कभी-कभी तो मन में यह संशय भी सर उठाता है कि क्या पानी की यह कमी प्रायोजित तो नहीं है ?क्योंकि हम आकंठ भ्रष्टाचार में इस तरह लिप्त हैं कि हमें खुद के लाभ की बजाए और कुछ भी सुझाई नहीं देता है ! याद आते है, अस्सी के दशक की गर्मियों के वे दिन जब रेलवे स्टेशनों पर पानी की उपलब्धता जान-बूझ कर रोक दी जाती थी जिससे प्यासे यात्रियों को मजबूरी में ऐसे-वैसे बोतलबंद ठंडे पेय को अनाप-शनाप कीमत चुकता कर खरीदना पड़ता था
हम लोग सकारात्मक सोच वाले, वर्तमान में जीने वाले लोग हैं। हम उन मनोवैज्ञानिकों के अनुयायी हैं जो कहते हैं जब तक समस्या सामने न हो उस के बारे में मत सोचो ! तो लो जी, बरसात आ गयी तो सरकार ने भी राहत की सांस ले विगत पानी की समस्या को ठंडे बस्तों में डाल देना है। पानी पर गुल-गपाड़ा मचाने वाले मीडिया में अब दूसरे-तीसरे मुद्दे उछलने लगेंगे। लोग वैसे ही कारें धोते रहेंगे। संत्रीयों-मंत्रियों के लॉन हरियाए जाते रहेंगे, सार्वजनिक नलों से टोंटी ना होने की वजह से पानी, पानी की तरह बहता रहेगा। बरसात के पानी को अभी कोई संजोने की नहीं सोचेगा। नदियां उफनने लगेंगी, बाढ़ से तबाही मचेगी, पर अभी, सभी, आगामी गर्मियों तक इस बेशकीमती प्राकृतिक देन का मोल फिर नहीं समझेंगे।
हम लोग सकारात्मक सोच वाले, वर्तमान में जीने वाले लोग हैं। हम उन मनोवैज्ञानिकों के अनुयायी हैं जो कहते हैं जब तक समस्या सामने न हो उस के बारे में मत सोचो ! तो लो जी, बरसात आ गयी तो सरकार ने भी राहत की सांस ले विगत पानी की समस्या को ठंडे बस्तों में डाल देना है। पानी पर गुल-गपाड़ा मचाने वाले मीडिया में अब दूसरे-तीसरे मुद्दे उछलने लगेंगे। लोग वैसे ही कारें धोते रहेंगे। संत्रीयों-मंत्रियों के लॉन हरियाए जाते रहेंगे, सार्वजनिक नलों से टोंटी ना होने की वजह से पानी, पानी की तरह बहता रहेगा। बरसात के पानी को अभी कोई संजोने की नहीं सोचेगा। नदियां उफनने लगेंगी, बाढ़ से तबाही मचेगी, पर अभी, सभी, आगामी गर्मियों तक इस बेशकीमती प्राकृतिक देन का मोल फिर नहीं समझेंगे।
आज पूरे देश में नागरिकों को पानी एक निश्चित अवधी के लिए ही उपलब्ध करवाया जाता है। जिसमे कभी-कभी तकनीकी कारणों से नागा भी पड़ जाता है जिसकी आशंका से लोग जरुरत से ज्यादा पानी का भंडारण कर लेते हैं पर बहुत सारे घरों में देखा गया है कि जैसे ही सुबह का पानी उपलब्ध होता है, पिछले दिन के संचयित जल को फेंक कर उस "ताजे" पानी का भंडारण कर लिया जाता है। इसी तरह रोज पीने के पानी को बदलने की क्रिया में एक दिन पहले का पानी यूंही नाली में बहा देने से बेशुमार पानी बर्बाद कर दिया जाता है। सोचने की बात है यह है कि कोई नहीं सोचता कि जिस पानी को ताजा समझ कर इकट्ठा किया जा रहा है उसका निर्माण अभी नहीं हुआ है ! वह भी कहीं न कहीं कई दिनों से संजो कर ही रखा गया था। पर नल में पानी आता देख पहले का पानी बासी लगने लगता है। घर में दो दिन पुराने दूध