फिर वही हुआ जो होना लाज़िमी था, एक दिन घर लौटते ही छींकों की लड़ी ने आँख-नाक के सारे रास्ते खोल दिए, शरीर की टंकी में जमा पानी ऐसे बहने लगा जैसे किसी वाशर के खराब हो जाने पर नल से पानी टपकता रहता है
पिछले दिनों दिल्ली अपने पर्यावरण के कारण काफी चर्चा में रही थी। सही कहें तो उसने दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर होने का खिताब पाते ही, "बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ" वाले मुहावरे को सही सिद्ध कर दिया। वर्षों-वर्ष बीत गए, चाहे कहीं भी रहूं, मुझ पर बदलता मौसम कभी भी अपना असर नहीं डाल पाया। ऐसा नहीं है कि कभी सर्दी-जुकाम हुआ ही ना हो पर बदलता मौसम कभी परेशान नहीं कर पाया। पर इस बार उसकी जीत हो ही गयी।
पिछले दिनों दिल्ली अपने पर्यावरण के कारण काफी चर्चा में रही थी। सही कहें तो उसने दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर होने का खिताब पाते ही, "बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ" वाले मुहावरे को सही सिद्ध कर दिया। वर्षों-वर्ष बीत गए, चाहे कहीं भी रहूं, मुझ पर बदलता मौसम कभी भी अपना असर नहीं डाल पाया। ऐसा नहीं है कि कभी सर्दी-जुकाम हुआ ही ना हो पर बदलता मौसम कभी परेशान नहीं कर पाया। पर इस बार उसकी जीत हो ही गयी।
यूं तो दिल्ली का वातावरण, बरसात के कुछ दिनों को छोड़ सदा प्रदूषित ही रहता है। यहां के वाशिंदे इसके साथ रहने के, मजबूरीवश ही सही, आदी हो गए हैं। उनकी इसी आदत का फायदा यहां का प्रशासन और प्रशासक दोनों उठाते रहे हैं। इस बार अक्टुबर के खत्म होते-होते शाम के समय ठंड की पदचाप सुनाई देने लगी थी।दिल्ली और आस-पास के इलाके धूएं, धूल और कोहरे की कोठरी में सिमटने लग गए थे। दिवाली की रात के बाद जब लोग सुबह अलसाए से उठे तो पाया कि सारा शहर उस कोठरी के दम-घोंटू माहौल के बदले "स्मॉग" के गहरे, मोटे, अपारदर्शी जान-लेवा गैस-चैंबर में कैद हुआ पड़ा है। पहले दिवाली के एक-दो दिन बाद मौसम में बदलाव आ जाता था पर इस बार जैसे यह स्थाई हो कर रह गया था। आँखों में जलन, गले में खराश, सीने में घुटन, सर्दी-जुकाम-खांसी से लोग परेशान हो गए। मरीजों की अस्पतालों में लाइनें लग गयीं। स्कूल बंद कर
दिए गए। अस्वस्थ, बुजुर्गों को घर में ही रहने की सलाह दी गयी। एक अघोषित आपातकाल सा लागू हो गया।
हर तरह के लाभ-हानि, सलाह-उपदेश, जोड़-घटाव के बावजूद मुझसे कभी सुबह की सैर का आंनद स्थाई तौर पर नहीं लिया जा सका। इसीलिए शाम के समय मैंने घूमने की आदत बना रखी थी जो इन दिनों भी जारी थी। इधर सूरज ढलते ही पार्कों में धूएं-धूल की मोटी परत का शामियाना तनने लग गया था। उसके संभावित खतरे के अंदेशे-अंदाजे के होने-लगने के बावजूद बाहर निकलना जारी रहा। फिर वही हुआ जो होना लाज़िमी था, एक दिन घर लौटते ही छींकों की लड़ी ने आँख-नाक के सारे रास्ते खोल दिए, शरीर की टंकी में जमा पानी ऐसे बहने लगा जैसे किसी वाशर के खराब हो जाने पर नल से पानी टपकता रहता है। अब रूमालों की जरुरत और नाक की हालत का हाल मत ही पूछिएगा !
हर तरह के लाभ-हानि, सलाह-उपदेश, जोड़-घटाव के बावजूद मुझसे कभी सुबह की सैर का आंनद स्थाई तौर पर नहीं लिया जा सका। इसीलिए शाम के समय मैंने घूमने की आदत बना रखी थी जो इन दिनों भी जारी थी। इधर सूरज ढलते ही पार्कों में धूएं-धूल की मोटी परत का शामियाना तनने लग गया था। उसके संभावित खतरे के अंदेशे-अंदाजे के होने-लगने के बावजूद बाहर निकलना जारी रहा। फिर वही हुआ जो होना लाज़िमी था, एक दिन घर लौटते ही छींकों की लड़ी ने आँख-नाक के सारे रास्ते खोल दिए, शरीर की टंकी में जमा पानी ऐसे बहने लगा जैसे किसी वाशर के खराब हो जाने पर नल से पानी टपकता रहता है। अब रूमालों की जरुरत और नाक की हालत का हाल मत ही पूछिएगा !
जुकाम को कोई बिमारी ही नहीं मानता। पर जिसे जकड़ता है उसकी ऐसी की तैसी कर डालता है। पहले कहा जाता था कि इसके होने पर यदि डाक्टर के पास जायें तो यह तीन दिन में ठीक हो जाता है पर यदि कुछ ना भी करें तो यह अपने-आप 72 घंटे में ठीक हो जाता है। पर आजकल यह भी थोड़ा "ढीठ" हो गया है और अब कम से कम पांच दिन का अनचाहा मेहमान तो बन ही जाता है। तो इस अतिथि को पांच दिनों बाद विदा कर अब चैन की सांस ली है।
2 टिप्पणियां:
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति मौलाना अबुल कलाम आजाद और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
Harshvardhan ji,
Aabhar
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