मंगलवार, 9 जनवरी 2018

यह अवसाद है या प्रकृति का इशारा, निःस्पृहता के लिए ?

जब साठ-सत्तर की उम्र के बाद, हर सुख, सुविधा, उपलब्धि, निरोगिता के बावजूद मन उचाट रहने लगे, डाक्टरी भाषा में अवसाद जैसी स्थिति बनी रहने लग जाए ! तो क्या यह कहीं प्रकृति का संकेत तो नहीं, कि अब पानी में तेल की बूँद हो जाने का समय आ गया है। धीरे-धीरे अपने आप को निःस्पृह कर वानप्रस्त अपनाने का इशारा हो उसकी तरफ से......... 
#हिन्दी_ब्लागिंग 
कभी-कभी हर सुख, सुविधा, उपलब्धि, निरोगिता के बावजूद मन उचाट हो जाता है। बिना किसी मतलब, नाखुशी या कारण के। तब ना किसी से बात करने की इच्छा होती है, ना ही कोई काम करने की, ना पुस्तकें सुहाती हैं, ना हीं कोई मनोरंजन ! बस चुप-चाप, गुम-सुम, अपने में लीन। जैसे जिंदगी से रूचि खत्म हो गयी हो ! 

छोटी उम्र में या आयु के पचास-साठ वर्षों तक, जब जीवन में ढेरों जिम्मेदारियां होती हैं, परिवार का भार होता है, तब किसी असफलता के कारण कुछ देर के लिए मन ऐसा हो जाता है तो वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।  वैसी स्थिति यदि लंबी खिचने लगे, तो डॉक्टर इसे अवसाद कहते हैं। गौर तलब है कि अनेकों कारण गिनाने के बावजूद इसके किसी निश्चित व ठोस कारण का अभी तक पता नहीं चल पाया है। पर ऐसी स्थिति जब साठ-सत्तर की उम्र के बाद होने लगे तो क्या यह प्रकृति का संकेत तो नहीं, कि अब पानी में तेल की बूँद हो जाने का समय आ गया है। धीरे-धीरे अपने को निःस्पृह कर वानप्रस्त अपनाने का इशारा हो उसकी तरफ से !  

हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य की भलाई के लिए जो भी नियम-कायदे बनाए थे, वे सब उनकी विद्वता, दूरदर्शिता तथा गहन अनुभवों का निचोड़ था। उनका भले ही आजकल के नीम-ज्ञानी मखौल बना कर अपनी अल्प बुद्धि का प्रदर्शन करते हों, पर वे आज भी हमारा मार्ग-दर्शन करने का पूरा माद्दा रखते हैं। उनके द्वारा जीवन की अवधि 100 साल मान कर उसे 25-25 वर्षों के चार भागों में बांट, ब्रह्मचर्य, ग्रृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का नाम दिया गया था। जो हिंदू समाज की जीवन व्यवस्था थी। 
उम्र के प्रथम 25 वर्ष में शरीर, मन और ‍बुद्धि विकसित होते हैं, इसलिए उसे संयमी और अनुशासित रह कर भविष्य की जिम्मेदारियों के लिए तैयार किया जाता था। फिर 25 से 50 वर्ष की आयु में शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी मिल कर पारिवारिक व सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते थे। इसके बाद अधेड़ावस्था की 50 से 75 तक की आयु में गृहस्ती से मुक्त हो जनसेवा, धर्मसेवा, विद्यादान और ध्यान का विधान है। इसे वानप्रस्थ कहा गया है। फिर धीरे-धीरे इससे भी मुक्त हो व्यक्ति को एकांतवासी हो, प्रभु से लौ लगाने की चेष्टा करने का विधान रखा गया था, जिसे सन्यास आश्रम का नाम दिया गया। भले ही इसे प्रभू से जोड़ा गया हो पर वास्तव में इसका उद्देश्य यह रहा होगा कि परिवार से, समाज से अलग रहने पर मनुष्य की मोह-माया कुछ कम हो सके जिससे उसके जाने पर, पीछे छूटे उसके सगे-संबंधियों को उसकी विदाई, उसका विछोह उतना कष्ट ना दे पाए जितना साथ रहते हो सकता है। 

आश्रमों का निर्धारण यूँ ही नहीं किया गया या निर्धारित कर दिया गया था, बल्कि इसके पीछे वर्षों के अनुभव, परिक्षण, शोध, प्रयोग तथा परिणामों का वैज्ञानिक आधार था। मनुष्य के स्वभाव, उसके मनोविज्ञान, उसकी अपेक्षाओं, उसके कर्तव्यों, उसकी आवश्यकताओं तथा उसकी क्षमताओं को देखते हुए सारी व्यवस्था की गयी थी। आज हम सिर्फ उसका शाब्दिक अर्थ ले उसे दरकिनार कर देते हैं जबकि उन पर आज भी अमल किया जाए तो मनुष्य, समाज व देश लाभान्वित हो सकते हैं। 

1 टिप्पणी:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हर्ष जी, आपका और ब्लॉग बुलेटिन हार्दिक धन्यवाद

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