गुरुवार, 11 जनवरी 2018

फिल्मों को जरुरत है, स्वस्थ दिलो-दिमाग वाले निर्माताओं की

आज एक फिल्म अपनी शुद्ध, भदेश गाली-गलौच वाली भाषा के कारण सुर्ख़ियों में है, जिसके निर्माता का दावा है कि  "स्लैंगी लैंग्वेज समाज की सच्चाई है" ! उसके अनुसार आज के समाज में ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल होता है और आज का दर्शक इसी को पसंद करता है। पता नहीं वह किस समाज में और किन लोगों से घिरा रहता है जो उसकी ऐसी धारणा बन गयी है। फिल्म का तो जो भी हश्र होना होगा, होगा; आवश्यकता है ऐसे लोगों की सोच में बदलाव की.......
#हिन्दी_ब्लागिंग
कोई भी विधा मनुष्य, देश, समाज के लिए तभी उपयोगी या फलदाई होती है जब वह सही हाथों में हो। विकृत सोच तो अर्थ का अनर्थ ही करेगी। ऐसा ही एक सशक्त माध्यम है फ़िल्में; जो भारतीय अवाम पर गहरा असर डालती रही हैं। हमारे यहां इस विधा के एक से बढ़ कर एक जानकार रहे हैं,  जिन्होंने समय-समय पर जनता को बिना किसी खौफ और दवाब के मनोरंजक तरीके से उद्वेलित करने का कारनामा किया है। आज वर्षों बीत जाने के बावजूद लोग बिमल रॉय, शांताराम, राजकपूर, सत्यजीत रे, हृषिकेश मुखर्जी, ताराचंद, बासु चटर्जी, बी आर चोपड़ा जैसे फिल्मकारों को, पचासों साल बीत जाने के बाद भी लोग भुला नहीं पाए हैं। आज भी कुछ लोग हैं जो इस विधा की गरिमा बनाए रखने को लेकर कटिबद्ध हैं। पर इसके साथ ही इस माध्यम से अथाह पैसा बनाने की चाहत कुछ ऐसे तिकड़मी लोगों को भी खींच लाई है। जिनका साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरह एक मात्र उद्देश्य धनोपार्जन होता है। उनको ना हीं समाज से मतलब है ना हीं युवाओं के पथ-भ्रष्टन से ! अपनी विकृत मानसिकता, ओछी सोच, को ही वे अपनी निपुणता मानते हैं। उनके लिए किसी तरह की बंदिश कोई मायने नहीं रखती, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वे कुछ भो उगलने को तैयार रहते हैं, फिर वह चाहे विवादित पट-कथा हो, अश्लील संवाद हों या वैसे ही दृश्य, चाहे वीभत्स खून-खराबा हो या शुद्ध भदेस गाली-गलौच ! गुणवत्ता
तो गयी भाड़ में ! उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि, इसका असर बच्चों या किशोरों पर क्या पडेगा ! परिजन
सपरिवार एक साथ बैठ ऐसी फिल्म देख पाएंगे कि नहीं ! उन्हें मतलब होता है राष्ट्रीय अवकाश या फिर सप्ताहंत के तीन दिनों की कमाई से। इसके लिए उनकी आपसी सर-फोड़ी की ख़बरें आजकल आम होती हैं। कुछ जान-बूझ कर ऐसा विषय चुनते हैं जिस पर सौ प्रतिशत हंगामा होना तय हो। इसके लिए वे तरह-तरह के विवाद पहले से ही खड़े करने लगते हैं, जिसके लिए आजकल विशेषज्ञ भी उपलब्ध हैं, जिनका काम ही होता है लंगड़ी-लूली फिल्म में विवाद की बैसाखी लगाने का। कोई इतिहास में टंगड़ी फंसाता है, तो कोई भाषा का क्रिया-कर्म करने पर उतारू हो जाता है, कोई आस्था-मान्यता से खिलवाड़ करने लगता है तो कोई जनमत की भावनाओं को दांव पर लगा देता है। कोई किसी नेता की छवि को धूमिल करने की बेजा कोशिश करता है तो कोई किसी के चरित्र को लांछित करने का कुप्रयास। आज फ़िल्में सिनेमा हॉल में नहीं बाहर सड़कों पर ही मनोरंजन करने का साधन बन गयी हैं। पर जब लोग उन्हें नापसंद कर देते हैं, नकार देते हैं, तो ऐसे बद-दिमाग लोग अपनी गलती ना मान दर्शकों के ही नासमझ  होने का दावा करने लगते हैं।  

