गुरुवार, 14 सितंबर 2017

मच्छर भी "हाईटेक" और "लाइफ कॉन्शस" हो गए हैं

अब यह पहले की तरह ज्यादा गुंजार नहीं करता। इसका आकार भी कुछ छोटा हो गया है। उड़ने की शैली भी कुछ बदल कर सुरक्षात्मक हो गयी है। रक्त रूपी आहार भी कम लेने लगा है। इन सब परिवर्तनों का फायदा इस प्रजाति को मिलने भी लगा है। पहले गले तक रक्त पी, उड़ने से लाचार हो, यह आपके आस-पास ही पड़ा रहता था, चाहे बिस्तर पर या फिर तकिए पर या फिर पास की दिवार पर और देखते-देखते हाथ के एक ही प्रहार से वहीँ चिपक कर रह जाता था। पर अब बदलाव के कारण यह जरुरत के अनुसार भोग लगा.. यह-जा ! वह-जा ! होने लगा है........   
#हिन्दी_ब्लागिंग      
हम इंसान अपनी उपलब्धियों पर ही इतना इतराते और मग्न रहते हैं कि हम अपने आस-पास के जीव-जंतुओं, कीड़े-मकौड़े-कीटाणु-जीवाणुओं की उपलब्धियों पर ध्यान ही नहीं देते। हालांकि हमारी ज्यादती से सैकड़ों प्रजातियां इस दुनिया से विदा ले चुकी हैं और अनेकों का अस्तित्व खतरे में हैं। फिर भी जहां मानव दसियों बीमारियों से ग्रसित हो दम तोड़ देता है वहीँ जीव-जंतु अपने को परिस्थियों के अनुसार ढाल लेते हैं ! कभी सोचा है कि तिलचिट्टा (Cockroach) हजारों हजार साल से, एक से एक विकट परिस्थियों के बावजूद कैसे बचा हुआ है ! कैसे कछुआ दशकों तक जीवित रह जाता है। कैसे हीमांक के नीचे या जानलेवा तपिश में भी प्राणी जिंदगी को गले लगाए रखते हैं, बिना किसी अप्राकृतिक साधन के ! कैसे प्राकृतिक आपदाओं में मनुष्यों की मौत ज्यादा होती है बनिस्पत दूसरे प्राणियों के ! कैसे छोटे-छोटे तुच्छ कीटाणु-जीवाणु कीट नाशकों के प्रति प्रतिरक्षित हो जाते हैं।  है ना आश्चर्य की बात !!

मच्छर को ही लें ! एक-डेढ़ मिलीग्राम के इस दंतविहीन कीड़े ने वर्षों से हमारे नाक में दम कर रखा है। करोड़ों-अरबों रूपए इसको नष्ट करने के उपायों पर खर्च करने के बावजूद इसकी आबादी कम नहीं हो पा रही है। तरह-तरह की सावधानियां, अलग-अलग तरह के उपाय आजमाने के बावजूद साल में करीब चार लाख के ऊपर मौतें इसके कारण हो जाती हैं। इतने लोग तो मानव ने आपस में लडे गए युद्धों में भी नहीं खोए ! मच्छर तथा मलेरिया पर वर्षों से इतना लिखा पढ़ा गया है कि एक अच्छा खासा महाकाव्य बन सकता है। 1953 में इस रोग की रोकथाम के उपायों की शुरुआत की गयी, जिसे 1958 में एक राष्ट्रीय कार्यक्रम का रूप दे दिया गया। पर नतीजा शून्य बटे सन्नाटा ही रहा। सरकारें थकती नहीं नियंत्रण की बात करने में और उधर मच्छर भी डटे हैं रोगियों की संख्या बढ़ाने मेँ। अब तो यह भी खबर है कि ज़िंदा तो जिंदा मरे हुए मच्छर के रोएं इत्यादि भी इंसान की सांस के साथ शरीर में प्रवेश कर तरह-तरह की एलर्जी से ग्रसित करवा देते हैं। 

