सोमवार, 29 अगस्त 2016

श्री कृष्ण-अर्जुन युद्ध

यदि स्वामिभक्ति और सखा प्रेम की बात की जाए तो इनमें सर्वोच्च स्थान राम-हनुमान और श्री कृष्ण-अर्जुन को प्राप्त है। हनुमान जी जैसी निष्ठा और अर्जुन जैसे समर्पण से बढ़ कर और कोई उदाहरण नहीं मिलता। भक्ति और दोस्ती का चरमोत्कर्ष है। पर आश्चर्य की बात है कि पौराणिक कथाओं में इन को भी अपने वचन और धर्म की रक्षार्थ एक दूसरे के विरुद्ध अस्त्र उठाते बताया गया है

हमारे ग्रन्थ, पुराण, काव्य, महाकाव्य सब विभिन्न तरह की रोचक, उपदेशात्मक, मार्गदर्शक, नीतिवान, ज्ञानवर्धक कथाओं से भरे पड़े हैं। पर कहीं-कहीं कुछ ऐसी कथाएं भी मिलती हैं जो रोचक होने के साथ-साथ विस्मयकारी भी होती हैं। ऐसी ही दो कथाएं हैं जिनमें अपने वचन और धर्म को निभाने के लिए भक्त को अपने इष्ट के विरुद्ध, या यूँ कहिए कि आम आदमी को सर्वोच्च सत्ता के सामने खड़ा होने की प्रेणना देती हैं। आज यदि स्वामिभक्ति और सखा प्रेम की बात की जाए तो इनमें सर्वोच्च स्थान राम-हनुमान और श्री कृष्ण-अर्जुन को प्राप्त है। हनुमान जी जैसी निष्ठा और अर्जुन जैसे समर्पण से बढ़ कर और कोई उदाहरण नहीं मिलता। भक्ति और दोस्ती का चरमोत्कर्ष है। पर आश्चर्य की बात है कि पौराणिक कथाओं में इन को भी अपने वचन और धर्म की रक्षार्थ एक दूसरे के विरुद्ध अस्त्र उठाते बताया गया है। आज पहले वह कथा जिसमें अर्जुन को अपने सबसे प्रिय सखा, संरक्षक, मार्गदर्शक, जीवन रक्षक श्री कृष्ण के सामने युद्ध के लिए खड़ा होना पड़ा था।       
एक बार महर्षि गालव जब प्रात: सूर्यार्घ्य दे रहे थे तभी उनकी अंजलि में आकाश मार्ग से जाते हुए चित्रसेन नामक गंधर्व की थूकी हुई पीक गिर गई। इससे मुनि को क्रोध आ गया। वे उसे शाप देना चाहते थे पर अपनी साधना की हानि होने के भय से उन्होंने जाकर भगवान श्रीकृष्ण से सारी बात बता चित्रसेन को दंड देने को कहा। श्री कृष्ण ने भी गंधर्व की धृष्टता को देखते हुए चौबीस घण्टे के भीतर  उसका वध कर देने की शपथ ले ली। कुछ ही देर बाद वहां देवर्षि नारद पहुंच गए और प्रभू को चिंतित देख उसका कारण पूछने पर श्री कृष्ण ने गालव जी के प्रसंग और अपनी प्रतिज्ञा बता दी। अब नारद मुनि ठहरे नारद मुनि उन्होंने यह बात जा कर चित्रसेन को बता अपनी रक्षा का उपाय करने को कहा। उसने हर जगह जा अपनी रक्षा की गुहार लगाईं पर श्री कृष्ण से कौन दुश्मनी मोल लेता।  हार कर वह फिर नारद की ही शरण में आया जिन्होंने उसे सुभद्रा के पास जा, पहले अपनी रक्षा की प्रतिज्ञा करवा तब पूरी बात बताने को कहा। सारी बात जान सुभद्रा धर्मसंकट में पड़ गयी फिर भी उसने  अर्जुन को सारी बात बता दी। भाग्यवश चित्रसेन अर्जुन का भी मित्र था फिर सुभद्रा का वचन पूरा करना था, अर्जुन पेशोपेश में था फिर भी उसने गंधर्व को  बचाना ही धर्मयुक्त समझा। यह बात जान नारद मुनि ने द्वारका जा श्री कृष्ण को सारी वस्तुस्थिति से अवगत करवा दिया। प्रभू ने नारद को फिर एक बार अर्जुन को समझाने के लिए भेजा पर अर्जुन ने सब सुनकर कहा कि मैं हर समय श्रीकृष्ण की ही शरण में हूं, मेरे पास उन्हीं का बल है, पर उनके दिए हुए क्षात्र धर्म के उपदेश के कारण मैं अपनी बात से विमुख नहीं हो सकता। मैं उनके बल पर ही अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करूंगा। हाँ, प्रभू समर्थ हैं, वे चाहें तो अपनी प्रतिज्ञा छोड़ सकते हैं। देवर्षि ने आ कर फिर सारी बात प्रभू को बताई ! अब क्या था, तुमुल युद्ध छिड़ गया। बड़ी घमासान लड़ाई हुई। पर कोई जीत नहीं सका। अंत में श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो सुदर्शन चक्र छोड़ा, इधर अर्जुन ने पाशुपातस्त्र छोड़ दिया। पर प्रलय के लक्षण देखकर अर्जुन को अपनी भूल का एहसास 
 हुआ और उसने भगवान शंकर को स्मरण कर भूल निवारण करने की प्रार्थना की। शिव जी ने दोनों शस्त्रों को रोका और  फिर वे भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और बोले, भक्तों की बात के आगे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाना तो आपका सहज स्वभाव है, ऐसा कई बार  हुआ है। अब इस लीला को यहीं समाप्त कीजिए। प्रभु युद्ध से विरत हो गए। अर्जुन को गले लगाकर उसके घावों को दूर किया तथा चित्रसेन को भी अभय-दान दिया। 

पर गालव ऋषि को यह बात अच्छी नहीं लगी। उनके अपमान का परिमार्जन नहीं हुआ था।  उन्होंने क्रोध में आकर कहा कि मैं अपनी शक्ति प्रकट कर कृष्ण, अर्जुन, सुभद्रा समेत चित्रसेन को भस्म कर दूँगा ! ऋषि के क्रोध से सभी सकते में  आ गए, पर उन्होंने ज्यों ही जल हाथ में लिया, सुभद्रा बोल उठी, मैं यदि कृष्ण की भक्त होऊं और अर्जुन के प्रति मेरा पातिव्रत्य पूर्ण हो तो यह जल ऋषि के हाथ से पृथ्वी पर न गिरे। ऐसा ही हुआ। तब तक गालव ऋषि को भी अपनी भूल समझ में आ गयी थी। उन्होंने प्रभु को नमस्कार कर क्षमा मांगी और अपने स्थान पर लौट गए। 

कल, क्यों हनुमान जी को राम जी के सम्मुख खड़ा होना पड़ा 

1 टिप्पणी:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कथाएं, कहानियां कुछ न कुछ सीख जरूर देती हैं। अब यह घटना यदि हुई होगी तो यूं ही नहीं घटी होगी, प्रभू अपनी लीला यूँ ही नहीं करते। इसमें भले ही नारद मुनि को इधर की बात उधर करते बताया गया हो पर उसमें भी भगवान् की इच्छा ही सर्वोपरि होगी। हो सकता है कि यह सब गंधर्व चित्रसेन के अहंकार को ख़त्म करने के लिए किया गया हो या फिर गालव ऋषि के क्रोध को। युद्ध तो सिर्फ माध्यम रहा होगा लीला के मंचन का।

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