ऐसी की तैसी करने वालों को भी हमने माननीय बना रखा है, क्योंकि हम असहिष्णु हैं ! अपने नेताओं को, अपने शहीदों को, अपने सुरक्षा बलों को गालियां देने वालों, उनको नीचा दिखाने वालों, उनका अपमान करने वालों की बातों को भी हम टाल जाते हैं क्योंकि हम असहिष्णु जो ठहरे। ऊपर से विडंबना यह है कि ऐसे लोग भक्क से मुंह खोल खुद तो रोज विष-वमन करते हैं, पर अपना जरा सा विरोध होते ही अपने जामे से बाहर हो जाते हैं, सामने वाले को तरह-तरह के अलंकारों से विभूषित करते हुए ! इन्हें हमारे रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान, आस्था-धर्म, परंपरा-विश्वास यानी हर चीज से शिकायत है ! पर असहिष्णु कौन ?... हम !

इन जैसे सहिष्णु जानते हैं कि इस देश में कैसा भी अपराध करने, अराजकता फ़ैलाने, दुष्कर्म करने, वैमनस्य फैलाने यानी किसी भी प्रकार का गलत काम करने पर यदि उसका हजार लोग विरोध करेंगे तो दस लोग पक्ष में भी खड़े हो जाएंगे, इन्हीं दस लोगों का साथ, इनका हौसला और हिमाकत सदा बनाए रखता है। यह बात समाज के हर क्षेत्र में होने वाले दुष्कर्मों पर लागू होती है। ताजा उदहारण है, सिर्फ हठधर्मिता के कारण ऐसी दो महिलाओं ने सबरीमाला के मंदिर में प्रवेश किया जिन्हें शायद ही यह पता भी हो कि अय्यप्पा कौन थे ? पर सिर्फ करोड़ों लोगों को नीचा दिखाने की गरज से आठ सौ साल से चली आ रही परंपरा को तोड़ने की हिमाकत कर डाली गयी। भगवान के लिए उसके सारे बच्चे बिना भेदभाव के बराबर होते हैं ; हरेक को पूरा हक़ है उसके पास जाने का, उसे अपने सुख-दुःख का भागीदार बनाने का, उससे अपने कष्टों से निजात दिलाने की प्रार्थना करने का, क्योंकि मनुष्य का अंतिम सहारा तो वही होता है ! यदि कहीं कोई मतभेद है तो उसे सुलझाया भी जा सकता है ! पर इस तरह की हेकड़ी और अक्खड़ता तो कतई स्वीकार करने योग्य नहीं है। यह जो हुआ वह आस्था की बात ही नहीं है उसका ध्येय समाज में आपस में दरार डालने का था, अराजकता फैलाने का था और वह सफल हुआ ! क्योंकि उन महिला रूपी मोहरों का किसी भी तथाकथित आजादी वाले अभियान से या किसी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से या किसी आस्था से कोई लेना-देना नहीं था ! उनका संबंध उस पंथ से है, जो देवी-देवता-भगवान् आदि पर विश्वास ही नहीं करता। जब किसी पर तुम्हारा विश्वास ही नहीं है, आस्था ही नहीं है तो तुम मंदिर में कौन सी पूजा कर लोगों के सामने कोई आदर्श रखने जा रहे हो ? पर हम तो यह पूछ ही नहीं सकते क्योंकि हम तो असहिष्णु हैं !

ये वही लोग हैं जो सदा ग़रीबों की गरीबी का रोना रो-रो कर अपने वर्तमान-भविष्य को हंसाते रहे हैं। एक तिहाई शताब्दी तक एक प्रदेश पर राज करने के बावजूद उस प्रदेश का आज भी यह हाल है कि वहां भिखारियों की तादाद देश में सबसे ज्यादा है ! गरीब-गुरबों को बराबरी का सपना दिखाने वाले इनके नेताओं के अपने परिवार में जब कोई ''उत्सव'' होता है तो उसमें करोड़ों की राशि पानी की तरह बहा दी जाती है ! और असहिष्णु हम हो जाते हैं। इनसे कभी बात कर के देखिए, लगेगा किसी पड़ोसी दुश्मन देश के प्रवक्ता से बात हो रही है। पर असहिष्णुता हम पर थोप दी जाती है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि 1962 के युद्ध में हमारी बुरी तरह हार हुई थी ! हजारों जवान मारे और घायल हुए थे ! उसी समय कलकत्ता में घायल जवानों के उपचार के दौरान खून की जरुरत को लेकर रक्त-दान की अपील की गयी, एक पार्टी सदस्य ने अपना खून देने की इच्छा जाहिर की तो उसे पार्टी विरोधी हरकतों के इल्जाम के साथ बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, पर असहिष्णु हम कहलाते हैं !

