बुधवार, 22 अगस्त 2018

दिल्ली का अंधा मुग़ल

रोशनआरा बेहद खूबसूरत थी। कई मुग़ल-गैर मुग़ल शहजादे, राजकुमार, राजे, नवाब मन ही मन उसका ख्वाब देखा करते थे। ऐसा ही एक युवक, जो था तो बाबर का वंशज पर वह और उसका परिवार वर्षों से सत्ता से दूर गुमनामी का जीवन जी रहे थे, रोज वहाँ आ शहजादी को देखा करता था...!

#हिन्दी_ब्लागिंग    
पुरानी दिल्ली में ढेरों ऐसे मोहल्ले, बाड़े, कूचे, गलिया हैं, जिनके नाम लोगों की जुबान पर चढ़े होने की वजह से अजीब नहीं लगते पर यदि ध्यान से उन पर गौर किया जाए तो उनकी ''अजीबो-गरीबियत'' पर आश्चर्य होता है, ऐसी ही एक जगह है, पुरानी दिल्ली के दिल चांदनी चौक के पास बसंत नगर और प्रताप नगर का इलाका, जिसे अंधा मुग़ल के नाम से भी जाना जाता है। कौन था वह मुग़ल जिसके नाम से इस इलाके का ऐसा विचित्र नामकरण हो गया ? इस कथानक का विस्तृत विवरण तो नहीं मिलता ! पर बिखरी कड़ियों को जोड़ा जाए तो एक-दो हल्की सी तस्वीरें उभर कर सामने आती हैं। इसके बारे में दो जन-श्रुतियाँ प्रचलित हैं। 
रोशनआरा बाग़ 
पहली, जब औरंगजेब ने अपने भाई दारा शिकोह की ह्त्या करने के पहले उसकी आँखें निकाल उसे दरिद्रता भरे जीवन में धकेल दिया था तो वह यहां आ कर रहने लगा था, इसीलिए इस जगह का नाम अंधा मुग़ल पड़ गया ! बाद में अवाम की उसके प्रति बढती सद्भावना और सहानुभूति के कारण उसका सर काट कर यहां घुमाया गया था।   
रोशनआरा 

रोशनआरा की कब्र 
दूसरी, जब शाहजहां अपने सपनों का शहर शाहजहांनाबाद बनवा-बसवा रहा था तभी उसने अपनी लाड़ली बेटी रोशनआरा के नाम पर एक नायब और बेहतरीन बगीचे, रोशनआरा बाग़, का भी निर्माण करवाया था। जो आज भी उत्तरी दिल्ली के कमला नगर इलाके में अपनी भव्यता के साथ स्थित है। रोशनआरा बाग़ इतना सुंदर बन पड़ा था कि शहजादी रोशनआरा तकरीबन रोज ही वहां घूमने और मन बहलाने आया करती थी। रोशनआरा बेहद खूबसूरत थी। कई मुग़ल-गैर मुग़ल शहजादे, राजकुमार, राजे, नवाब मन ही मन उसका ख्वाब देखा करते थे। ऐसा ही एक युवक, जो था तो बाबर का वंशज पर वह और उसका परिवार वर्षों से सत्ता से दूर गुमनामी का जीवन जी रहे थे, रोज वहाँ आ शहजादी को देखा करता था। इस एक तरफा लगाव को निरुत्साहित करने के प्रयासों का जब कोई असर नहीं हुआ तो रोशनआरा के अंगरक्षकों ने इसकी शिकायत बादशाह से कर दी; यह सुनते ही बादशाह का क्रोध सातवें आसमान तक जा पहुंचा और फिर वही हुआ, जो उन दिनों की  रिवायत थी ! राजाज्ञा से उस युवक की दोनों आँखें निकाल, उसे अँधा बना छोड़ दिया गया ! धीरे-धीरे जिस जगह वह रहता था वह स्थान अंधा मुग़ल के नाम से जाना जाने लगा। 

सोमवार, 20 अगस्त 2018

इसमें बच्चों का नहीं तंत्र का दोष है !

पिछले हफ्ते ब्लॉग पर रामायण के एक अहम पात्र सम्पाती पर दो आलेख डाले थे। उस समय ऐसे ही विचार आया कि क्या ''सम्पाती'' को कोई जानता भी है ? पहले आस-पास के लोगों से, फिर जान-पहचान वालों से फिर पार्क में सैर करते वक्त चार-पांच लोगों से पूछा ! अंजाम वही हुआ जिसका अंदेशा था ! एक भी जवाब ठीक नहीं मिला ! सम्पाती तो दूर कुछ लोग तो सिलसिलेवार दशरथ पुत्रों और उनकी माताओं के नाम भी ठीक से नहीं बता पाए ! इसमें बच्चों का दोष नहीं है, जब उन्हें किसी के बारे में बताया-पढ़ाया-सिखाया ही नहीं जाएगा, तो उसकी जानकारी कैसे होगी ! और जब बताने-सिखाने-पढ़ाने वाला ही  उजबक हो तो ! गुलिस्तां को बर्बाद करने के लिए तो एक ही उल्लू काफी होता है ! यहां तो हर शाख पे माननीय विराजमान हैं...........!

