बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

उसे अपनी माँ से विवाह करना पड़ा था, दुनिया की दर्दनाक कहानियों में से एक

कहते हैं कि विधि का लेख मिटाए नहीं मिटता। कितनों ने कितनी तरह की कोशीशें की पर हुआ वही जो निर्धारित था। राजा लायस और उसकी पत्नी जोकास्टा। इन्होंने भी प्रारब्ध को चुन्नौती दी थी, जिससे जन्म हुआ संसार की सबसे दर्दनाक कथा का।

यूनान में एक राज्य था थीबिज। इसके राजा लायस तथा रानी जोकास्टा की कोई संतान नहीं थी। काफी मन्नतों और प्रार्थनाओं के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी। पर खुशियां ज्यादा दिन नहीं टिक सकीं। एक भविष्यवक्ता ने भविष्वाणी की कि उनका पुत्र, पित्रहंता होगा और अपनी ही मां से विवाह करेगा। यह जान दोनो आतंकित हो गए और अपने नवजात शिशु के हाथ पैर बंधवा कर उसे सिथेरन पर्वत पर फिंकवा दिया। पर बच्चे की मृत्यु नहीं लिखी हुई थी। जिस आदमी को यह काम सौंपा गया था, वह यह अमानवीय कार्य ना कर सका। उसने पहाड़ पर शिशु को पड़ोसी राज्य, कोरिंथ, के चरवाहे को दे बच्चे की जान बचा दी। उस चरवाहे ने अपने राजा पोलिबस, जिसकी कोई संतान नहीं थी, को खुश करने के लिए बच्चे को उसे सौंप दिया। रस्सी से बंधे होने के कारण शिशु के पांव सूज कर कुछ टेढे हो गए थे, जिनको देख कर पोलिबस के मुंह से निकला “ईडिपस” याने सूजे पैरोंवाला और यही नाम पड़ गया उस बच्चे का।     

समय बीतता गया। ईडिपस जवान हो गया। होनी ने अपना रंग दिखाया। एक समारोह में एक अतिथी ने उसका यह कह कर मजाक उड़ाया कि वह कोई राजकुमार नहीं है। वह तो कहीं पड़ा मिला था। ईडिपस के मन में शक घर कर गया। एक दिन बिना किसी को बताए वह अपोलो के विश्वप्रसिद्ध भविष्य वक्ता से मिलने निकल पड़ा। मंदिर की पुजारिन ने उसे स्पष्ट उत्तर तो दिया नहीं, पर एक चेतावनी जरूर दी कि वह अपने पिता की खोज ना करे नहीं तो वह तुम्हारे हाथों मारा जाएगा और तुम अपनी ही मां से शादी करोगे।

ईडिपस यह सुन बहुत डर गया। उसने निर्णय लिया कि वह वापस कोरिंथ नहीं जाएगा। जब इसी उधेड़बुन में वह चला जा रहा था उसी समय सामने से लायस अपने रथ पर सवार हो उधर से गुजर रहा था। लायस का अंगरक्षक रास्ते से सबको हटाता जा रहा था। ईडिपस के मार्ग ना देने पर, अंगरक्षक से उसकी तकरार हो गई, जिससे खुद को अपमानित महसूस कर ईडिपस ने उसकी हत्या कर दी। यह देख लायस ने क्रोधित हो उस पर वार कर दिया, लड़ाई में लायस मारा गया। अनजाने में ही सही ईडिपस के हाथों उसके पिता की हत्या हो ही गई। 