अपने कालेज के दौरान यह विचार बहुत अच्छा लगता था कि देश में हर इंसान को बराबरी का हक़ होना चाहिए। सबकी जिंदगी में खुशहाली होनी चाहिए। सब को अपने काम का उचित पारश्रमिक मिलना चाहिए। शोषण ख़त्म होना चाहिए इत्यादि इत्यादि ! पर नौकरी के दौरान जब हकीकत सामने आई तो दृश्य कुछ और ही था ! अधिकाँश नेताओं का किसी से कोई लेना-देना नहीं था ! हड़ताल, विरोध, हंगामें के बाद इन नेताओं के घर और बड़े और पक्के होते जाते थे, पैरों के बीच गाड़ियां आ जाती थीं, चेहरे की लुनाई और बढ़ जाती थी ! और जिसके बल पर यह होता था वह अपनी हफ्ते की तीन-चार रूपए की बढ़ोत्तरी पर ही संतुष्ट हो, अपने इन्हीं आकाओं के झंडे कंधों पर उठाए, उनका स्तुति गान करते हुए, अपनी कभी ख़त्म ना होने वाली सदाबहार गरीबी को ढोता रहता था, ढोता रहता था ! उसकी वह नियति आज भी वैसी ही है। धीरे-धीरे सड़क छाप लोग नेता बन अवाम को डरा-धमका कर पंथ के नाम पर उनकी मेहनत की कमाई की छिनताई करने लगे। धंधा अच्छा था बिना मेहनत-मजदूरी किए सब कुछ हासिल हो जाता था। त्यौहार के दिनों में तो खाते-पीते लोग घर से बाहर निकलने से घबराने लगे थे। यह सब देख बहुतेरों का गरीबों के इन छद्म मसीहाओं से मोह-भंग हो गया।

कौन नहीं चाहता कि गरीब, सर्वहारा भी दो समय का भोजन पा रात को एक छत के नीचे चैन की नींद सो सके ?  उसके बच्चे ढंग की शिक्षा पा सकें, हारी-बिमारी में उसे दूसरों का मोहताज ना होना पड़े !  पर इसके लिए किसी और की, दिन-रात मेहनत कर कमाई गयी कमाई को तो छीना नहीं जाना चाहिए ! बराबरी का हक़ जरूर मिले पर इसका मतलब यह तो नहीं कि आप किसी के घर में घुस कर उस पर कब्ज़ा कर लें ! एक सवाल और कि यह जितने भी अपने आप को गरीबों का मसीहा साबित करने में जुटे हुए शातिर हैं उनका खुद का क्या योगदान है ग़रीबों की सहायता करने में ? दूसरों का धन तो कोई भी किसी को दे सकता है ! पर इन्होंने खुद अपनी जेब से क्या दिया, कभी किसी को, सिर्फ भाषणों, आश्वासनों के अलावा ! कितने दरियादिल लोग हैं इनमें, जो किसी एक भी गरीब परिवार का जिम्मा लिए हुए है ? कड़वी सच्चाई यह है कि किसी को अवाम से नहीं सिर्फ उसके मत से मतलब है, जिससे येन-केन-प्रकारेण: साम-दाम-दंड-भेद, निति-अनीति कुछ भी अपनाते हुए सत्ता हासिल करने या उसके नजदीक मंडराते रह कर, लोगों को बेवकूफ बना अपनी दूकान में रोटियां सेकी जा सकें ! यह किसी एक दल की बात नहीं है: देश में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हर दल में ऐसे अनेकों मौकापरस्त-अवसरवादी लोग घुसे बैठे हैं।

कई दिनों से घुमड़ता आक्रोश आज ना चाहते हुए भी सहिष्णुता का बाना त्याग असहिष्णुता का आकार पा ही गया ! पर यह भी सच है कि जिस दिन देश के अवाम के सामने असलियत आ जाएगी उस दिन ऐसे लोगों की तक़रीबन बंद हो चुकी दुकानें, ढहा भी दी जाएंगी। क्योंकि अति तो किसी भी चीज की खतरनाक होती है और सच का सूर्य कितने भी घने बादलों से ढका हो अपने तेज व प्रकाश से सामने आ ही जाता है और तब सहिष्णु और असहिष्णुता का फर्क भी किसी को समझाना नहीं पडेगा !

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

गुणों की खान है, गुड़

प्रकृति और इंसान के आपसी ताल-मेल की अद्भुत उपज है, गुड़। धरा ने आदमी की मेधा की परख के लिए द्रव्य रूप में अमृत रूपी रस को डंडों में भर खेतों में उपजाया तो इंसान ने उसे ठोस रूप दे एक बहुगुणी वस्तु की शक्ल दे दी। वस्तु भी कैसी, जिसका उपयोग वर्षों तक शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार, सामान्य व शुभ अवसरों पर सदियों से अमीरों और ग़रीबों में मीठे और कुछ-कुछ ओषधि के रूप में होता रहा। भले ही विदेशी बाजार अपने मतलब के लिए इसे कितना ही अस्वास्थयकर कहे, पुरातन कहे पर सही मायने में यह अत्यंत गुणकारी, फायदेमंद, सेहतप्रद और सर्वसुलभ प्रकृति की देन है.........!


