कवि वेंकटाध्वरि रचित ‘राघवयादवीयम्’ एक विलक्षण ग्रंथ है। इस ग्रंथ की विशेषता और अद्भुत खासियत यह है कि इसमें के 30 श्लोकों को अगर सीधे-सीधे पढ़ते जाएं, तो रामकथा बनती है, पर उन्हीं श्लोकों को उल्टा यानी विपरीत क्रम में पढ़ने पर वह कृष्ण-कथा बन जाती है। श्री राम और कृष्ण दोनों के संयुक्त नामों से इस रचना का नामकरण किया गया है। राघव रघु-कुल में जन्मे राम के महाकाव्य रामायण से है और यादव, यदु-कुल में जन्में कृष्ण जी के भागवत को संदर्भित करता है.......!
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हमारा देश अप्रतिम विचित्रताओं, अनोखी परम्पराओं, दुर्लभ सम्पदाओं, विलक्षण प्रतिभाओं, अमूल्य धरोहरों से भरा पड़ा है। सबके बारे में जानने-समझने में अच्छी-खासी उम्र भी कम पड़ जाए।
ऐसे ही इसे विश्व गुरुवत्व का पद प्राप्त नहीं हो गया था। पर आज उत्तम और उचित शिक्षा के अभाव में ज्ञान के बदले सिर्फ आधी-अधूरी जानकारियों की उपलब्धता से उत्पन्न अज्ञानता, अदूरदर्शिता या विदेश-परस्ती के कारण हम अपने उज्जवल अतीत पर ही विश्वास न कर पश्चिम का मुंह जोहने लगे हैं। पर कभी-कभी अज्ञानता के आकाश पर छाए अंधकार पर किसी विद्वान की विलक्षण प्रतिभा की चमक अपनी कौंध से ऐसा प्रकाश बिखेर जाती है कि लोगों की आँखें चौंधिया कर खुली की खुली रह जाती हैं। आज एक ऐसे ही विलक्षण कवि की अद्भुत रचना की जानकारी प्रस्तुत है, जिसको यदि साक्षात पढ़ा या देखा ना जाए तो विश्वास करना मुश्किल है। विद्वान हैं वेंकटध्वरी तथा उनकी अलौकिक रचना का
नाम है "राघवयादवियम"; श्री राम और कृष्ण दोनों के संयुक्त नामों से इस रचना का नामकरण किया गया है। राघव रघु-कुल में जन्मे राम के महाकाव्य रामायण से है और यादव, यदु-कुल में जन्में कृष्ण जी के भागवत को संदर्भित करता है. जिसे सीधा पढ़ा जाए तो राम की रामायण कथा और उल्टा पढ़ा जाए तो कृष्ण की भागवत कथा का वर्णन होता है। अद्भुत है यह रचना और धन्य है इसका रचनाकार, जिसकी विलक्षणता का दुनिया में कोई सानी नहीं है।
नाम है "राघवयादवियम"; श्री राम और कृष्ण दोनों के संयुक्त नामों से इस रचना का नामकरण किया गया है। राघव रघु-कुल में जन्मे राम के महाकाव्य रामायण से है और यादव, यदु-कुल में जन्में कृष्ण जी के भागवत को संदर्भित करता है. जिसे सीधा पढ़ा जाए तो राम की रामायण कथा और उल्टा पढ़ा जाए तो कृष्ण की भागवत कथा का वर्णन होता है। अद्भुत है यह रचना और धन्य है इसका रचनाकार, जिसकी विलक्षणता का दुनिया में कोई सानी नहीं है।
कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि, जिनको अरसनपलै वेंकटाचार्य के नाम से भी जाना जाता है,
द्वारा रचित ग्रंथ ‘राघवयादवीयम्’ एक अद्भुत ग्रंथ है। इस को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। इसको पढ़ कर रचनाकार की संस्कृत की गहन जानकारी, भाषा पर आधिपत्य, अपने विषय में निपुणता और कार्यपटुता का एहसास हो जाता है। इस तरह की रचना कोई महा विद्वान और ज्ञानी विज्ञ ही कर सकता है। इस इस ग्रंथ की विशेषता और अद्भुत खासियत यह है कि इसमें के 30 श्लोकों को अगर सीधे-सीधे पढ़ते जाएं, तो रामकथा बनती है, पर उन्हीं श्लोकों को उल्टा यानी विपरीत क्रम में पढ़ने पर वह कृष्ण-कथा बन जाती है। वैसे तो इस ग्रंथ में केवल 30 श्लोक हैं, लेकिन विपरीत क्रम के 30 श्लोकों को भी जोड़ लेने से 60 श्लोक हो जाते हैं। पुस्तक के नाम, राघवयादवीयम, से ही यह प्रदर्शित होता है कि यह राघव (राम) और यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ।
उदाहरण स्वरुप पुस्तक का पहला श्लोक हैः-
अनुलोम :
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ 1 ॥
अर्थातः मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जो जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंनेअपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।
विलोम :
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ 1 ॥
इस ग्रंथ की रचना महान काव्यशास्त्री श्री वेंकटाध्वरि के द्वारा की गयी थी। जिनका जन्म कांचीपुरम के निकट अरसनपलै नाम के ग्राम में हुआ था। बचपन में ही दृष्टि दोष से बाधित होने के बावजूद वे मेधावी व
कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। उन्होंने वेदान्त देशिक का, जिन्हें वेंकटनाथ (1269–1370) के नाम से भी जाना जाता है तथा जिनकी "पादुका सहस्रम्" नामक रचना चित्रकाव्य की अनुपम् भेंट है, अनुयायी बन काव्यशास्त्र में महारत हासिल कर 14 ग्रन्थों की रचना की, जिनमें 'लक्ष्मीसहस्रम्' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ऐसा कहते हैं कि इस ग्रंथ की रचना पूर्ण होते ही उनकी दृष्टि उन्हें वापस प्राप्त हो गयी थी। उनके विषय में अभी विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है पर खोज जारी है।
"राघवयादवीयम्" एक ऐसा ग्रंथ है जिसका दुनिया-जहान में कोई जोड़ या जवाब नहीं है। इसके रचनाकार को शत-शत प्रणाम। आज कुछ विदेश-परस्त, तथाकथित विद्वान संस्कृत को एक मरती हुई भाषा के रूप में प्रचारित कर अपने आप को अति आधुनिक सिद्ध करने में
प्रयास-रत हैं। क्या कभी उन्होंने ऐसे अद्भुत ग्रंथों के बारे में सुना भी है ? ऐसे लोग एक बार इसका अवलोकन करें और फिर बताएं कि क्या ऐसा कुछ अंग्रेजी में रचा जा सकता है ?
आज जरुरत है इस तरह की अद्भुत रचनाओं को अवाम के सामने लाने की जिससे समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत की विलक्षणता से सभी परिचित हो सकें, उसके महत्व को समझ सकें, उसकी सक्षमता से परिचित हो सकें। आज इसका अंग्रेजी में भी अनुवाद उपलब्ध है।
5 टिप्पणियां:
शास्त्री जी,
हार्दिक आभार !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-04-2017) को "डा. भीमराव अम्बेडकर जयन्ती" (चर्चा अंक-2940) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन डॉ. भीमराव अंबेडकर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
हर्ष जी,
आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक धन्यवाद
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