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आज सुबह की अखबार में छपी एक खबर ने मेरी बक-झक को और हवा दे दी जब पढ़ा कि प. बंगाल की एक पाठ्य-पुस्तक में मिल्खा सिंह की फोटो के बदले उन पर बनी फिल्म ''भाग मिल्खा भाग'' में उनका किरदार निभाने वाले फरहान अख्तर की फोटो छपी हुई है, जिसका किसी कोई इल्म नहीं है, सब वही पढ़-पढ़ा रहे थे ! 
यह जान-बूझ कर की गयी गलती नहीं है यह अज्ञानता का प्रतीक है ! कोई किताब यूं ही नहीं छप जाती ! दसियों लोगों की आँखों-हाथों से गुजरने के बाद लेखों को पुस्तक का रूप मिलता है ! वह तो पता नहीं कैसे फरहान को इसकी जानकारी मिली; उन्होंने आपत्ति दर्ज कराई; तो जिम्मेदारों के कान पर जूँ रेंगी ! पर क्या ऐसे दोष के लिए किसी सजा का प्रावधान है ? कौन है ऐसे लोगों का सरपरस्त ?

ऐसे ''हादसों'' का कारण साफ़ है। आज समय के साथ-साथ जीवन-पद्यति, रहन-सहन, सोच सब कुछ बदल गया है ! ज्ञान को पीछे कर जानकारी को अहमियत दी जाने लगी है ! शिक्षा का हर केंद्र ज्ञान नहीं सिर्फ जानकारी प्रदान कर किरानियों की एक बड़ी जमात का विनिर्माण करने लगा है ! इसी जमात से निकले लोग येन-केन-प्रकारेण जब जिम्मेदारी से भरे पदों पर काबिज होते या कर दिए जाते हैं, जिनके बारे में उनका ज्ञान निल बटे सन्नाटे से ज्यादा नहीं होता, तो फिरअंजाम भी वैसा ही होता है ! गुलिस्तां को बर्बाद करने के लिए तो एक ही उल्लू काफी होता है ! यहां तो हर शाख पे माननीय विराजमान हैं और विडंबना है कि हम बेहतरी की उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं !

याद आता है ! कुछ महीनों पहले एक चैनल ने दिल्ली में कुछ युवाओं से रामायण से संबंधित कुछ सरल से प्रश्न पूछे थे, जिनका पूरा जवाब अधिकतर लोग नहीं दे पाए थे ! उन्हीं प्रश्नों में एक सवाल था, रामायण का रचयिता कौन है ? "नहीं मालुम'' तो आम जवाब था; कइयों ने रामानंद सागर का नाम लिया ! बहुतेरे बगलें झांकते नजर आए ! यह सब देख-सुन कर खेद-रोष-तकलीफ तो होती है पर सवाल यह उठता है ऐसा क्यों है ? यह तो एक ऐसे ग्रंथ के बारे में  था, जिसका प्रचार-प्रसार-लोकप्रियता दुनिया के कई-कई देशों में है ! बाकी हमारी संस्कृति, हमारे रीती-रिवाज, प्राचीन पौराणिक ग्रंथ, उनके चरित्र, शिक्षा, ज्ञान, महान ऋषि-मुनि, लेखक, चिंतक, वैज्ञानिक, चिकित्सक जैसे न जाने कितने अनगिनत योद्धा, संत महापुरुष हैं जिनके बारे में आज की पीढ़ी कुछ भी नहीं जानती ! नाही कोई कोशिश की जाती है उन सब के बारे में बताने की। कुछ पहले बात अलग थी; संयुक्त परिवारों में दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े बुजुर्गों द्वारा बच्चों को संस्कारी, चरित्रवान, सहनशील, गुणवान, एक अच्छा इंसान बनाने के लिए किस्से-कहानियों का उपयोग किया जाता था। पर सभी जानते हैं कि समय के बदलाव के साथ क्या-क्या हुआ है ! बच्चों का बचपन छीन लिया गया, उनसे तरह-तरह के क्षेत्रों में काबिल होने का दवाब डाला गया, परिजनों के अपने खुद के दबे-ढके-अपूर्ण सपनों को पूरा करने की लालसा के साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त करने की अंधी दौड़ में शामिल कर उन्हें मशीन बना दिया। इस सब में अब कहां उन किस्से-कहानियों का रूहानी-रूमानी कल्पना संसार !

जब तक पूरी गंभीरता, निष्पक्षता, निष्ठा से इस समस्या का निदान नहीं निकाला जाता तब तक ऐसे हादसे होते रहेंगे और कोई आश्चर्य नहीं कि यदि इसी तरह का ही रवैया रहा, तो आने वाले पच्चीस-पचास वर्षों में ऐसी ही गलतियों को सच्चाई मान लिया जाएगा !

शनिवार, 18 अगस्त 2018

राम कृपा से सम्पाती का काया-कल्प

सम्पाती समुद्र तट पर आ पसरने वाले जिस समूह को अपना प्रभू-प्रदत्त भोजन समझ कर लपक रहा था, वह कोई मामूली वानर दल नहीं था ! यह रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात उनकी खोज में जामवंत, हनुमान तथा अंगद जैसे महावीरों के नेतृत्व में  निकली वह वानर सेना की टुकड़ी थी, जो हफ़्तों पहाड़ों, बियाबानों की ख़ाक छानने के बाद भी सीता माता का कोई सुराग न मिल पाने के कारण हताश-निराश, हारी-थकी यहां पहुंची थी..........!