इसके बाद भटकते-भटकते वह थीबिज जा पहुंचा। वहां जाने पर उसे मालुम पड़ा कि वहां के राजा की मौत हो चुकी है। जिसका फायदा उठा कर स्फिंक्स नामक एक दैत्य वहां के लोगों को परेशान करता रहता है। उसने एक शर्त रखी हुई थी कि जब तक कोई मेरी पहेली का जवाब नहीं देगा तब तक मैं यहां से नहीं जाऊंगा। उसकी उपस्थिति का मतलब था मौत, अकाल और सूखा। राज्य की ओर से घोषणा की गई थी कि इस मुसीबत से जो छुटकारा दिलवाएगा उसे ही यहां का राजा बना दिया जाएगा तथा उसी के साथ मृत राजा की रानी की शादी भी कर दी जाएगी। ईडिपस ने यह घोषणा सुनी, उसने वापस तो लौटना नहीं था, एक अलग राज्य पा जाने का अवसर मिलते देख उसने पहेली का उत्तर देने की इच्छा जाहिर कर दी। उसे स्फिंक्स के पास पहुंचा दिया गया। डरावना स्फिंक्स उसे घूर रहा था पर ईडिपस ने बिना डरे उससे सवाल पूछने को कहा। 

स्फिंक्स ने पूछा कि वह कौन सा प्राणी है, जो सुबह चार पैरों से चलता है, दोपहर में दो पैरों से और शाम को तीन पांवों पर चलता है और वह सबसे ज्यादा शक्तिशाली अपने कम पांवों के समय होता है। ईडिपस ने बिना हिचके जवाब दिया कि वह प्राणी इंसान है। जो अपने शैशव काल में चार पैरों पर, जवानी यानि दोपहर में दो पैरों पर और बुढ़ापे में लकड़ी की सहायता से यानी तीन पैरों से चलता है। इतना सुनना था कि स्फिंक्स वहां से गायब हो गया। थीबिज की जनता ने राहत की सांस ली। घोषणा के अनुसार ईडिपस को वहां का राजा बना दिया गया और रानी जोकास्टा से उसका विवाह कर दिया गया।

होनी का खेल चलता रहा। दिन बीतते गए। ईडिपस सफलता पूर्वक थीबिज पर राज्य करता रहा। प्रजा खुशहाल थी। पूरे राज्य में सुख-शांति व समृद्धि का वातावरण था। यद्यपि रानी जोकास्टा ईडिपस से उम्र में काफी बड़ी थी फिर भी दोनों में अगाध प्रेम था। इनकी चार संतानें हुयीं। बच्चे जब जवान हो गए तो समय ने विपरीत करवट ली। राज्य में महामारी फैल गई। लोग कीड़े-मकोंड़ों की तरह मरने लगे। तभी देववाणी हुई कि इस सब का कारण राजा लायस का हत्यारा है। दुखी व परेशान जनता अपने राजा के पास पहुंची। ईडिपस ने वादा किया कि वह शीघ्र ही लायस के हत्यारे को खोज निकालेगा। 

इस समस्या के हल के लिए राज्य के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता टाइरसीज को आमंत्रित कर समस्या का निदान करने को कहा गया। टाइरसीज ने कहा, राजन कुछ चीजों का पता ना लगना ही अच्छा होता है। सच्चाई आप सह नहीं पाएंगें ! पर ईडिपस ने कहा प्रजा की भलाई के लिए मैं कुछ भी सहने को तैयार हूं । जब टाइरसीज फिर भी चुप रहा और ईडिपस के सारे निवेदन बेकार गए तो ईडिपस को गुस्सा आ गया और उसने टाइरसीज और उसकी विद्या को ही ठोंग करार दे दिया। इससे टाइरसीज भी आवेश में आ गया। उसने कहा कि आप सुनना ही चाहते हैं तो सुनें, आप ही राजा लायस के हत्यारे हैं। वर्षों पहले आपने मार्ग ना छोड़ने के कारण जिसका वध किया था वही राजा लायस आपके पिता थे। 