या दही को तो कोई नहीं फेंकता ! चलिए मन का वहम दूर ना ही हो तो पिछले दिन के पानी को नाली में बहाने की बजाए घर के किसी भी दसियों कामों में उसका उपयोग किया जा सकता है। वैसे भी साफ़-सफाई से रखे गए पानी में कोई खराबी नहीं आती। इस तरह के पानी को और भी गुणवत्ता युक्त बनाने के लिए उसे यदि अच्छी तरह फेंट लिया जाए तो वातावरण की आक्सीजन उसमें घुल कर उसे और भी उपयोगी बना सकती है।
आज हमारे देश में उपलब्ध जल की मात्रा की समस्या उतनी विकराल नहीं है, जितनी उसके प्रबंधन की कमी की है। जरुरत है नागरिकों को इसके बारे में जानकारी और जागरूकता उपलब्ध करवाने की। अतः जल संरक्षण के लिये जरूरी है कि हम सभी को जल के बारे में सही जानकारी हो, हम उसकी कीमत समझें, आसानी से उपलब्ध इस जीवनोपयोगी नियामत को संभाल कर खर्च करें और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने की हर संभव कोशिश करें।
प्रकृति ने हमें दिल खोल कर पचासों नदियों की सौगात बक्शी है, भरपूर जल मुहैय्या करवाया है, पर हम उसकी कीमत ना समझ 'माले मुफ्त दिल बेरहम' की तर्ज पर उसको बर्बाद करते रहे हैं। हमने कभी भी उसके उचित प्रबंधन पर ध्यान ही नहीं दिया। यह मान बैठे कि यह चीज तो कभी ख़त्म ही नहीं होगी। हमारी इसी अदूरदर्शिता से आज इसकी कमी महसूस होने लगी है। पर कभी-कभी तो मन में यह संशय भी सर उठाता है कि क्या यह कमी प्रायोजित तो नहीं है, क्योंकि हम आकंठ भ्रष्टाचार में इस तरह लिप्त हैं कि हमें खुद के लाभ की बजाए और कुछ भी सुझाई नहीं देता। क्या ऐसा तो नहीं कि शहरों में टैंकर माफिया के दवाब में, या पानी को तथाकथित शुद्ध करने वाले यंत्रों के निर्माता बड़े व्यवसायिक घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए, या विरोधी दलों के द्वारा सत्तारूढ़ दाल की विफलता को दर्शाने के लिए दुष्प्रचार किया जाता हो ? क्योंकि हमारे यहां कुछ भी असंभव नहीं है। याद आते है, अस्सी के दशक की गर्मियों के वे दिन जब रेलवे स्टेशनों पर पानी की उपलब्धता जान-बूझ कर रोक दी जाती थी, जिससे प्यासे यात्रियों को मजबूरी में ऐसे-वैसे बोतलबंद ठंडे पेय को अनाप-शनाप कीमत चुकता कर खरीदना पड़ता था !!!
4 टिप्पणियां:
आबादी बढ़ने के साथ साथ प्राकृतिक संसाधन कम ही पड़ते जाएंगे। बेहतर होगा कि जनसँख्या नियंत्रण पर जोर दिया जाए।
एकदम सही बात है पर इसी तरह ध्यान नहीं दिया जा रहा। तुष्टिकरण की राजनीति के चलते मुश्किल ही है
हम भारतीय सब कुछ देखकर भी पानी का मोल नहीं समझ रहे हैं। न तो हमने नदियों को दूषित करना बंद किया और न ही पानी संचय करना सीखा। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। बरसात का मौसम आ गया है। कुछ न कर सकेंं तो कम से कम किसी जगह पर एक छोटा सा गडढा ही खोद दें। ताकि वर्षा जल भूमि में समा सके।
जमशेद जी,
पूरी तरह सहमत हूँ आपसे। शुरुआत हो तो सही।
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