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अपरान्ह का समय, सूर्य देव अपनी आधी यात्रा तय कर आहिस्ता-आहिस्ता अस्ताचल की ओर अग्रसर हो रहे थे। तभी सागर तट की तरफ से लहरों की आवाजों के अलावा हल्की सी हलचल और कुछ कोलाहल का एहसास होने लगा ! जैसे बहुत सारे लोग इक्कट्ठा हो आपस में बातें कर रहे हों। धीरे-धीरे ये आवाजें तेज शोरगुल में बदल गयीं। सागर से कुछ दूरी पर स्थित पहाड़ी के मध्य में बनी एक खोह में पड़ा सम्पाती अर्द्धनिद्रावस्था में था। सालों बीत जाने के बाद भी सूर्य प्रयाण के दौरान लगभग मृत्यु को प्राप्त उसका शरीर अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया था। कमजोरी के कारण रोएँ और पंख विहीन उसका विशाल, वृहदाकार, भारी-भरकम शरीर बड़ी मुश्किल से अपना भार संभाल पाता था। इसलिए वह एक प्रकार से इसी खोह में कैद हो कर रह गया था ! जिससे ना उसे बाहर की दुनिया की कोई खबर थी ना हीं दुनिया को उसकी ! लोग लगभग उसे भुला चुके थे। ऐसे में उसका पुत्र सुपार्श्व ही
अपने पिता की सेवा-सुश्रूषा, नित्य-कर्म व भोजन इत्यादि करवाया करता था। आज भी वह अभी ही गया था। भोजनोपरांत आए अलस से अभी सम्पाती की आँख लगी ही थी कि अचानक यह शोर-गुल शुरू हो गया। सम्पाती के डर के कारण सागर के इस ओर कोई नहीं आता था। किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि इधर आ यहां की शान्ति में खलल डाले या किसी तरह का कोई व्यवधान खड़ा करे ! आज किसका इतना दुःसाहस हो गया, जो यहां शोर मचा रहा है ! आराम में विघ्न पड़ने से उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। किसी तरह उठ कर खोह के मुहाने पर पहुंच उसने अपनी गर्दन बाहर निकाल देखा तो उसे विशाल सागर तट पर अनेक वानर विचरते नजर आए, उन्हीं के वार्तालाप से यह शोर उठ रहा था। पहले तो उसने सोचा कि अपनी हुंकार से उन्हें डरा कर भगा दे ! पर फिर उसे ख्याल आया कि भगवान ने तो घर बैठे उसके लिए लम्बे समय तक के भोजन का प्रबंध कर दिया है। यह ख्याल आते ही वह खोह के बाहर निकल उन्हें बंदी बनाने के बारे में विचार करने लगा।

इधर समुद्र तट पर आ पसरने वाला समूह कोई मामूली वानर दल नहीं था ! यह रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात उनकी खोज में, जामवंत, हनुमान तथा अंगद जैसे महावीरों के नेतृत्व में निकली वह वानर सेना की टुकड़ी थी, जो
हफ़्तों जंगलों, पहाड़ों, बियाबानों की ख़ाक छानने के बाद भी सीता माता का कोई सुराग न मिल पाने के कारण हताश-निराश, थकी-हारी यहां पहुंची थी। अपने अभियान की असफलता का सभी को अतीव दुःख तो था ही; साथ ही सुग्रीव द्वारा नाकामयाब हो कर लौटने पर दी गयी मृत्यु दण्ड की चेतावनी अलग परेशान कर रही थी। इसी समस्या पर हो रहा विचार-विमर्श वहां उठ रहे शोर-गुल का मुख्य कारण था। उसमें से किसी को भी आसन्न संकट का रत्ती भर अंदेशा नहीं था।

