जब पहली बार विपक्षी गुटों ने अपनी सरकार बनाई थी तो जनता या देश के हित में कुछ करने के बजाए सारे अंत्री-मंत्री श्रीमती इंदरा गांधी की बुराईयों, उनकी नीतियों के पीछे हाथ धो कर पड़ गए पर इंदिरा जी खुद तो शालीन बनी ही रहीं इसके अलावा अपने साथियों को भी कुछ कहने नहीं दिया था।
समय ने भी क्या करवट बदली, कि हर शै बदली-बदली नज़र आने लगी है। आदमी के रहन-सहन से लेकर कथो-किताबत पर असर साफ दिखाई पड़ रहा है। पहले कहा जाता था "ऎसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए, औरन को शीतल करे, आपहू शीतल होए।" पर आज अन्य मान्यताओं के साथ इसको भी बदल कर कुछ ऐसा कर दिया गया है "ऐसी वाणी बोलिए सब का आपा खोए, औरन को विचलित करे आपहूं विचलित होए।"
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी के चुनावों में भाषण वीरों के संवादों ने सब को दिया है। यह जानते हुए भी कि जुबान की चोट का घाव सब घावों से गहरा होता है और इसके अनगिनत प्रमाण हमारे इतिहास, कथा-कहानियों में बिखरे पड़े हैं. इसके बावजूद खुशफहमियों में सांस भरते कुछ लोगों ने अपने आकाओं को खुश करने के लिए अपनी बेलगाम, निरंकुश, अमर्यादित वाणी का ऐसा अंधड़ उड़ाया जिसमें उन्हीं के दल के द्वारा किए गए जनपयोगी कार्यों पर भी पर्दा पड़ गया। उनके विष बुझे तीरों से लैस अनर्गल प्रलाप रूपी हाथियों ने अपने ही लोगों में हलचल मचा दी।
आदि काल से हमारे देश में जनता ने कभी भी कटु भाषियों का साथ नहीं दिया है. कटु बोलने वाला सदा अपना ही अहित करता रहा है। ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है, जब पहली बार विपक्षी गुटों ने अपनी सरकार बनाई थी तो जनता या देश के हित में कुछ करने के बजाए सारे अंत्री-मंत्री श्रीमती इंदरा गांधी की बुराईयों, उनकी नीतियों के पीछे हाथ धो कर पड़ गए पर इंदिरा जी खुद तो शालीन बनी ही रहीं इसके अलावा अपने साथियों को भी कुछ कहने नहीं दिया। जनता ने नए लोगों से जो आशाएं बांधी थी वे चकनाचूर हो गयीं। जनता को जन हित में कुछ होता न दिखने पर उसके जेहन में उनके द्वारा उठाए गए लौह कदमों की याद फिर ताजा हो गयी, परिणाम क्या रहा, लोगों ने उनके द्वारा लगाए आपात काल को भी भुला कर उन्हें फिर प्रचंड मतों के साथ सत्ता सौंप दी।
इससे सबक न लेते हुए विश्व प्रताप सिंह ने भी वही गलती दोहराई, अपना सारा जोर शालीन राजीव गांधी की छवि बिगाड़ने, उन्हें नीचा दिखाने का एकमंत्र अपनाया जिसके फलस्वरूप जनता ने उन्हें ऎसी पटकनी दी कि कोई पूछने वाला भी नहीं रहा। उलटे राजीव जी और लोक-प्रिय बन कर उभरे।
पता नहीं अपने ही परिवार, अपनी ही पार्टी में हुई ऐसी बातों से कोई सीख आज के देश के सबसे पुराने, संगठित और देश के हर हिस्से में अपनी उपस्थिति का अहसास करवाने वाले दल ने क्यों नहीं ली। यह और बात है कि दल के शिखर पर बैठे लोगों ने संयम बरता पर अपने कार्यकर्ताओं और प्रवक्ताओं पर नकेल नहीं कसी। जिससे कुछ ऐसी छवि उभर कर आई कि लोगों को लगने लगा कि यह सारी ब्यान बाजी ऊपर के इशारे पर हो रही है, जिसमे कुछ सच्चाई तो थी ही, साथ ही यह भी एहसास होने लगा कि खुद हर मोर्चे पर नाकाम रहने वाले अब दूसरों को भी काम नहीं करने देना चाहते। इसके विपरीत यदि यदि मुंहफट लोगों द्वारा दूसरों को इतिहास सिखाने की बजाए अपना इतिहास ही याद रहता और उनके बयानों पर लगाम कस उन्हें अपने द्वारा किए गए कार्यों और उनसे हुए फायदों की जनता को याद दिलाते रहने को कहा जाता तो दो फायदे होते एक तो जन-जन के बीच इनकी सभ्य और शालीन छवि बनती साथ ही जनता की अल्पकालीन स्मृति से किए गए अच्छे कामों का भी असर बरकरार रहता। और फिर यदि विपक्ष के आग उगलाऊ भाषणों पर संयम बरता जाता तो भी जनता में भी दल के सुसंस्कृत होने का संदेश जाता। पर धनुष से निकला तीर तो शायद वापस आ भी जाए पर दल के तथाकथित हितैषियों ने वह कर डाला है जो सारा विपक्ष मिल कर भी नहीं कर पाता।
6 टिप्पणियां:
बढ़िया प्रस्तुति-
आभार आदरणीय-
विचारणीय लेख
आज जीतने वाले भी सोचें इस बारे में कि दूसरों की बुराई करने से अ्चछा है खुद अच्छे काम करना।
सटीक अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
परिणाम सामने हैं. उम्मीद तो नहीं है, फिर भी शायद ऐसे लोग हाशिए पर बैठ आत्म-मंथन कर सकें
सही अवमूल्यन
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