करीब दो महीने के बाद मुझे एक ई-मेल मिला जिसमे एक भले आदमी ने उसी धर्मशाला से अपने चोरी हुए सामान के लिए धर्मशाला के प्रबंधकों के साथ मुझे भी पत्र भेज मारा। मैं असमंजस में पड गया कि अगला चाहता क्या है?
कई बार ऎसी बातें या घटनाएं घट जाती हैं जो विचार करने पर बड़ी अजीब सी लगती हैं। ऐसा ही पिछले दिनों कुछ हुआ. इस बार शरद पूर्णिमा के अवसर पर राजस्थान के चूरू जिले के एक कस्बे सुजानगढ़ में स्थित हनुमान जी के सुप्रसिद्ध बालाजी मंदिर दर्शन करने फिर सुयोग मिला। वैसे तो यहाँ साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है. पर चैत्र और आश्विन पूर्णिमा के समय यहाँ मेला भरता है जब लाखों लोग अपनी आस्था और भक्ति के साथ यहाँ आकर हनुमान जी के दर्शन का पुण्य लाभ उठाते हैं.
पहले भी दो बार सालासर जाना हुआ था, पर इस देव-स्थान का कुछ ऐसा आकर्षण है कि मन नहीं भरता और बार-बार जाने की इच्छा होती है। इस बार भी मौका मिलते ही आठ-नौ जनों का समूह 17. 10. 13 को हनुमान जी के दर्शन के लिए सालासर रवाना हो गया। यह याद नहीं रहा कि यह अवसर शरद पूर्णिमा का है, नहीं तो ठहरने की व्य्वस्था पहले करवा लेते। रास्ते में इसकी जानकारी मिली पर फिर सब प्रभू पर छोड़ आगे बढ़ाते रहे. करीब साढ़े दस बजे हम सालासर धाम पहुंचे। पर वहाँ तो जैसे लोगों का सैलाब उमड़ा पड़ा था। पैदल चलने तक की जगह नहीं थी। दिन रात का जैसे कोइ फर्क ही नहीं था. लोग खुले मे, तंबुओं में, शामियाने में, जहां जगह मिली पड़े थे. उस समय भी कोई नहा रहा था, कोई मस्ती में नाच-गा रहा था तो कोइ भूख मिटाने की फिराक में भोजन का प्रबंध करने में जुटा था. गाड़ी बेहद धीरे-धीरे रेंग रही थी. हमें तो सोच कर ही सिहरन हो रही थी की यदि जगह न मिली तो कैसे क्या होगा ? जगह की सचमुच किल्लत लग रही थी. पर कहते हैं ना की प्रभू कभी अपने बच्चों को मायूस नहीं करता. सो उसी दैवयोग से हमारी रेंगती और कोई आश्रय ढूँढ़ती गाड़ी एक जगमगाती सुन्दर सी इमारत के सामने जा रुकी. नज़र उठा के देखा तो ऊपर नाम लिखा हुआ था "चमेली देवी अग्रवाल सेवा सदन". भीड़ वहाँ भी थी फिर भी अन्दर जा पता करने की सोची। स्वागत कक्ष में बैठे सज्जन ने पहले तो साफ मना ही कर दिया पर फिर पता नहीं बच्चों या हमारे हताश चेहरों को देख तीसरे तल्ले पर स्थित एक "वी आई पी सूइट" जिसमें दो आपस में जुड़े हुए कमरे अपने-अपने प्रसाधन कक्ष के साथ थे, का आवंटन दूसरे दिन ग्यारह बजे तक के लिए कर दिया. हमें तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो. वहीं खाने की भी व्यवस्था थी, खाना सचमुच स्वादिष्ट था सो निश्चिंत और शांत मन से उदर पूर्ती की गयी. दूसरे दिन दर्शन लाभ कर वापस हो लिए।
वहाँ से लौटने के बाद मैंने धर्मशाला के प्रबंधकों को एक आभार जताते हुए पत्र लिखा था जिसमे उस रात कठिन समय में हमारी सहायता की गयी थी। अब होती है शुरू असली बात, जिसके लिए इतनी भूमिका बांधी। करीब दो महीने के बाद मुझे एक ई-मेल मिला जिसमे एक भले आदमी ने उसी धर्मशाला से अपने चोरी हुए सामान के लिए धर्मशाला के प्रबंधकों के साथ मुझे भी पत्र भेज मारा। मैं असमंजस में पड गया कि अगला चाहता क्या है? क्या मेरे पत्र में धर्मशाला की प्रशंसा अगले को रास नहीं आई? या आगे कभी वहाँ न ठहरूँ या कोई और बात है? खैर मैंने उसे एक पत्र द्वारा अपनी उस यात्रा की असलियत तो बता दी थी.
नुक्सान किसी का भी हो दुःख तो होता ही है वह भी ऐसी जगह जहां आदमी आस्था ले कर जाता है पर उसके लिए सभी को वहाँ से शिकायत हो ऐसा तो संभव नहीं हो सकता न। उनका नुक्सान हुआ तो वहीं उसका निराकरण कर लेना चाहिए था बनिस्पत घर लौट कर अपना गुस्सा जग-जाहिर करने के।