सम्पाती ने अपनी व्यूह रचना बना,  खोह के बाहर कदम रखा ही था कि वानर दधिमुख की निगाह उस पर जा पड़ी ! शरीर के अनुपात में पतली लम्बी गर्दन, भाले की तरह बड़ी सी नोकीली चोंच, भेद कर रख देने वाली डरावनी लाल आंखें, पंख विहीन वृहदाकार पक्षी जैसे जीव को देख उसकी तो बोलती ही बंद हो गयी। उसने किसी तरह सबका ध्यान उस ओर आकर्षित करवाया। पूरा दल सामने आई इस नई मुसीबत को देख तत्क्षण उठ खड़ा हुआ। सम्पाती
का भयंकर शरीर इतना विशाल था कि यदि वह उन पर गिर भी जाता तो पच्चीस-पचास वानर तो यूं ही कुचले जाते। उसने गर्जना कर कहा कि भागने की कोशिश बेकार है, वह किसी को भी छोड़ेगा नहीं, सभी को उसका आहार बनना पडेगा। उसकी मेघ-गर्जना जैसी आवाज सुन वानर सैनिक हनुमान जी के पीछे आ-आ कर इकट्ठे हो गए, सबको उन्हीं का सहारा था, जो बिना विचलित हुए उस पक्षी नुमा पहाड़ को अपनी तरफ लुढ़कता आता देख रहे थे। थकान से चूर होने के बावजूद अंगद और जामवंत ने आने वाली मुसीबत से दो-दो हाथ करने की तैयारी कर ली थी। 
अस्त होते सूर्य के लाल रंग से सागर जल व तट भी लाल नजर आने लगे थे, जैसे युद्ध के पूर्व ही धरा खून से लाल हो गयी हो। लपकते चले आ रहे सम्पाती ने मुंह आकाश की ओर उठा, प्रभू को धन्यवाद दिया जो उन्होंने घर बैठे ही उसके लिए कई दिनों के भोजन की व्यवस्था कर दी थी। उसकी यह बात सुन जामवंत जी हताशा से भरे स्वर में बोले कि भगवान् की माया भी विचित्र है, देखो, एक यह गिद्ध है जो हम थके-हारे, लाचार लोगों को अपना आहार बनाना चाहता है: दूसरा वह जटायू था जिसने एक लाचार स्त्री को बचाने के लिए अपनी जान दे दी ! सम्पाती ने जैसे ही जटायू का नाम सुना; वह वहीं थम गया ! उसने जामवंत जी की तरफ देख कर पूछा, तुम जटायू को कैसे जानते हो ? इस पर जामवंत जी ने उसे राम वन-गमन से लेकर सीता हरण तक की सारी बात बताई और यह भी बताया
कि जिन सीता मैया को हम खोज रहे हैं उन्हीं को रावण से बचाने के लिए जटायू ने अपनी जान दांव पर लगा दी थी।सारी बात सुनने के बाद सम्पाती वहीं निढाल हो बैठ गया ! ऐसा लगा जैसे उसके शरीर में जान ही नहीं बची हो। उसकी आँखों से आंसू बहने लगे जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे ! उसका विलाप थम ही नहीं रहा था ! यह देख सारा समूह आश्चर्यचकित हो खड़ा रह गया। किसी को उस विशाल शरीर में आए इस अचानक परिवर्तन का  कारण समझ नहीं आ रहा था। तब हनुमान जी तथा जामवंत जी ने उसके पास जा उसे जल पिला कर दिलासा दे, समझाया, सांत्वना दी। कुछ देर बाद प्रकृतिस्थ होने पर उसने बताया कि मैं उसी जटायू का बड़ा भाई हूँ। इसके साथ ही उसने अपने बारे में सब कुछ बताते हुए उस सूर्य प्रयाण का भी जिक्र किया जिसके कारण उसका यह हाल हुआ और उसे यहां रहना पड़ रहा था। तभी उसे ऋषि द्वारा दिए गए उस आशीर्वाद का भी ख्याल आ गया जो उन्होंने उसकी चिकित्सा के दौरान दिया था कि जब इधर श्री राम का आगमन होगा और तुम उनके काम आओगे तो तुम्हारा शरीर पहले की तरह स्वस्थ, सुन्दर और बलशाली हो जाएगा। वर्षों के इन्तजार और कष्टों को सहने के बाद आज वह समय आ चुका था। 
सम्पाती कुछ संभल चुका था। उसने गहरी सांस ली, सबकी ओर देखा और पूछा कि बताएं, मैं आपकी क्या और कैसे सहायता कर सकता हूँ ? तब अंगद ने उसे बताया कि सीता माता का पता लगाने में वानर राज सुग्रीव द्वारा दी गयी अवधि समाप्ति की ओर है और हमें अब तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है सो कृपा कर माता की खोज में हमारी सहायता करें ! यह सुन सम्पाती ने कहा कि मुझे गरुड़ जी के आशीर्वाद से सैंकड़ों योजन देखने की क्षमता प्राप्त है, यह काम तो मैं तुरंत कर सकता हूँ। उसने गरुड़ जी का ध्यान कर अपनी दिव्य-दृष्टि से सारी दिशाओं में देखना शुरू किया, कुछ देर के बाद ही उसके चेहरे पर चमक आ गयी, उसने बताया कि सीताजी यहां से सौ योजन दूर सागर के बीच स्थित लंका नगरी में एक वाटिका में रावण की कैद में हैं। उसने इन सब को वहाँ जाने लिए प्रोत्साहित भी किया। जैसे ही उसने यह बात बताई; पूरी वानर सेना ख़ुशी से उछल पड़ी। कार्य-सिद्धि जो हो गयी थी। 
राम कृपा नासहिं सब रोगा ! जैसे ही सम्पाती ने सीताजी का पता लगा, राम काज में सहयोग किया वैसे ही उसमें शक्ति का संचार होना आरंभ हो गया, उसके शरीर पर रोएँ उग आए और पंखों का आना भी शुरू हो गया। सम्पाती की आँखों से दो बूँद अश्रु उसके चेहरे पर ढलक गए !  

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

क्या सम्पाती का सूर्य के नजदीक पहुंचना, सिर्फ एक गल्प या कोरी कल्पना है ?

सम्पाती और जटायू का सूर्य प्रयाण कोई भावावेश में, अहम के अतिरेक में या अति उत्साह में उठा लिया गया कदम नहीं था। अंतरिक्ष में जाना कोई हंसी-खेल नहीं है; जो अड़चनें आज हैं वे निश्चित रूप से तब भी होंगीं ! ऐसी यात्रा  बिना पूरी वैज्ञानिक जानकारी के संभव हो ही नहीं सकती ! फिर घायल व मुर्क्षित अवस्था में सम्पाती का, अंतरिक्ष में छिटक कर कहीं और चले जाने के बजाए , वापस अपनी जगह लौट आना भी इस बात का संकेत है कि यह प्रयास यूं ही नहीं कर लिया गया था !  पर विडंबना तो यह है कि आज की पीढ़ी, सम्पाती को तो छोड़िए; रामायण से भी पूरी तरह वाकिफ नहीं है.....................! 

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कुछ दिनों पहले नासा ने अमेरिकी वैज्ञानिक युजिन पार्कर के नाम पर एक पार्कर यान सूर्य के रहस्यों को जानने के लिए भेजा है, जो 85 दिनों यानी करीब अढ़ाई महीने के बाद सूर्य से 64 लाख किमी की दूरी तक पहुँच, अगले सात सालों तक उसके 24 चक्कर लगा, इसके रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश करेगा। कहा जा रहा है कि यह मानव जाति का पहला ऐसा प्रयास है जो सूर्य के इतने करीब पहुंचेगा। पर यदि हम अपने ग्रंथों को ध्यान से पढ़ें और उनका विश्लेषण करें तो पाएंगे कि ऐसा प्रयास आज से तक़रीबन सात हजार साल पहले, रामायण काल में दो भाइयों, सम्पाती और जटायू द्वारा किया जा चुका है। चूँकि वह अभियान असफल रहा था, शायद इसीलिए उसका विस्तृत विवरण भी उपलब्ध नहीं है और शायद निष्फलता के कारण ही उस दुर्धर्ष प्रयास को दोनों भाइयों के दंभ और अहंकार से जोड़ दिया गया ! 

