समय चक्र के घूमने के साथ ही अब फिर "घी" के दिन बहुरने लगे हैं। जी हाँ वही देसी घी जिसके पीछे, कुछ वर्षों पहले आहार, विहार, सेहत, स्वास्थ्य संबंधी विशेषज्ञ-डॉक्टर और ना जाने कौन कौन, पड़े हुए थे; इसकी बुराइयां और हानियाँ बताते हुए ! वैसे ही लोग उसी घी को आज फिर शरीर के लिए अमृत-तुल्य बता उसका गुणगान करते नहीं थक रहे.........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
दिल्ली, अस्सी का दशक ! घी को बदनाम करने में सरकार भी पीछे नहीं रही थी। सोची-समझी साजिश के तहत कुछ बिकाऊ डॉक्टरों के द्वारा देसी घी के विरोध में, बयान जारी करवा कर लोगों को भ्रमित करना शुरू हो चुका था ! अचानक सरकार द्वारा, बटर-ऑयल के नाम से एक आयातित चिकनाई का परिचय यह कह कर प्रचारित करवाया जाता है कि यह सेहत के लिए बेहद फायदेमंद है। इससे क्लोस्ट्रॉल नहीं बढ़ता, इसमें "फैट" नहीं के बराबर है तथा यह दिल के लिए सर्वश्रेष्ठ चिकनाई है। इसे सिर्फ "मदर डेयरी" पर ही पांच किलो के टीन में बेचा जाता था ! पिघले हुए गाय के घी जैसी रंगत, कीमत थी सिर्फ 65 रूपए ! लोगों को और क्या चाहिए था ! सदियों से उपयोग में चले आ रहे घी को, मंहगा और सेहत के लिए हानिकारक समझ, लोगों ने किनारे कर, इस अनजानी वस्तु के लिए होड़ मचा दी। जिसे देखो वही इसे हाथ में उठाए चला आ रहा था। मदर डेयरी पर आता बाद में था बिक पहले ही जाता था। मदर डेयरी के बूथ संचालकों की पूछ बढ़ गयी थी। लोगों ने बुकिंग करवानी शुरू कर दी थी। मांग और खपत देखते हुए उस मुफ्त की मिली चीज की कीमत भी दस-दस रुपये बढ़ाते हुए 125/- तक कर दी गयी; पर लोगों में उसकी चाहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। पर फिर तीनेक साल के बाद यह "चीज" अचानक बाजार से गायब हो गई। बाद में पता चला कि विदेशों में मक्खन-चीज़ वगैरह निकाल लेने के पश्चात बची सैंकड़ों टन तलछट से अपने पर्यावरण को बचाने के लिए उन्होंने इसे हमें मुफ्त में उपलब्ध करवाया था और हमारे कर्णधारों-हितचिंतकों-माननीयों ने इसे कीचड़ की तरह जहाजों में भर कर वहां से ला, यहां टीन में पैक कर हमें पैसे ले कर "उपकृत" किया था।
इसी तरह कुछ सालों पहले हमारे यहां आदि काल से उपयोग में आ रहे सरसों के तेल को भी जहर स्वरुप बता, पता नहीं कैसे-कैसे आयातित तेलों को हमारे रसोई घरों में स्थाई निवास प्रदान करवा दिया गया था। जिसका खुलासा भी हुआ कि समृद्ध देशों ने अपने तेलों के "बम्पर स्टॉक" को यहां खपाने के लिए सरसों के तेल को हानिकारक प्रचारित कर बदनाम करवाया था। हमारे भ्रस्ट माननीयों की सहायता से खतरनाक और निम्न कोटि का सामान यथा, दूध, मक्खन, पानी, दवाइयां, शराब, सिगरेट, प्रसाधन, कपडे, मशीन, यंत्र और ना जाने क्या-क्या, किस-किस रूप में यहां आ हमें अपना आदी बना हमें और हमारे देश को खोखला करता जा रहा है। जिसमें भले ही अब कुछ कमी आई हो पर अभी भी आना और ले आया जाना जारी है !
हमारी आबादी सदा से ही समृद्ध देशों और उनके उत्पादों की खपत के लिए "टारगेट" रही है। कभी भरमा कर, कभी उकसा कर, कभी ललचा कर हमारा भरपूर फायदा उठाया जाता रहा है। इस लक्ष्य को साधने में हमारे अपने ही लोग अपना कांधा प्रदान करते रहे हैं। सुनने में आया था कि अस्सी के दशक में तो एक "महानुभाव" ने गोबर के आयात की संभावनाओं को परखने के लिए सपरिवार स्वीडेन का टूर तक बना लिया था। पर अब तो हर वस्तु की गुणवत्ता, खासियत की जांच-परख, जानकारी उपलब्ध है सो हम उपभोक्ताओं को ही सावधानी बरतने, जागरूक होने की जरुरत है। बाजार और उसके नुमाइंदे तो बाज आने से रहे अपनी हरकतों से !
