दिनों-दिन बढ़ाई जाती कीमतों से तो यही लगता है कि मंशा-ए-हाकिम यही है कि मुश्किल हालातों में किसी तरह गुजर कर रहे नागरिकों के पास की दमड़ी को भी तरह-तरह के हथकंडे अपना किसी तरह हथिया लिया जाए। किराया बढ़ाना सबसे सरल और तुरंत उगाही का तरीका है। क्योंकि कमाई के और पचासों उपाय श्रम और समय दोनों की मांग करते हैं। जिसके लिए किसी में सब्र नहीं है ! गरीब-गुरबा तो कहने की बातें है, इस बार तो सायकिल वालों को भी नहीं बक्शा गया ..............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
#हिन्दी_ब्लागिंग
इस बार सर्दियों में दिल्ली के पर्यावरण का माहौल किसी गैस चेंबर जैसा था। जाहिर है हो-हल्ला मचा, तरह-
तरह के नेताओं ने तरह-तरह की चिंताओं से घिर तरह-तरह के आश्वासन दे तरह-तरह के सब्ज बाग़ दिखलवाए ! जिसमें एक था मेट्रो के उपयोग के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना। समझाइश यह थी कि निजी वाहन कम निकलेंगे तो "स्मॉग" घटेगा। इसके लिए बच्चों की सेहत को सामने रख भावनात्मक रूप से ब्लैकमेलिंग भी की गयी। बहुतेरे लोग झांसे में आ गए ! थोड़ी-बहुत अड़चनों को नजरंदाज कर, अपनी गाड़ियां छोड़, मेट्रो का सहारा लिया। समयानुसार मौसम बदला, वायुमण्डल में जैसे ही कुछ सुधार हुआ, चंट लोगों ने मेट्रो का किराया अनाप-शनाप बढ़ा दिया ! जनता भौंचक्की ! कुछ लोग फिर अपने निजी वाहनों की ओर लौटे; धड़ से पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ गयीं, उनका तो वैसे ही एक अलग इंद्रजाल है जो किसी की समझ में नहीं आता। अवाम के वश में कहाँ कुछ रहता है, लोग बड़बड़ाते रहे
, जेब ढीली करते रहे। कुछ ने बसों की तरफ रुख किया तो उनके किरायों में बढ़ोत्तरी कर दी गयी। ऐसे ही कुछ दिन बीते, अभ्यस्तता आती देख फिर देश-हित में सदा तत्पर रहने वालों की कमिटी ने मेट्रो पार्किंग लगभग दुगनी कर दी, यहां तक कि सायकिल वालों को भी नहीं छोड़ा ! क्या इनसे कोई पूछने वाला भी नहीं कि भाई इस तरह कीमत बढ़ते रहने से लोग तुम्हारी मेट्रो को क्यों प्राथमिकता देंगे ? जबकि सच्चाई भी यही है कि मेट्रो से लोगों का मोह-भंग हो रहा है ! सोचने वाली बात यह है कि यदि आप सच्चे दिल से देश-समाज-अवाम का हित समझते हुए यह चाहते हैं कि जनता अपने वाहन का उपयोग ना कर सरकारी यातायात से सफर करे तो उसे लगना तो चाहिए कि निजी से सरकारी वाहन में यात्रा फायदेमंद ना सही पर नुक्सान दायक भी नहीं है।
यहां तो उल्टा हो रहा है ! लग रहा है कि मुश्किल हालातों में भी किसी तरह गुजर कर रहे नागरिकों के पास की दमड़ी को भी तरह-तरह के हथकंडे अपना किसी तरह हथिया लिया जाए। क्योंकि यह सबसे सरल और तुरंत उगाही का तरीका है। क्योंकि कमाई के और पचासों तरीके श्रम और समय दोनों की मांग करते हैं। जिसके लिए किसी में सब्र नहीं है। क्या कारण है कि सरकारी ठप्पा लगते ही हर काम घाटे में चलने लगता है और गैर सरकारी उद्यम दिन दुनि रात चौगुनी कमाई करते चले जाते हैं ! वैसे इस बारे में जानते तो सभी हैं !
अब रही उन कमेटियों की बात जो घाटे की पूर्ती के मार्गदर्शन के लिए बनाई जाती हैं। उनमें कौन लोग होते हैं जो ऐसे फैसले लेते हैं ? ये तो साफ़ है उन्हें अवाम से कोई लेना-देना नहीं है, नाहीं उनकी जेब से कुछ जा रहा है !