यदि रामायण को पूरे ध्यान से पढ़ा जाए तो अनेकानेक ऐसे चरित्र सामने आएंगे, जिनका ज्ञान-ध्यान-विज्ञान में कोई सानी नहीं था। जिनके पास अद्भुत शक्तियां थीं। ग्रंथ में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र, यान, वायु-जल-थल में प्रयोग होने वाली तकनिकी, बल-बुद्धि-साहस-शौर्य का विवरण मिलता ही है, तो इसमें क्या आश्चर्य कि सम्पाती और जटायू ने सूर्य के बारे में जानने की, उसके रहस्यों को खोलने की कोशिश की हो। कथानक में यह साफ़ लिखा है कि सम्पाती सूर्य के अत्यधिक निकट चले गए थे। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिना सोचे-समझे, बिना किसी जानकारी के, बिना किसी गणना के, बिना पूरी तैयारी के, बिना राह में आने वाली परेशानियों-मुश्किलों को जाने, ऐसा उद्यम किया ही नहीं जा सकता था। उस पर घायल व मुर्क्षित अवस्था में भी सम्पाती का वापस अपनी जगह लौटना भी इस बात का संकेत है कि यह प्रयास यूं ही नहीं कर लिया गया था। पर विडंबना तो यह है कि आज की पीढ़ी सम्पाती को तो छोड़िए; रामायण से भी पूरी तरह वाकिफ नहीं है !
   
आज सभी जानते हैं कि अंतरिक्ष में जाना कोई हंसी-खेल नहीं है। जो अड़चने आज हैं वे तब भी होंगी ! तो ऐसी यात्रा बिना पूरी वैज्ञानिक जानकारी के संभव ही नहीं है ! फिर घायल व मुर्क्षित अवस्था में सम्पाती का वापस अपनी जगह लौटना भी इस बात का संकेत है कि यह प्रयास यूं ही नहीं कर लिया गया था। इसके लिए खाने-पीने से लेकर अपने शरीर के बाहरी आवरण को बचाने के लिए भी कई तरह के इंतजाम करने पड़ते हैं, नहीं तो हवा के दवाब के ना होने से किसी का भी शरीर गुब्बारे की तरह फट सकता है। इसके साथ ही किसी प्रकार के वातावरण के नहीं होने से विकिरण एक बहुत बड़ी समस्या बन जाता है। अंतरिक्ष में पूर्ण अंधकार में दिशा का ज्ञान रखना भी बहुत जरुरी है नहीं तो लाखों मील की यात्रा में कोई कहीं का कहीं पहुंच जाए ! अंतरिक्ष में लावारिस क्षुद्र-ग्रहों, उनसे टूटे छोटे-बड़े टुकड़ों से टकराने का भय हर पल बना रहता है ! उस पर शरीर की हड्डियों, आँखों, दिलो-दिमाग पर भी उस अंधेरे, सुनसान, बियाबान, गुरुत्वाकर्षण विहीन वातावरण का बहुत प्रभाव पड़ता है। ऐसे में बिना किसी सहारे के यात्रा करना सीधे-सीधे मौत के मुंह में जाना है।

इसीलिए सम्पाती और जटायू का यह सूर्य प्रवास कोई भावावेश में, अहम के अतिरेक में या अति उत्साह में उठा लिया गया कदम नहीं था। लाखों-लाख मील की यात्रा का आगाज, बहुत सोच-समझ कर राह में आने वाली सारी अड़चनों, परेशानियों, आकस्मिक मुसीबतों को जानते-बूझते, खान-पान-आराम, सुरक्षा, स्वास्थ्य जैसी जरुरतों का ध्यान और उनका हर तरह का इंतजाम और तैयारी करने के बाद ही संभव हो सकता है। ऐसा सोचने के कुछ कारण, कुछ सच्चाइयां, कुछ तथ्य, हमारे सामने हैं ! आज सभी जानते हैं कि धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से पार पा कर ही अंतरिक्ष में जाया जा सकता है। जिसके लिए अत्यधिक बल की जरुरत पड़ती है। इससे जाहिर होता है कि दोनों भाइयों के पास ऐसा कोई साधन, कोई तकनीक जरूर होगी जिसकी सहायता से उन्होंने यह बाधा पार की होगी ! दूसरी बात, धरा से पांच-सात किमी की ऊंचाई तक जाते-जाते आक्सीजन की कमी होने लगती है, बिना उसके मानव-पशु-पक्षी कोई भी जीवित नहीं रह सकता ! इसका उपाय भी उन्होंने जरूर सोच रखा होगा ! तीसरी, आज यह तथ्य सभी जानते हैं कि पृथ्वी के वातावरण से निकलते ही तापमान कहीं शून्य से कई डिग्री तक कम और कहीं कई डिग्री ज्यादा हो जाता है जिसमें किसी भी जीवित प्राणी के प्राण बचना संभव नहीं है। चौथी, इतनी लम्बी यात्रा बिना खाए-पीए-सोए या आराम किए तो पूरी नहीं ही की जा सकती; तो इसका हल भी उन्होंने जरूर निकाला होगा ! कथा बताती है कि सम्पाती सूर्य के अत्यधिक पास पहुंच गया था तो उसे विकरण, क्षुद्र-ग्रहों के टुकड़ों, धूमकेतुओं, वहाँ के तापमान इत्यादि का भी जरूर ज्ञान होगा ! जिनसे बचाव का उपाय भी उसके पास जरूर होगा ! सबसे अहम बात यह है कि अंतरिक्ष में वातावरण ना होने के कारण सूर्य की गर्मी महसूस नहीं होती, जब तक किसी ग्रह के वातावरण में प्रवेश ना कर लिया जाए ! तो अब इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि सम्पाती सूर्य के कितने नजदीक पहुँच गया था जो उसके पर-पंख या कहें तो सुरक्षा कवच तक जल गए थे ! फिर सबसे बड़ी बात कि इस दुर्घटना के बाद भी उसका घायल, बेहोश शरीर अंतरिक्ष में छिटक कर कहीं गुम हो जाने के बजाय वापस धरती पर पहुँच गया था ! क्या यह सब उच्च कोटि के विज्ञान के ज्ञान के बिना संभव था ?

