इतनी व्यस्तता, उठा-पटक, भाग-दौड़ से शरीर का थोड़ा नासाज होना भी बनता है, हुआ भी है। पर उसे प्यार से समझाना पड़ा है कि अगले हफ्ते पड़ने वाले तीन अवकाशों में हमें सालासर के बालाजी महाराज के दर्शनों का संकल्प भी पूरा करना है, सो भाई हमारा साथ ना छोडना, ज़रा ठीक ही रहना !!
बहुत दिनों के बाद आप सब से फिर रूबरू होने का मौका मिला है। पिछले एक-दो महीने में काफी कुछ घटित हुआ, बड़े बदलाव आए जिनके दौरान छोटा बेटा परिणय-सुत्र में बंध गया, अपने जीवन की एक नई शुरुआत करने के लिए। घर में एक नए सदस्य का आगमन हुआ है। बिटिया को नए परिवेश, नए संबंध, नए लोगों से तालमेल बैठाना है। वैसे आजकल की पीढ़ी को उतना वक्त नहीं लगता इन सब बातों में जितना पहले लगा करता था। फिर भी एक-दूसरे के अनुसार ढलने में कुछ समय तो लग ही जाता है।
घर में सदस्य बढे तो ज्यादा जगह की आवश्यकता भी महसूसी गयी, उसी के लिए फिर एक बड़े घर की तलाश ख़त्म की गयी। शायद मुझे प्रभु की देन है कि मैं बीती-बितायी पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। जो आज है वही सच है। पर कभी-कभी पुरानी दबी-ढकी कोई कसक, टीस दे ही जाती है। यह रोज-रोज खानाबदोशों की तरह बोरिया-बिस्तर समेटते-बिछाते, राजौरी गार्डन के करीब चार सौ गज में बने घर की याद आ ही जाती है ! जिसे पता नहीं किस ग्रह-दशा में, बिना ज्यादा सोचे-समझे बेच-बाच कर दिल्ली छोड़ दी थी। समय चक्र घूमा, फिर उसने बीस-बाइस साल बाद वहीँ ला पहुंचाया। मेरी कोशिश रहती है कि भूली-बिसरी यादें ताजा ना ही हों, पर परिवार का क्या किया जाए, जो रोज-रोज की उठा-पटक और आसमान छूते मकान के किरायों की वजह से तंग आ कुरेद ही देता है पिछली घटनाओं को ! पर कहावत है ना कि कोई अक्लमंदी से कमाता नहीं और ना कोई बेवकूफी से गंवाता है। सब होनी के वश में है, जो होना होता है, वह हो कर ही रहता है।
इसी सब में जो पिछले महीने से व्यस्तता शुरू हुई वह अभी भी पूर्णरूपेण ख़त्म नहीं हुई है। बेटे की शादी के बाद ईश्वर की अनुकंपा से प्रभू त्र्यम्बकेश्वर के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चारों मेट्रो शहरों में से बचे एक मुंबई की भी आंशिक यात्रा हो गयी। जिसके साथ-साथ नासिक और पुणे का भी भ्रमण हो गया। लौटते ही, पहले से तय, भतीजे अतुल, जिसे जब पिछली बार देखा था तब वह गोदी में हुआ करता था, की शादी में चंडीगढ़ के पास पंजाब के जिरकपुर का भी चक्कर लगाना हुआ। समय कैसे फिसलता चला जाता है !! यह तो भला हो आधुनिक तकनीक का, जिससे दूर-दराज बैठे हुए भी एक-दूसरे के हाल-चाल की जानकारी मिलती रहती है। इसी भाग-दौड़ के बीच जो भी समय मिलता उस में नयी जगह में "शिफ्टिंग" भी बदस्तूर जारी रही, जहां अभी भी सामान का जमना-ज़माना चल ही ही रहा है।
इतनी व्यस्तता, उठा-पटक, भाग-दौड़ से शरीर का थोड़ा नासाज होना भी बनता है, हुआ भी है। पर उसे प्यार से समझाना पड़ा है कि अगले हफ्ते पड़ने वाले तीन अवकाशों में हमें सालासर के बालाजी महाराज के दर्शनों का संकल्प भी पूरा करना है, सो भाई हमारा साथ ना छोडना, ज़रा ठीक ही रहना !!
