बुधवार, 18 दिसंबर 2013

दिल के रिश्ते

एक छोटे से स्कूल में छोटी सी तनख्वाह पाने वालों का मन कितना विशाल हो सकता है इसका प्रमाण उसी दिन मैंने जाना। उनके उपकार का सिला तो मैं जिंदगी भर नहीं चुका पाऊँगी पर खून के रिश्तों से परे दिल के रिश्तों में पहले से भी ज्यादा विश्वास करने लग गयी हूँ..............

हमारी जिंदगी तरह-तरह की अनुभूतियों, खट्टे-मीठे अनुभवों, अनोखे घटना चक्रों से भरी पड़ी होती है। इन्हीं में से कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो सदा मन-मस्तिष्क पर अपनी छाप ताउम्र के लिए छोड़ जाती हैं, कर जाती हैं   इंसान को कायल इंसानियत का, बाँध जाती हैं परायों को भी एक अनोखे रिश्ते में।  

ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। मैं एक छोटे से स्कूल की शिक्षिका हूँ। बात करीब सात साल पहले की है। कुछ समय पहले जबर्दस्त आर्थिक नुक्सान से अभी पूरी तरह उबर नहीं पाए थे पर इसी बीच मेरे छोटे बेटे का पूना के एक एम. बी. ए. संस्थान में चयन हो गया।  उसकी कड़ी मेहनत रंग लाई थी, खुशी का माहौल था। पर मन के एक कोने में दाखिले की भारी-भरकम फीस के पैसों की चिंता भी जरूर थी, पर पढ़ाई के लिए मिलने वाले बैंक लोन के लुभावने विज्ञापनों से निश्चिंतता भी थी कि पैसों का इंतजाम हो ही जाएगा। इसके पहले कभी लोन लेने की जरूरत न पड़ने से ऐसे इश्तहारों की सच्चाई से हम अनभिज्ञ ही थे। पर जब बैंकों के चक्कर लगने शुरू हुए तो असलियत से सामना हुआ। बैंक में वर्षों से अच्छा भला खाता होने के बावजूद कर्मचारियों का रवैया ऐसा था मानो हम बैंक को ठगने आए हों। जिरह ऐसी जैसे इनकम टैक्स की चोरी की हो. उनकी रूचि लोन देने में नहीं न देने में ज्यादा थी। एक बार तो बैक के एक वरीयता प्राप्त सज्जन को शेखी बघारते भी सुना कि उन्होंने अपने कार्य काल में कभी किसी का लोन पास नहीं किया, कौन मुसीबत मोल ले। वहाँ किसी को भी इस बात का मलाल नहीं था कि वह किसी के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है। बीस दिन निकल गए थे। सारे कागजात पूरे होने के बावजूद काम सिरे नहीं चढ़ रहा था। कभी किसी कर्मचारी का तबादला हो जाता था, कभी कोई अफसर अवकाश पर चला जाता था, कभी निश्चित दिन और कोई अड़चन आड़े आ जाती थी। ज्यों-ज्यों फीस जमा करवाने की तारीख नजदीक आती जाती थी त्यों-त्यों हमारी मानसिक हालत बदतर होती जाती थी।  भीषण मानसिक तनाव के दिन थे।  ऐसा लगता था कि बेटे का भविष्य हाथ से निकला जा रहा है।  अब सिर्फ चार दिन बचे थे और किसी तरह आधी रकम का ही इंतजाम हो पाया था। 

उस दिन परेशानी की हालत में मैं स्कूल के स्टाफ रूम में बैठी थी, मन उचाट था, धैर्य जवाब दे चुका था. ऐसे में मन पर काबू न रहा और आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली। वजह तो सहकर्मियों से छुपी न थी, सब मुझे घेर कर ढाढस बधाने लग गए। पर फिर जो कुछ हुआ उसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी, वह सब याद आते ही आज भी आँखें भर आती हैं। दो-तीन घंटे के अंतराल में ही मेरे सामने मेज पर दो लाख. जी हाँ दो लाख रुपयों का ढेर लगा हुआ था। ऐसी रकम जो हफ्तों से आँख-मिचौनी कर रही थी, मेरे सामने पड़ी थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ क्या न कहूँ। हालत यह कि जुबान बंद, आँखें भीगी हुई और मन अपने सहयोगियों के उपकार के आगे नतमस्तक था।  ऐसे आड़े  वक्त जब हम चारों ओर से थक-हार कर निराश हो चुके थे तब स्कूल में कुछ घंटे साथ बिताने वाले सहकर्मी देवदूत बन कर सामने आए। सुना था कि प्रभू किसी न किसी रूप में अपने संकट-ग्रस्त बच्चों की सहायता जरूर करते हैं, उस दिन ईश्वर ही मानों मेरे सहकर्मियों के रूप में आए थे।  

एक छोटे से स्कूल में छोटी सी तनख्वाह पाने वालों का मन कितना विशाल हो सकता है इसका प्रमाण उसी दिन मैंने जाना। उनके उपकार का सिला तो मैं जिंदगी भर नहीं चुका पाऊँगी पर खून के रिश्तों से परे दिल के रिश्तों में पहले से भी ज्यादा विश्वास करने लग गयी हूँ।  

बाद में लोन तो मिला पर कैसे मिला उसका जिक्र नाही किया जाए तो बेहतर है. आज मेरा बेटा बैंक में ही मैनेजर के पद पर है पर उसे यही सीख दी है कि किसी भी जरुरत मंद को जूते ना घिसने पड़ें यह सदा याद रखे।

सच्ची घटना पर आधारित।         

6 टिप्‍पणियां:

Roshi ने कहा…

इंसानियत अभी जिन्दा है .......

shalini kaushik ने कहा…

veri nice post .

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मन की सुन्दरता उभारती घटना, अधिक धन भावहरण कर लेता है।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

शायद संवेदनशीलता और इंसानियत बाकी है समाज में अभी ...

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर.इंसानियत और संवेदनशीलता का अनुपम उदाहरण.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राजीव जी, आभार

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