सीधी सी बात यह है कि आज के तथाकथित फिल्म निर्माता को अपने पर बिलकुल भरोसा नहीं है। ज्यादातर
को इस विधा के किसी भी पहलू का पूरा ज्ञान भी नहीं होता। तिकड़म से इकठ्ठा किया गया धन, किसी बड़े स्टार की कुछ डेट का इंतजाम कर फिल्म बनानी शुरू कर दी जाती है। अधिकाँश वर्षों पहले की दो-चार फिल्मों का घालमेल या उनका "रि-मंचन" या फिर  विदेशी चल-चित्रों का हिंदी रूपांतर होता है। यदि कहीं बिल्ली के भाग  छीका टूट जाता है तो मीडिया में जबरदस्त प्रचार कर वह अपने आप को क्रांतिकारी फिल्म-मेकर के रूप में प्रचारित करवा आगे और ब्लंडर करने को तैयार हो जाता है।  

पहले के फिल्म निर्माता की अपनी शैली होती थी, अपनी पहचान होती थी, अपना "ब्रांड" होता था, हरेक का अपना ढंग होता था, स्तर होता था, पूरी विधा पर  पकड़ होती थी। समर्पित थे वे लोग कला के प्रति ! उनकी दो-तीन साल में आने वाली फिल्मों का लोग बेसब्री से इंतजार किया करते थे। उस समय नामी-गिरामी फिल्म निर्माताओं की फ़िल्में कई बार एक साथ रिलीज होती थीं और खूब पसंद की जाती थीं। हरेक को अपनी क्षमता
पर पूरा भरोसा होता था, इसीलिए उनमें से किसी को किसी "क्लैश" का डर नहीं होता था। दस-बीस रुपए की कीमतों वाली 800-900 सीटों वाले एक हॉल में पच्चीस-पचास हफ्ते चलने के बाद सिल्वर या गोल्डन जुबली कहलाती थीं, और आज भी याद की जाती हैं। ऐसा नहीं था कि उस समय स्तर-हीन फ़िल्में नहीं बनती थीं, पर उनकी संख्या कम ही होती थी। 

ऐसा नहीं है कि सब कुछ निराशा जनक हो गया हो; आज भी इस विधा के निष्णात लोग कटिबद्ध हैं इस माध्यम को  नई-नई ऊंचाईंयों तक पहुंचाने के लिए। आज पहले से ज्यादा सुविधाएं, सुरक्षा, तकनीकी उपलब्ध हैं, जिससे गुणवत्ता भी बढ़ी है। फिल्म बनने में अब सालों नहीं लगते। संसार भर में हमारी फ़िल्में नाम कमा रही हैं। इस माध्यम से जुड़े लोगों की पूछ-परख विभिन्न देशों में होने लगी है। 

8 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

अपनी अपनी सोच है
फिल्म कैसी भी हो लोग भी तो मरे जाते हैं देखने के लिए
सबका जिम्मेदार है कहीं न कही

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कविता जी,
वही तो ! हमारे यहां किसी भी गलत काम का यदि हजार आदमी विरोध करते हैं तो सौ उसके पक्ष में भी खड़े हो जाते हैं, उन्हीं सौ की शह पर वह हजारों को नजरंदाज कर अपनी मन-मर्जी करता चलता है !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13-01-2018) को "कुहरा चारों ओर" (चर्चा अंक-2846) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हर्षोंल्लास के पर्व लोहड़ी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, स्वामी विवेकानन्द जी की १५५ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी,
हार्दिक धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार

Jyoti Dehliwal ने कहा…

अच्छी समाज को सही मायने में प्रेरणा देती फिल्मे बननी चाहिए। जिससे समाज में सकारात्मक संदेश जाए। लेकिन ज्यादातर निर्माता बॉक्स ऑफिस को ख्याल में रखते हुए ही फिल्मे बनाते है। सुंदर प्रस्तुति।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ज्योति जी, इन्हें पता रहता है कि इन्होंने कूड़ा बनाया है, इसीलिए उसे ठिकाने लगाने और लागत वापस पाने के लिए विवाद व कुतर्क का सहारा लिया जाता है। अभी एक फिल्म आई थी 'बादशाहो' जिसने एक राजनितिक परिवार की बखिया उधेड़ कर रख दी थी पर प्रचार में कुछ भी नहीं कहा गया। फिल्म आई और चली गयी ! दूसरी तरफ 'इंदु सरकार' की नौटंकी और हश्र सभी के सामने रहा !!

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