शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

अपने हाथ तो जगन्नाथ बना लिए, पर ……

जिन्न को वापस बोतल में भेजना शायद उतना मुश्किल नहीं होता होगा, जितना बिखरे सामान को समेटना। ऊपर से सामान की मालकिन को अपनी हर चीज जरूरी लगती है, भले ही वर्षों से उसका उपयोग न हुआ हो, पर उनके अनुसार क्या पता कब किस चीज की जरूरत पड जाए ! फिर पंजाबी का वह मुहावरा सुनाने से भी नहीं चूकतीं कि "कक्ख दी बी लोड पै जांदी ए" .  अब उनके इस "कक्ख" के चक्कर में मैं तो चकरघिन्नी बन गया  ना  !!!  
                     
दिल्ली पहुंचने के बाद ठाकुर जी का फोन आया मेरी खोज-खबर-जानकारियों के लिए और इधर अपनी ढिबरी टाइट हुई पड़ी थी, सामान को ठिकाने लगाते-लगाते। यह बात जब उन्हें बताई तो वो भी बोले अरे आप कहां थकते हो ! तो उनसे कहा भाई शरीर की एक सीमा तो है ही। अब पहले जैसा तो रहा नहीं ! पर जब कोई कहता है कि सर आपको देख कर लगता नहीं कि आप साठ पार कर चुके हो, तो यह बताने पर कि भइए साठ नहीं पैंसठ गुजरे भी एक अरसा हो गया है तो अगले का चेहरा देखने पर मजा तो आता ही है। ये अलग बात है कि इन बातों को सुनने के चस्के को बरकरार रखने के लिए रोज कुछ तो पसीना बहाना ही पड़ता है। पर ठाकुर साहब  बाहर के तो ठीक है घर के बच्चे भी अभी तक पापा को बाहुबली ही समझते हैं। कुछ भी हो, पापा हैं ना। पर अपनी हद मुझे  तो मालुम है ना ! सो धीरे-धीरे आराम से निपटाने की कोशिश हो रही है। इधर अभी तक कोई सहायक या सहायिका ना मिल पाने के कारण हाथ तो जगन्नाथ बन गए हैं पर तन-बदन तो वही है ना इसलिए थकान कुछ ज्यादा ही हावी हो गयी है।  

घर के अंदर सिमटे असबाब का पता नहीं चलता पर जब बाहर आ वह अंगड़ाइयां लेना शुरू करता है तो अच्छी भली जगह कम पड़ती दिखती है। जिन्न को वापस बोतल में भेजना उतना मुश्किल नहीं होता जितना बिखरे सामान को समेटना। वैसे भी चालीस साल की गृहस्थी में जरूरी के साथ गैरजरूरी का जुटते चले जाना और फिर यहां बच्चों का अपना जमावडा, सब मिला कर मजाक-मजाक में कुछ ज्यादा ही हो गया लगता है। ऊपर से सामान की मालकिन को हर चीज जरूरी लगती है भले ही सालों से उसका उपयोग न हो रहा हो पर उनके अनुसार क्या पता कब किस चीज की जरूरत पड जाए !  फिर पंजाबी का वह मुहावरा सुनाने से भी नहीं चूकतीं कि "कक्ख दी बी लोड पै जांदी ए".  अब उनके इस "कक्ख" के चक्कर में मैं तो चकरघिन्नी बन गया हूँ। पर ठाकुर जी सर पर पड़ी को निपटाना तो है ही। वैसे मैं अकेले ही नहीं लगा हुआ हूँ, मेरे साथ-साथ आपकी भाभी जी भी अपनी हद से ज्यादा ही साथ दे रही हैं। थकान से दोनों ही लस्त-पस्त हैं। नहाने-खाने का भी ठिकाना नहीं हो पा रहा है।

चलिए आप बताइए कैसे हैं ? ठाकुर जी बोले, सोच रहा हूँ, दिवाली के बाद हरिद्वार जाने का, अगर आप साथ चलें तो बहुत अच्छा रहेगा !  मैं बोला वैसे तो कोई ख़ास प्रोग्राम अब तक नहीं है पर तब तक की कह नहीं सकता, पर आप अपने कार्यक्रम के बारे में अवगत जरूर करवा देना।  हो सका तो जरूर चलुंगा।

तभी जैसे ठाकुर जी को मेरे हालात का ख्याल हो आया, बोले अच्छा फिर फोन करता हूँ , आप भी आराम कर लें।मैं तो चाहता ही यही था, सो तुरंत फोन रख बिस्तर पर पसर गया।      

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-10-2015) को "चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज" (चर्चा अंक-2125) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

फ़ालतू के कबाड़ का मोह छोड़ने में ही कल्याण है -उसके बाद ही हरिद्वार की मनस्थिति बनेगी !

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