विडंबना यही है कि हर तरह के ज्ञान-विज्ञान के हमारे पास होते हुए भी हम उस पर विश्वास नहीं करते ! अपने ही वेदों-ग्रंथों पर हमें भरोसा नहीं है। अपने ऋषि-मुनियों द्वारा किए गए मार्ग-दर्शन का हम मजाक तक उड़ा देते हैं। पुरानी सीखों, उपदेशों, शिक्षाओं को मानना हमें पोंगापंथी नजर आती है। हम अपने ही ज्ञान को तब तक नहीं मानते जब तक उस पर विदेश की मोहर ना लग जाए। जबकि सिर्फ रामायण और महाभारत इन दो ही ग्रंथों में वह सब कुछ है जो आज तक दुनिया में होता आया है, हो रहा है तथा होता रहेगा !                

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

ऊं हूँ ! यह करना नामुमकिन है !

हमारा शरीर एक अजूबा है। चाहे सहनशक्ति हो, तेजी हो या फिर बल-प्रयोग इससे इंसान ने अनेक हैरतंगेज कारनामो को अंजाम दिया है। कइयों ने तो ऐसे-ऐसे करतब किए, दिखाएं हैं जिन्हें देख आम आदमी दांतो तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो जाता है। पर विश्वास कीजिए, आकाश से ले कर सागर की गहराई तक नाप लेने वाला हमारा वही शरीर कुछ ऐसे साधारण से काम, जो देखने-सुनने में भी बहुत आसान लगते हैं उन्हें नहीं कर पाता ! कोशिश कर देखिए यदि संभव हो सके तो .........!

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1, एक बिना हत्थे वाली कुर्सी पर पीठ टिका कर बैठ जाएं और फिर बिना आगे की ओर झुके उठने की कोशिश करें !

2, पैर सीधे रख एड़ियों को दीवाल से लगा कर खड़े हो जाएं तो न हम झुक कर अपने पैर छू सकते हैं ना ही उछल सकते हैं ! 

3, दीवाल के साथ अपने दाहिने पैर को लगा कर खड़े हो, कितनी भी कोशिश कर लें, हम अपना बायां पैर नहीं उठा पाएंगे !

4, बच्चे मेढक की तरह कूदते रहते हैं, पर यदि उन्हें कहें कि झुक कर अपने अंगूठों को पकड़ कर कूदो तो वे क्या कोई भी नहीं कूद पाएगा !

5, अपनी हथेली को, पंजा फैला कर किसी टेबल या जमीन पर रखें। फिर अपनी बीच वाली उंगली को हथेली की तरफ अंदर मोड़ लें, अब बिना हथेली उठाए एक-एक कर अंगूठे और उँगलियों को ऊपर करें, कनिष्ठा यानी तीसरी उंगली को हिला भी नहीं पाएंगे !

6, दोनों आँखों को एक दूसरे से विपरीत दिशा में घूमाना, यानी एक को घडी की सुई की दिशा में, दायीं ओर तथा दूसरी को उसकी विपरीत दिशा में, बायीं ओर, कतई मुमकिन नहीं है !

7, अपनी मुट्ठी को अपने मुंह में डालना, शायद पुरुषों के लिए असंभव है पर शायद महिलाएं कर सकें, क्योंकि उनमें ज्यादातर की हथेलियाँ छोटी होती हैं........................................मुंह बड़े ! :-)

8, क्या आप अपनी कोहनी को चूम सकते हैं ? कोशिश कर देखिए !

9, छींक आने पर आँखें खुली रख पाना किसी के लिए भी नामुमकिन होता है !

10, हम सब ने कभी न कभी गुब्बारे तो जरूर फुलाए होंगे, चलिए आज भी फुलाते हैं; करना सिर्फ यह है कि गुब्बारे को किसी बोतल में रख उसे फुलाना है, कोशिश कीजिए, देखिए क्या होता है !

11, चलिए एक छोटी सी माचिस की तीली को ही तोड़ने की कोशिश करते हैं ! एक तीली अपने किसी भी हाथ की बीच वाली उंगली के पीछे की ओर नाखून के पास  रखें, फिर उस पर अपनी पहली और तीसरी उंगलियां रख, कोशिश करें तोड़ने की....!

इस तरह की दसियों बातें जैसे अपनी भौंहें ऊपर-नीचे करना, खुद को गुदगुदी करना, अपनी जीभ से अपनी नाक छूना, अपने कानों को हिला पाने जैसी आसान सी लगने वाली बातें भी हमारे बस में नहीं हैं ! कोई बिरला ही होगा जिसके लिए यह सब संभव होगा फिर तो वह लाखों में एक कहलाएगा ही ! 

