बुधवार, 2 जुलाई 2014

रेगिस्तान का कल्पतरु "शमी"

यही वह वृक्ष है, जिसकी टहनियों और शाखाओं से अपने वनवास के समय श्री राम ने अपनी कुटिया का निर्माण किया था और जिसमें अज्ञातवास के समय पांडवों ने अपने दिव्यास्त्र छिपाए थे।
शमी वृक्ष 

प्रकृति ने इस धरा को सुरक्षित, संवर्धित रखने के लिए इसे तरह-तरह के पेड़ों से नवाजा है।  पेड़ भी कैसे-कैसे, कोई मोटा, कोई छोटा, कोई घना, कोई झिझला, कोई ऊंचा, कोई छोटा, कोई फलदार, कोई कांटेदार, कोई मजबूत तो कोई नाजुक, इनकी विशेषताएं गिनने जाएं तो पोथियाँ भर जाएं। इन्हीं में एक पेड़ है, जिसका नाम है  " शमी या खेजड़ी"  ये इतना पुराना है कि इसकी चर्चा रामायण-महाभारत में भी पाई जाती है. यही वह वृक्ष है, जिसकी टहनियों और शाखाओं से अपने वनवास के समय श्री राम ने अपनी कुटिया का निर्माण किया था और जिसमें अज्ञातवास के समय पांडवों ने अपने दिव्यास्त्र छिपाए थे। कहते हैं कि इसमें अग्निदेव का वास होता है, इसीलिए इसे अत्यंत पवित्र और पूज्य माना जाता है। आदिकाल से ही यज्ञ इत्यादि करते समय अरणी मंथन क्रिया द्वारा इसकी टहनियों को आपस में रगड़ कर अग्नि प्रज्वलित की जाती रही है।  आज भी पारंपरिक वैदिक पंडित यज्ञ के समय इसी का उपयोग कर अग्नि को आमंत्रण देते हैं।   

यह सदाबहार कांटेदार वृक्ष भारत के मरुस्थलों और कम जल वाले क्षेत्रों में बहुतायद से पनप कर, विपरीत परिस्थितियों और तेज गरमी में भी पशु-पक्षियों को शरण देता रहता है। इसकी हरी-हरी पत्तियों में बहुतायद में नमी पाई जाती है और ये ऊंट, भेड, बकरियों का प्रमुख खाद्य हैं जो उनके लिए वरदान स्वरूप है। वहीं इसकी जड़ों में नाइट्रोजन की भरमार होने के कारण यह जमीन को उर्वरक बनाने में सहायक होता है।  इसीलिए जहां शमी या खेजड़ी के पेड़ होते हैं वह जगह उपजाऊ होती है. इसके कारण ही मरुस्थल, रेगिस्तान या कम जल वाले क्षेत्रों में इसे कल्पतरु के रूप में जाना जाता है। सिर्फ यही नहीं यह हानिकारक गैसों को सोखने की भी क्षमता रखता है। इसकी लम्बी मजबूत और जमीन में गहरे तक उतरी जड़ें वहाँ से नमी तो लेती ही हैं जमीन को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ वृक्ष को भी रेत में खड़ा रहने की क्षमता प्रदान करती हैं, जिससे रेगिस्तान में चलने वाले अंधड़ों के वेग को यह कम कर हवा में उड़ने वाली रेत को भी रोक कर जमा कर देता है। इसके अलावा इसकी औषधिय विशेषताएं भी कम नहीं हैं। स्थानीय लोग इसकी पत्तियों और बीजों को तरह-तरह की बीमारियां दूर करने के काम में लाते हैं। इसकी लकड़ियों का जलावन और उससे प्राप्त कोयला भी उच्च कोटि का होता है। इसके तने से पीले रंग का उपयोगी गोंद भी प्राप्त होता है। यही कारण है कि यह बहु-उपयोगी वृक्ष राजस्थान में पूजा जाता है।   

इसकी लकड़ी भी बहुत मजबूत होती है तथा उसका उपयोग गृह-निर्माण के विभिन्न कामों में किया जाता है।  इसमें फल के रूप में फलियां लगती हैं, जिन्हें सांगरी कहा जाता है। स्थानीय भाषा में इन्हें खो-खा कहते हैं। इन फलियों से बेहद स्वादिष्ट सब्जी और अचार बनाया जाता है। इसके खाने से प्यास भी कम लगती है। यह राजस्थान के ख़ास खाद्यों में गिनी जाती है। सूखी सांगरी की कीमत बाजार में सैकड़ो रुपयों तक पहुँच जाती है।  इस तरह देखें तो शमी या खेजड़ी का पेड़ उस रेगिस्तान में जहां गर्मियों में जीना मुहाल हो जाता है, वहाँ नर-नारियों के साथ-साथ पशु-पक्षियों को भी अपने प्रत्येक अंग से सुरक्षा, भोजन, आश्रय तथा निरोगिता प्रदान कर उनके जीवन को कुछ हद तक सरल बनाने में सदियों से जुटा हुआ है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इसी वृक्ष की सहायता से वैसे दुर्गम स्थल पर जीवन यापन करना संभव हो पाता है।                         

8 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति-
आभार आदरणीय-

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन पूँजी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन पूँजी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

Asha Lata Saxena ने कहा…

बढ़िया जानकारी प्रसृत करने के लिए धन्यवाद |

RAKESH KUMAR SRIVASTAVA 'RAHI' ने कहा…

जानकारी बढ़ाती सुंदर आलेख.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

प्रसन्न बदन जी,
सदा स्वागत है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आशा जी,
पधारने के लिए आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राकेश जी,
यूँही स्नेह बना रहे

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