#हिन्दी_ब्लागिंग
दिल्ली, अस्सी का दशक ! घी को बदनाम करने में सरकार भी पीछे नहीं रही थी। सोची-समझी साजिश के तहत कुछ बिकाऊ डॉक्टरों के द्वारा देसी घी के विरोध में, बयान जारी करवा कर लोगों को भ्रमित करना शुरू हो चुका था ! अचानक सरकार द्वारा, बटर-ऑयल के नाम से एक आयातित चिकनाई का परिचय यह कह कर प्रचारित करवाया जाता है कि यह सेहत के लिए बेहद फायदेमंद है। इससे क्लोस्ट्रॉल नहीं बढ़ता, इसमें "फैट" नहीं के बराबर है तथा यह दिल के लिए सर्वश्रेष्ठ चिकनाई है। इसे सिर्फ "मदर डेयरी" पर ही पांच किलो के टीन में बेचा जाता था ! पिघले हुए गाय के घी जैसी रंगत, कीमत थी सिर्फ 65 रूपए ! लोगों को और क्या चाहिए था ! सदियों से उपयोग में चले आ रहे घी को, मंहगा और सेहत के लिए हानिकारक समझ, लोगों ने किनारे कर, इस अनजानी वस्तु के लिए होड़ मचा दी। जिसे देखो वही इसे हाथ में उठाए चला आ रहा था। मदर डेयरी पर आता बाद में था बिक पहले ही जाता था। मदर डेयरी के बूथ संचालकों की पूछ बढ़ गयी थी। लोगों ने बुकिंग करवानी शुरू कर दी थी। मांग और खपत देखते हुए उस मुफ्त की मिली चीज की कीमत भी दस-दस रुपये बढ़ाते हुए 125/- तक कर दी गयी; पर लोगों में उसकी चाहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। पर फिर तीनेक साल के बाद यह "चीज" अचानक बाजार से गायब हो गई। बाद में पता चला कि विदेशों में मक्खन-चीज़ वगैरह निकाल लेने के पश्चात बची सैंकड़ों टन तलछट से अपने पर्यावरण को बचाने के लिए उन्होंने इसे हमें मुफ्त में उपलब्ध करवाया था और हमारे कर्णधारों-हितचिंतकों-माननीयों ने इसे कीचड़ की तरह जहाजों में भर कर वहां से ला, यहां टीन में पैक कर हमें पैसे ले कर "उपकृत" किया था।
इसी तरह कुछ सालों पहले हमारे यहां आदि काल से उपयोग में आ रहे सरसों के तेल को भी जहर स्वरुप बता, पता नहीं कैसे-कैसे आयातित तेलों को हमारे रसोई घरों में स्थाई निवास प्रदान करवा दिया गया था। जिसका खुलासा भी हुआ कि समृद्ध देशों ने अपने तेलों के "बम्पर स्टॉक" को यहां खपाने के लिए सरसों के तेल को हानिकारक प्रचारित कर बदनाम करवाया था। हमारे भ्रस्ट माननीयों की सहायता से खतरनाक और निम्न कोटि का सामान यथा, दूध, मक्खन, पानी, दवाइयां, शराब, सिगरेट, प्रसाधन, कपडे, मशीन, यंत्र और ना जाने क्या-क्या, किस-किस रूप में यहां आ हमें अपना आदी बना हमें और हमारे देश को खोखला करता जा रहा है। जिसमें भले ही अब कुछ कमी आई हो पर अभी भी आना और ले आया जाना जारी है !
हमारी आबादी सदा से ही समृद्ध देशों और उनके उत्पादों की खपत के लिए "टारगेट" रही है। कभी भरमा कर, कभी उकसा कर, कभी ललचा कर हमारा भरपूर फायदा उठाया जाता रहा है। इस लक्ष्य को साधने में हमारे अपने ही लोग अपना कांधा प्रदान करते रहे हैं। सुनने में आया था कि अस्सी के दशक में तो एक "महानुभाव" ने गोबर के आयात की संभावनाओं को परखने के लिए सपरिवार स्वीडेन का टूर तक बना लिया था। पर अब तो हर वस्तु की गुणवत्ता, खासियत की जांच-परख, जानकारी उपलब्ध है सो हम उपभोक्ताओं को ही सावधानी बरतने, जागरूक होने की जरुरत है। बाजार और उसके नुमाइंदे तो बाज आने से रहे अपनी हरकतों से !
5 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (08-07-2018) को "ओटन लगे कपास" (चर्चा अंक-3026) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी आपका और चर्चा मंच का हार्दिक आभार
जागरूक प्रस्तुति हेतु आभार!
हार्दिक धन्यवाद, कविता जी
बाहर की चीजों की ललक अक्सर हमें धोखा देती है। जबकि हमारे अपने कई उत्पाद कहीं बेहतर होते हैं और विदेशों में पसंद भी किए जाते हैं।
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