उल्टे ऐसे बेतुके निर्णयों पर भी उन्हें भारी-भरकम फीस तो चुकाई जाती ही होगी साथ ही तरह-तरह की सरकारी सुविधाएं भी मुहैय्या करवाई जाती होंगी। ऐसे लोगों के नाम भी उजागर होने चाहिए। बहुत इच्छा है ऐसे महानुभावों के नाम और चेहरे देखने जानने की जिनका खुद और उनके परिवार का आवागमन तो कभी-कभार ही धरती से होता हो और होता भी हो तो उन्हें उसके खर्च की जानकारी शायद ही हो ! ऐसे लोगों की न तो रियाया के साथ कोई सहानुभूति होती है ना हीं उसके हालातों पर ! ऐसे लोगों की जानकारी भी पब्लिक को उपलब्ध करवाई जानी चाहिए !
, जेब ढीली करते रहे। कुछ ने बसों की तरफ रुख किया तो उनके किरायों में बढ़ोत्तरी कर दी गयी। ऐसे ही कुछ दिन बीते, अभ्यस्तता आती देख फिर देश-हित में सदा तत्पर रहने वालों की कमिटी ने मेट्रो पार्किंग लगभग दुगनी कर दी, यहां तक कि सायकिल वालों को भी नहीं छोड़ा ! क्या इनसे कोई पूछने वाला भी नहीं कि भाई इस तरह कीमत बढ़ते रहने से लोग तुम्हारी मेट्रो को क्यों प्राथमिकता देंगे ? जबकि सच्चाई भी यही है कि मेट्रो से लोगों का मोह-भंग हो रहा है ! सोचने वाली बात यह है कि यदि आप सच्चे दिल से देश-समाज-अवाम का हित समझते हुए यह चाहते हैं कि जनता अपने वाहन का उपयोग ना कर सरकारी यातायात से सफर करे तो उसे लगना तो चाहिए कि निजी से सरकारी वाहन में यात्रा फायदेमंद ना सही पर नुक्सान दायक भी नहीं है।
यहां तो उल्टा हो रहा है ! लग रहा है कि मुश्किल हालातों में भी किसी तरह गुजर कर रहे नागरिकों के पास की दमड़ी को भी तरह-तरह के हथकंडे अपना किसी तरह हथिया लिया जाए। क्योंकि यह सबसे सरल और तुरंत उगाही का तरीका है। क्योंकि कमाई के और पचासों तरीके श्रम और समय दोनों की मांग करते हैं। जिसके लिए किसी में सब्र नहीं है। क्या कारण है कि सरकारी ठप्पा लगते ही हर काम घाटे में चलने लगता है और गैर सरकारी उद्यम दिन दुनि रात चौगुनी कमाई करते चले जाते हैं ! वैसे इस बारे में जानते तो सभी हैं !
अब रही उन कमेटियों की बात जो घाटे की पूर्ती के मार्गदर्शन के लिए बनाई जाती हैं। उनमें कौन लोग होते हैं जो ऐसे फैसले लेते हैं ? ये तो साफ़ है उन्हें अवाम से कोई लेना-देना नहीं है, नाहीं उनकी जेब से कुछ जा रहा है !
उल्टे ऐसे बेतुके निर्णयों पर भी उन्हें भारी-भरकम फीस तो चुकाई जाती ही होगी साथ ही तरह-तरह की सरकारी सुविधाएं भी मुहैय्या करवाई जाती होंगी। ऐसे लोगों के नाम भी उजागर होने चाहिए। बहुत इच्छा है ऐसे महानुभावों के नाम और चेहरे देखने जानने की जिनका खुद और उनके परिवार का आवागमन तो कभी-कभार ही धरती से होता हो और होता भी हो तो उन्हें उसके खर्च की जानकारी शायद ही हो ! ऐसे लोगों की न तो रियाया के साथ कोई सहानुभूति होती है ना हीं उसके हालातों पर ! ऐसे लोगों की जानकारी भी पब्लिक को उपलब्ध करवाई जानी चाहिए !
6 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जज साहब के बुरे हाल “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शिवम जी,
आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक धन्यवाद
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-04-2017) को "कर्तव्य और अधिकार" (चर्चा अंक-2955) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी,
हार्दिक आभार
गरीब आदमी को तो जेसे कुचल के रख दिया हो इस सरकार ने.
कहीं से भी इस इंद्रजाल से निकल न पायेगा आम आदमी.
जमीदारों के हवाले से अब तक कि सबसे घटिया सरकार है वर्तमान सरकार.
नई नई सरकार के समय मुझे भी इस पर गर्व था लेकिन अब घृणा होती है.
स्वागत है गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे (ग़जल 3)
रोहितास जी,
ब्लॉग पर आने का शुक्रिया
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