मच्छर तथा मच्छरी दोनों फूल-पत्ती इत्यादि का रस पी कर ही जीते हैं; पर मादा को प्रोटीन की आवश्यकता
होती है जिसे वह मानव व दूसरे जीवों के रक्त से पूरा करती है। वैसे एक कहावत है "नारी ना सोहे नारी के रूपा" मच्छरी इस बात की हिमायतिन है, वह अपनी सम-लिगिंयों से ख़ास बैर रखती है। वैज्ञानिकों के अनुसार महिलाओं के पसीने में एक विशेष गंध होती है। वही मच्छरों को अपनी ओर आकर्षित करती है और  इसके साथ ही लाल रंग या रोशनी भी इन्हें बहुत लुभाती है।  
 पर इधर अपने भार से तीन गुना ज्यादा रक्त पी, कुछ समय के लिए अजगर के समान पड जाने वाले इस कीट में कुछ बदलाव सा नजर आने लगा है। खासकर दिल्ली में। तटीय क्षेत्रों में शायद यह "वैज्ञानिक बदलाव" अभी नहीं पहुंचा है ! अब लग रहा है कि यह पहले की तरह ज्यादा गुंजार नहीं करता। इसका आकार भी कुछ छोटा हो गया है। उड़ने की शैली भी कुछ बदल कर सुरक्षात्मक हो गयी है। एक बार में रक्त रूपी आहार की खुराक भी कम लेने लगा है। इन सब परिवर्तनों का फायदा इस प्रजाति को मिलने भी लगा है। पहले गले तक रक्त पी कर, उड़ने से लाचार हो, यह आपके आस-पास ही पड़ा रहता था, चाहे बिस्तर पर या फिर तकिए पर या फिर पास की दिवार पर और देखते-देखते हाथ के एक ही प्रहार से वहीँ चिपक कर रह जाता था। पर अब बदलाव के कारण यह
जरुरत के अनुसार, भोग लगा यह-जा ! वह-जा ! होने लगा है। लगता है इन्होंने भी अपने को बचाने के लिए काफी शोध किए हैं। जिससे ये  "हाईटेक" और "लाइफ कॉन्शस" हो गए हैं। पहले "फ्लिट" की एक ही बौछार से इसके सैंकड़ों साथी भू-लुंठित हो जाया करते थे; वहीँ अब इस पर किसी भी धूम्र, द्रव्य या क्रीम का उतना प्रभाव नहीं पड़ता। कोई माने या ना माने पर जिस कीट को इतनी समझ है कि अपने डंक के साथ एक ऐसा रसायन अगले के शरीर में छोड़ता है जिससे रक्त अपने जमने की विशेषता कुछ समय के लिए खो बैठता है और उतनी देर में यह खून चूस, किटाणु छोड़ हवा हो जाता है ! तो क्या, उसने समय के साथ-साथ अपनी सुरक्षा के बारे में शोध नहीं किया होगा !      

जितना पैसा दुनिया भर की सरकारें इस कीट से छुटकारा पाने पर खर्च करती हैं; वह यदि बच जाए तो दुनिया में कोई इंसान भूखा नंगा नहीं रह जाएगा। इससे बचने का उपाय यही है कि खुद जागरूक रह कर अपनी सुरक्षा आप ही की जाए। क्योंकि ये महाशय "देखन में छोटे हैं पर घाव करें गंभीर"।  

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-09-2017) को
"हिन्दी से है प्यार" (चर्चा अंक 2729)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी,
स्नेह बना रहे।

Sweta sinha ने कहा…

वाह्ह...रोचक....छोटी छोटी बारीकियों पर खूब विश्लषणात्मक लिखा,नयी जानकारी देने के लिए आभार आपका।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

धन्यवाद, श्वेता जी

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन श्रद्धांजलि : एयर मार्शल अर्जन सिंह और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक धन्यवाद

Pammi singh'tripti' ने कहा…

मच्छरनामा पर विश्लेषणात्मक प्रस्तुति बहुत ही रोचक है।
आभार।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

पम्मी जी,
आभार

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...