#हिन्दी_ब्लागिंग   

हमारे देश में व्यापार की अनंत संभावनाओं को देखते हुए विदेशी व्यापारियों ने यत्र-तत्र-सर्वत्रअपना जाल तो फैलाया ही है साथ ही हनारी कई उपयोगी-स्वास्थयकर और गुणकारी वस्तुओं, जैसे घी, तेल, मसाले, वनौषधियों, जड़ी-बूटियों इत्यादि के बारे में भ्रामक अफवाहें फैला उन्हें हानिकारक और निरुपयोगी सिद्ध करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है ! ऐसी ही एक अत्यंत उपयोगी वस्तु है गुड़ !


प्रकृति और इंसान के आपसी ताल-मेल की अद्भुत उपज है, गुड़। धरा ने आदमी की मेधा की परख के लिए द्रव्य रूप में अमृत रूपी रस को डंडों में भर खेतों में उपजाया तो इंसान ने उसे ठोस रूप दे एक बहुगुणी वस्तु की शक्ल दे दी। वस्तु भी कैसी, जिसका उपयोग वर्षों तक शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार, सामान्य व शुभ अवसरों पर सदियों से अमीरों और ग़रीबों में मीठे और कुछ-कुछ ओषधि के रूप में होता रहा। हालांकि समय के साथ इसको परिष्कृत कर इसके और शुद्ध रूपों की ईजाद, शक्कर तथा चीनी के रूपों में हुई, पर उनमे इसके लाभकारी गुणों का समावेश नहीं हो पाया।
सर्दियों की फसल, गन्ने से तैयार होने वाला गर्म तासीर वाला गुड़, मनुष्य को प्रकृति की अनुपम देन है। चिकित्सा-शास्त्र भी इसमें पाए जाने वाले खनिजों के कारण, मानता है कि यह इंसानों के साथ-साथ जानवरों के लिए भी उतना ही उपयोगी व गुणकारी है। इस बात का ज्ञान हमारे पूर्वजों को बहुत पहले से ही रहा है इसीलिए वे अपने पालतू पशुओं के लिए भी इसका उपयोग बेझिझक करते आ रहे हैं। पर बाजार के बहकावे में आ आधुनिक पीढ़ी और शहरवासी उचित जानकारी के अभाव में इसका उपयोग करने से कतराते हैं जबकि यह चीनी से ज्यादा सुरक्षित, फायदेमंद और गुणकारी है।
खजूर का गुड़ 
आधुनिकता भले ही इसे कितना ही अस्वास्थयकर कहे, पुरातन कहे पर सही मायने में यह अत्यंत गुणकारी, फायदेमंद, सेहतप्रद और सर्वसुलभ प्रकृति की देन है। उचित मात्रा में इसके सेवन से पाचन तंत्र सही रहता है, भोजन पचाने में सहायता करता है, भूख बढ़ाता है, पेट की व्याधियों को दूर करता है, अनीमिया से बचाता है, यादाश्त तेज करता है, रक्त-चाप ठीक रखता है, ऊर्जा का बेहतरीन स्रोत है,  खून को शुद्ध करता है, आँखों के लिए फायदेमंद है, सर्दी में शरीर का तापमान ठीक रखता है, हड्डियों को मजबूती प्रदान करता है, सर्दी-जुकाम-खांसी-एलर्जी, जोड़ों के दर्द आदि में भी फायदा पहुंचाता है। आयुर्वेद में रात के भोजनोपरांत रोज इसकी करीब एक तोला मात्रा लेने की सलाह दी जाती है। हाँ शुगर के रोगियों को थोड़ा परहेज जरुरी है।
नारियल गुड़ 

गुड़ का उत्पादन हमारे देश के अलावा श्री लंका, नेपाल, पकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, जापान, इंडोनेशिया, मेक्सिको, ब्राजील इत्यादि अनेक देशों में किया जाता है। हर जगह के वातावरण के अनुसार ही इसके स्वाद, गुण और विशेषताएं होती हैं। जो बहुत कुछ इसको बनाने वाले के हुनर और कार्यकुशलता पर भी निर्भर करती हैं।जहां श्री लंका के गुड़ को सर्वोपरि माना जाता है, वहीं हमारे देश में पंजाब का गुड़ और शक्कर बेहतरीन मानी जाती है। ईख के अलावा हमारे देश के पूर्वोत्तर और दक्षिणी राज्यों में खजूर के रस से भी गुड़ बनाया जाता है, जो हल्की या कुछ कम मिठास पसंद करने वालों के लिए बेहतरीन विकल्प है। इधर नारियल के रस से भी गुड़ बनाया जाने लगा है पर उसके गुण-शक्लो-सूरत चीनी के ज्यादा करीबी होते हैं। 


गुड़ चक्की 
वैसे तो इसका सेवन साल भर किया जा सकता है पर अभी इस सर्दी के मौसम में तो गुड़ के सेवन का बेहतरीन अवसर है। भले ही इसका सीधा उपयोग करें या फिर इससे बने ढेरों सुस्वादु खाद्य पदार्थों का सेवन करें ! पर जरा-ज़रा सा रोज जरूर खाएं और साल भर सेहतमंद रहने का फायदा उठाएं। 

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...