लगता तो है कि तन ने बात मान ली है, अब मन और धन भी सकारात्मक रहें इसलिए प्रभू की इच्छा, अनुकम्पा और वरदहस्त की आकांक्षा है।
बहुत दिनों के बाद आप सब से फिर रूबरू होने का मौका मिला है। पिछले एक-दो महीने में काफी कुछ घटित हुआ, बड़े बदलाव आए जिनके दौरान छोटा बेटा परिणय-सुत्र में बंध गया, अपने जीवन की एक नई शुरुआत करने के लिए। घर में एक नए सदस्य का आगमन हुआ है। बिटिया को नए परिवेश, नए संबंध, नए लोगों से तालमेल बैठाना है। वैसे आजकल की पीढ़ी को उतना वक्त नहीं लगता इन सब बातों में जितना पहले लगा करता था। फिर भी एक-दूसरे के अनुसार ढलने में कुछ समय तो लग ही जाता है।
घर में सदस्य बढे तो ज्यादा जगह की आवश्यकता भी महसूसी गयी, उसी के लिए फिर एक बड़े घर की तलाश ख़त्म की गयी। शायद मुझे प्रभु की देन है कि मैं बीती-बितायी पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। जो आज है वही सच है। पर कभी-कभी पुरानी दबी-ढकी कोई कसक, टीस दे ही जाती है। यह रोज-रोज खानाबदोशों की तरह बोरिया-बिस्तर समेटते-बिछाते, राजौरी गार्डन के करीब चार सौ गज में बने घर की याद आ ही जाती है ! जिसे पता नहीं किस ग्रह-दशा में, बिना ज्यादा सोचे-समझे बेच-बाच कर दिल्ली छोड़ दी थी। समय चक्र घूमा, फिर उसने बीस-बाइस साल बाद वहीँ ला पहुंचाया। मेरी कोशिश रहती है कि भूली-बिसरी यादें ताजा ना ही हों, पर परिवार का क्या किया जाए, जो रोज-रोज की उठा-पटक और आसमान छूते मकान के किरायों की वजह से तंग आ कुरेद ही देता है पिछली घटनाओं को ! पर कहावत है ना कि कोई अक्लमंदी से कमाता नहीं और ना कोई बेवकूफी से गंवाता है। सब होनी के वश में है, जो होना होता है, वह हो कर ही रहता है।
इसी सब में जो पिछले महीने से व्यस्तता शुरू हुई वह अभी भी पूर्णरूपेण ख़त्म नहीं हुई है। बेटे की शादी के बाद ईश्वर की अनुकंपा से प्रभू त्र्यम्बकेश्वर के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चारों मेट्रो शहरों में से बचे एक मुंबई की भी आंशिक यात्रा हो गयी। जिसके साथ-साथ नासिक और पुणे का भी भ्रमण हो गया। लौटते ही, पहले से तय, भतीजे अतुल, जिसे जब पिछली बार देखा था तब वह गोदी में हुआ करता था, की शादी में चंडीगढ़ के पास पंजाब के जिरकपुर का भी चक्कर लगाना हुआ। समय कैसे फिसलता चला जाता है !! यह तो भला हो आधुनिक तकनीक का, जिससे दूर-दराज बैठे हुए भी एक-दूसरे के हाल-चाल की जानकारी मिलती रहती है। इसी भाग-दौड़ के बीच जो भी समय मिलता उस में नयी जगह में "शिफ्टिंग" भी बदस्तूर जारी रही, जहां अभी भी सामान का जमना-ज़माना चल ही ही रहा है।
इतनी व्यस्तता, उठा-पटक, भाग-दौड़ से शरीर का थोड़ा नासाज होना भी बनता है, हुआ भी है। पर उसे प्यार से समझाना पड़ा है कि अगले हफ्ते पड़ने वाले तीन अवकाशों में हमें सालासर के बालाजी महाराज के दर्शनों का संकल्प भी पूरा करना है, सो भाई हमारा साथ ना छोडना, ज़रा ठीक ही रहना !!
लगता तो है कि तन ने बात मान ली है, अब मन और धन भी सकारात्मक रहें इसलिए प्रभू की इच्छा, अनुकम्पा और वरदहस्त की आकांक्षा है।
6 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-08-2016) को "तूफ़ान से कश्ती निकाल के" (चर्चा अंक-2430) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी, हार्दिक धन्यवाद
Ishwar sath dete hain..sab bhala hoga.
जब कुछ नहीं था तब भी वह था, जब कुछ नहीं रहेगा तब भी वह रहेगा, पर इन्सान का मन ही डोल जाता है!!!
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डेंगू निरोधक दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
आभार, हर्षवर्धन जी
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