सोमवार, 6 अगस्त 2018

"पिन-बॉलिंग" एक मजेदार खेल

पहले तो इस खेल को खेलने की सुविधा कहीं-कहीं ही होती थी पर आजकल यह आम होता जा रहा है। मुझे गुड़गांव के आम्बिएंस मॉल में तीन-चार बार इसे खेलने का मौका मिला है। दिखने में जितना आसान लगता है उतना आसान यह है नहीं ! पहले तो यूँ ही बॉल को पकड़ कर दे मारते थे पिन पर ! पर धीरे-धीरे पता चला कि हर खेल की तरह इसमें भी अभ्यास और तकनीक जानकारी की उतनी ही जरुरत है जितनी बाकी खेलों में ! इसमें कलाई तथा उँगलियों का मजबूत होना भी बहुत आवश्यक है। बॉल को हथेली पर साधना भी एक कला है..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आधुनिक मॉल्स में सिनेमा घरों के अलावा मनोरंजन तथा खेलों के तरह-तरह के और भी उपकरण जुटाए जाते हैं जिससे ग्राहकों की आमद सदा बनी रहे। ऐसा ही एक खेल है "पिन-बॉलिंग"। इसमें एक 41" x 60' की लकड़ी या सिंथेटिक से बनी सीधी लेन या पट्टी होती है जिसके अंत में प्लास्टिक कोटेड, एक ख़ास लकड़ी के बने बबुआ नुमा गुटके जिन्हें "पिन'' कहा जाता है, त्रिभुजाकार आकार में स्वचालित मशीन द्वारा रखे होते हैं, जिनका प्रत्येक का वजन तक़रीबन डेढ़ किलो और ऊंचाई पंद्रह इंच और निचला व्यास सवा दो इंच का होता है। इन्हें लेन के छोर पर खड़े हो कर एक कठोर लकड़ी से बने बॉल से गिराना होता है। आम तौर से इस बॉल का वजन करीब सात किलो होता है, पर महिलाओं और बच्चों के लिए कुछ हल्के बॉल प्रयोग में लाए जाते हैं। वैसे इन्हें खिलाड़ी, जिसे बॉलर कहा जाता है, अपनी सुविधानुसार चुनता है। बॉल में तीन छेद बने होते हैं दो उँगलियों के लिए और एक अंगूठे के वास्ते। जिनके सहारे बॉल पर पकड़ बना, निशाना साध कर "पिन" को गिराना होता है। दाएं और बाएं हाथ से फेंकने में थोड़ा सा फर्क होता है। पिन के गिरने के हिसाब से अलग-अलग अंक प्राप्त होते हैं। 







कनाडा में यही खेल पांच "पिन" से भी खेला जाता है ! क्योंकि कई लोगों को दस पिन से शिकायत थी कि उससे थकान और हाथों में अकड़ाहट और दर्द शुरू हो जाता है। इसलिए वहाँ पिन के आकार को छोटा कर दिया गया और बॉल भी रबर की बना इस खेल को कुछ आसान और खुशनुमा बना दिया गया। पर लोगों की दिलचस्पी दस पिन में ज्यादा है और वह ही लोकप्रिय भी है।  







इस की लेन या पट्टी के पीछे एक जटिल तकनीक काम करती रहती है जो बॉल को वापस आपके पास के फ्रेम में बिना सामने लाए पहुंचाती है तथा पिन को भी व्यवस्थित करती है। सारी पिन गिरने पर पुन: उन्हें ट्रे में सजा उन्हें आपके सामने रखना या जितनी गिरी हैं उनको छोड़ बाकियों को पुन: स्थापित करने का काम अपने आप होता चलता है। 





पहले तो इस खेल की सुविधा कहीं-कहीं ही होती थी पर आजकल यह आम होता जा रहा है। मुझे गुड़गांव के आम्बिएंस मॉल में तीन-चार बार इसे खेलने का मौका मिला है। यहां खेलों के कुछ बेहद आधुनिक संस्करण उपलब्ध हैं। मॉल के इस हिस्से पर सचिन तेंदुलकरऔर विराट कोहली का मालिकाना हक़ है। बॉलिंग का यह खेल दिखने में जितना आसान लगता है उतना आसान यह है नहीं ! पहले तो यूँ ही बॉल को पकड़ कर दे मारते थे पिन पर ! पर धीरे-धीरे पता चला कि हर खेल की तरह इसमें भी अभ्यास और तकनीक जानकारी की उतनी ही जरुरत है जितनी बाकी खेलों में !  इसमें कलाई तथा उँगलियों का मजबूत होना भी बहुतआवश्यक है। बॉल को हथेली पर साधना भी एक कला है; नहीं तो अधिकाँश बार आप अपनी पारी, बॉल को यूं ही बिना लक्ष्य तक पहुंचाए बेकार कर देते हैं। हालांकि ज्यादा देर खेलने से हाथ और कलाई में दर्द और तनाव भी महसूस होने लगता है। फिर भी इस खेल को खेलने का अलग ही मजा और नशा है। इसलिए कहीं भी आउटिंग वगैरह पर इसको खेलने की सुविधा उपलब्ध हो तो आजमाने से चूकिएगा नहीं ! 

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

मेन्यू इंजीनियरिंग ! यह कौन सी बला है भई ?

आज का बाजार इतना चतुर, कुटिल और चंट हो गया है कि वह सदा यह कोशिश करता है कि जो आपको लेना है वह तो आप लें ही ! जो नहीं लेना है या जिसकी जरुरत नहीं है वह भी आप लें ! इसीलिए किसी भी तरह का मेन्यू बनाने में इंसान की भावनाओं जैसे उसका मनोविज्ञान, अपनी मार्जिन का लेखा-जोखा, बाजार की रणनीति, सुन्दर बनावट औरआकर्षक छपाई पर ध्यान दिया जाता है। हर वह कोशिश की जाती है जिससे ग्राहक उनके मुताबिक ही आकर्षित हो सके। इसके लिए विशेषज्ञों की सेवाएं ली जाती हैं, जिन्हें पता होता है कि ग्राहक कैसे और किस तरह पढ़ता है, देखता है और आकर्षित होता है.......!   

