इस बार के ओलिम्पिक को लेकर खेल संस्थानों ने भी बड़े-बड़े दावे पेश कर हमारी उम्मीदें बढ़ाई हुई थीं। पर कारण कुछ भी हो नतीजों का आशानुरूप ना होना सबको मायूस कर गया। यही मायूसी कुंठा बन कइयों की भड़ास बन गयी। जो कि होना नहीं चाहिए था। पर जब तक खेल से जुड़े, निष्पक्ष, समर्पित लोगों और खिलाड़ियों का जुड़ाव, सलाह या संरक्षण खेलों को प्राप्त नहीं होगा तब तक अपने यहां किसी फेल्प्स, किसी बोल्ट, किसी रिसाको या रूथ का पनपना या उसकी कल्पना करना ही बेमानी होगा....
खेलों का महाकुंभ इतिहास में दर्ज हो गया। पिछले, यानी 2012 के लंदन में हुए ओलिम्पिक में अपनी उपलब्धियों को देखते हुए इस बार सारा देश बहुत ही उत्साहित था। हर कोई पिछली बार से और ज्यादा पदकों की आशा लगाए बैठा था। खेल संस्थानों ने भी बड़े-बड़े दावे पेश कर हमारी उम्मीदें बढ़ाई हुई थीं। पर कारण कुछ भी हो नतीजों का आशानुरूप ना होना सबको मायूस कर गया। यही मायूसी कुंठा बन कइयों की भड़ास बन गयी। जो कि होना नहीं चाहिए था। किसी को भी भूलना नहीं चाहिए कि इतने बड़ी प्रतिस्पर्धा में भाग लेने वाले पर, अपनी कला में पारंगत होने के बावजूद, कितना बड़ा मानसिक दवाब रहता है, जो उनके प्रदर्शन पर प्रभाव डालता है। वह तो कोई-कोई बिरला खिलाड़ी ही होता है जो अपनी अदम्य इच्छाशक्ति और लौह समान हौसलों से हर विषम परिस्थिति को धत्ता बता अपना लक्ष्य हासिल करने का माद्दा रखता है।
ऐसे समय जब प्रत्येक भारतवासी के मन में टीस सी है, तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता खेल के नतीजों से या लोगों की निराशा से। इन्हें नाहीं खिलाड़ियों पर भड़ास निकालने वाले जानते हैं नाहीं देश के लोगों को उनका नाम मालुम है। ये वे लोग हैं जो येन-केन-प्रकारेण अपने सरपरस्तों, आकाओं या रसूखदार रिश्तेदारों की वजह से सुयोग हथिया वहां का हिस्सा बन बैठते हैं पर वहां भी अपनी जिम्मेदारियों से बाज आते ही दिखते हैं, नहीं तो क्या कारण था कि ओलिंम्पिक मैराथॉन जैसी कठिनतम स्पर्धा में भाग लेने वाली 'जैशा' को दौड़ के दौरान पानी तक उपलब्ध करवाने के लिए कोई उपस्थित नहीं था ! विषम परिस्थियों और तेज गर्मी में उसने कैसे दौड़ पूरी की होगी वही जानती है ! जबकि इक्के-दुक्के खेल में मिली सफलता में अपनी उपस्थिति दर्शाने को बेताब ऐसे लोगों को नियमों की अवहेलना करने के कारण शर्मिंदा होना पड़ा था। ऐसे ही लोगों की उपस्थिति खिलाड़ियों का मनोबल कमजोर करने में भी कोई कसर नहीं छोडती। पर इनके दब-दबे से आतंकित-आशंकित ना तो मिडिया ही ज्यादा कुछ बोलता है ना हीं खिलाड़ियों को "साफ्ट टार्गेट" मान उन पर तंज कसने वाले लोग ! पर समय के अनुसार अब धीमी-धीमी, कहीं-कहीं, कभी-कभी ही सही आवाज उठने लगी है कि राजनीति और राजनेताओं को खेलों से दूर ही रखा जाए। पर सोने की मुर्गी को कोई भी छोडना नहीं चाहता ! क्रिकेट का उदाहरण हमारे सामने है। जबकि देश भर के सरकारी संस्थानों या सरकारी संरक्षता में चल रहे किसी भी उद्यम का हाल किसी से छिपा नहीं है। इसलिए जब तक खेलों को निष्णात, निष्पक्ष, समर्पित लोगों और खिलाड़ियों का जुड़ाव, सलाह या संरक्षण प्राप्त नहीं होगा तब तक अपने यहां किसी फेल्प्स, किसी बोल्ट, किसी रिसाको या रूथ का पनपना या उसकी कल्पना करना ही बेमानी होगा।
1 टिप्पणी:
पता नहीं सरकारी महकमे में आते ही लोगों के दिलो-दिमाग तंग और कुंद क्यों हो जाते हैं !
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