#हिन्दी_ब्लागिंग    
आज भोजन, नाश्ते या ऐसे ही छुट-पुट अल्पाहार के लिए, छोटे-बड़े किसी भी होटल, रेस्त्रां या ढाबे में चले
जाइये; वहाँ बैठते ही जो पहली चीज पेश की जाती है, वह होती है एक मेन्यू, एक या दो-तीन पन्नों पर छपी वहाँ उपलब्ध व्यंजन या भोजन-सूचि। हम मे से ज्यादातर लोग उस पर एक सरसरी नज़र डाल उसे किनारे रख देते हैं। पर यह जान कर आश्चर्य होगा कि उस कार्ड को यूँ ही सिर्फ भोजन सामग्री और उनकी कीमतों को छाप कर ही नहीं बना दिया जाता बल्कि उसके पीछे कई लोगों का दिमाग तथा तकनीक काम करती है। जिसे आजकल Menu Engineering या Menu Psychology  के नाम से जाना जाता है। यह तकनीक सिर्फ होटल-रेस्त्रां के लिए ही नहीं है बल्कि हर उस इंडस्ट्री के लिए लागू की जाती है, जिसे अपने उत्पादों को ग्राहकों तक पहुंचाना होता है। इस विधा का मुख्य उद्देश्य उस पर अंकित वस्तुओं को ग्राहकों में लोकप्रिय बना उनसे लाभ कमाना होता है। इसकी कल्पना और ईजाद बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप द्वारा 1970 में की गयी थी जिसे होटल-रेस्त्रां इत्यादि तक आने में दस साल लग गए। आज यह उन सब जगहों में इस्तेमाल होती है जहां विभिन्न स्तरों पर, विभिन्न कीमतों और गुणवत्ता वाली कई-कई  वस्तुएं बिक्री के लिए उपलब्ध होती हैं।  

अब यह कहा जा सकता है कि इसमें किसी तकनीक की क्या जरुरत है ? जिसको जो लेना होगा लेगा ! पर नहीं ! आज का बाजार इतना चतुर, कुटिल और चंट हो गया है कि वह सदा यह कोशिश करता है कि जो 
आपको लेना है वह तो आप लें ही ! जो नहीं लेना है या जिसकी जरुरत नहीं है वह भी आप लें ! इसीलिए मेन्यू बनाने में इंसान की भावनाओं जैसे उसका मनोविज्ञान, अपनी मार्जिन का लेखा-जोखा, बाजार की रणनीति, सुन्दर बनावट औरआकर्षक छपाई पर ध्यान दिया जाता है, जिससे ग्राहक पूरी तरह आकर्षित हो सके। इसके लिए विशेषज्ञों की सेवाएं ली जाती हैं, जिन्हें पता होता है कि ग्राहक कैसे और किस तरह पढ़ता है, देखता है और आकर्षित होता है। उसी के अनुसार हर वस्तु को कार्ड पर स्थान दिया जाता है। हर व्यवसाय की तरह होटल-रेस्त्रां वालों का ध्यान भी सदा लागत कम करने तथा खपत बढ़ाने की तरफ रहता है। मेन्यू इंजीनियरिंग के विशेषज्ञ इंसान की कुदरती आदत "नवीनता और प्रधानता" के नियमों के
बारे में पूरी तरह जानकार होते हैं, जिसके तहत माना जाता है कि इंसान मेन्यू में अपनी पहली और आखिरी देखी गयी चीज को ज्यादा याद रखता है। इसलिए उन जगहों पर ऐसे खाद्य पदार्थों के नाम रखे जाते हैं जिनकी लागत कम होती है पर कीमतें ज्यादा। इसके अलावा साधारण चीजों के नाम के शब्दों में भी थोड़ी सी हेराफेरी कर उसे नया सा नाम दे ग्राहक की उत्सुकता बढ़ा अपनी बिक्री बढ़ाने की जुगत की जाती है। 

इस तकनीक के तहत उन चीजों को वरीयता क्रम पर ऊपर रखा जाता है जिनमें मुनाफा ज्यादा हो पर लागत कम हो, जिनमे मुनाफा कम हो उन वस्तुओं से परहेज किया जाता है। इसके लिए हर चीज का मूल्य निर्धारण, उसकी कीमत, बनाने में आने वाला खर्च, उसके रख-रखाव, परोसने और बेकार या खराब हो जाने पर होने 
वाले नुक्सान की लागत सब को ध्यान में रख बहुत सावधानी से किया जाता है। मेन्यू द्वारा इस व्यवसाय के लोगों को उन वस्तुओं की ओर ग्राहकों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास रहता है जो कम लागत में ज्यादा मुनाफ़ा देती हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि किसी भी भोजनालय की लोकप्रियता, प्रसिद्धि तथा उसके आर्थिक लाभ में उसके खाद्य पदार्थों, उसकी सेवाओं, उसकी स्वच्छता की तो अहम भूमिका होती ही है पर उसकी इस सफलता में उसके मेन्यू कार्ड का भी योगदान रहता है, यह अलग बात है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। 

अब अगली बार जब भी कहीं बाहर खाने का प्रोग्राम बने तब वहाँ के मेनू को यूँ ही किनारे ना कर दें बल्कि उसमें छपी सूचि में उलझने की बजाय उसकी बनावट, शैली इत्यादि पर भी थोड़ी अहमियत दें क्योंकि उसे बनाने में कई लोगों की मेहनत लगी होती है ! 

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