ईडिपस को सब याद आ गया। उसने चिंतित हो रानी से पूछ-ताछ की तो उसने विस्तार से अपनी बीती जिंदगी की सारी बातें बताईं कि राजा की मौत अपने ही बेटे के हाथों होनी थी। पर आप चिंता ना करें हमारा एक ही बेटा था जिसे राजा ने उसके पैदा होते ही मरवा दिया था। जोकास्टा ने ईडिपस को आश्वस्त करने के लिए उस आदमी को बुलवाया जिसे शिशु को मारने की जिम्मेदारी दी गई थी। पर इस बार वह झूठ नहीं बोल पाया और उसने सारी बात सच-सच बता दी। रानी जोकास्टा सच जान पाप और शर्म से मर्माहत हो गई। इतने कटु सत्य को वह सहन नहीं कर पाई। उसने उसी वक्त आत्महत्या कर ली। ईडिपस देर तक रानी जोकास्टा के शव पर यह कह कर रोता रहा कि तुमने तो अपने दुखों का अंत कर लिया, लेकिन मेरी सजा के लिए मौत भी कम है। उसी समय ईडिपस ने अपनी आंखें फोड़ लीं और महल से निकल गया। कुछ ही समय में उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया क्योंकि वह भी उसी पाप की उत्पत्ति था, जो भाग्यवश अनजाने में हो गया था।

शायद यह दुनिया की सबसे दर्दनाक कहानी है।

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

श्याम खाटु जी के दर्शनोपरांत तीन दिनों के एक यादगार सफर का समापन

17 अक्टूबर की सुबह दिल्ली से चल कर राजस्थान के झुंझनु शहर के रानी सती जी के मंदिर के दर्शन कर रात सालासर में गुजार दूसरे दिन 18 अक्टूबर, दोपहर सालासर बालाजी के दरबार में हाजरी लगा फिर सुजानगढ़ के डूंगर बालाजी के दर्शन कर अपरान्ह में दिल्ली वापसी के दौरान पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सीकर में खाटु श्याम जी के दर्शनों हेतु रवानगी शुरू हुई.
अब आगे ..........    
18.10.13 दोपहर बाद पौने तीन बजे गाड़ी का रुख राजस्थान के सीकर जिले के खाटु कस्बे की ओर हो चुका था, जो डूंगर बालाजी से करीब 120-125 किलो मीटर पड़ता है. सफर को मद्दे-नज़र रख सबने सुबह हल्का नाश्ता ही किया था. सो घंटे भर बाद 'च्यास' उभर आई थी जिसका निवारण एक चाय प्रदाता गुमटी के पास रुक कर किया गया. शाम के पौने पांच बजे के लगभग हम खाटु में सुविधा जनक आश्रय स्थल की खोज में थे. आज जब हर जगह बाजार हावी है तो उसका असर अब ऐसे धार्मिक स्थलों के पुराने रिवाजों पर भी हो चुका है. पहले जहां धर्मशालाएं लोगों की सुविधा के लिए होती थीं अब उनका रूप नव निर्मित, आधुनिक सर्व सुविधा युक्त सेवा सदन ले चुके हैं. दिखावा तो वे  धर्मशाला का करते हैं पर व्यवहार आधुनिक होटलों जैसा होता है.  दो-तीन जगह देखने के बाद मंदिर के पास ही एक शांत, साफ-सुथरे आश्रय स्थल, लाला मांगे राम सेवा सदन, का चुनाव कर लिया  गया.
सेवा सदन की छत 
छत से जूम कर लिया गया मंदिर का चित्र 
मंदिर की ओर जाता मार्ग 

वहाँ से मंदिर सिर्फ पांच-सात मिनट की पैदल दूरी पर था. जैसा नाम से आभास होता है कि यहाँ श्री कृष्ण जी का मंदिर होगा वैसा नहीं है। असल में यहाँ  घटोत्कच के पुत्र और भीम के पौत्र बर्बरीक की पूजा होती है। कथा इस प्रकार है :-

श्याम खाटु जी महाराज 
महाभारत का युद्ध शुरू होने ही वाला था कि एक दिन श्री कृष्ण जी ने देखा कि एक दीर्घकाय, बलिष्ठ, अलौकिक आभा से युक्त युवक चला आ रहा है जिसके चहरे पर एक दिव्य तेज विद्यमान था। उसकी पीठ पर एक तरकस था जिसमें सिर्फ तीन तीर थे।  प्रभू तो सब जानते ही थे फिर भी उन्होंने युवक को रोक उसका परिचय और इधर आने का प्रयोजन पूछा। युवक ने बताया कि उसका नाम बर्बरीक है, वह महान योद्धा घटोत्कच का पुत्र है और अपनी माता की आज्ञा लेकर इधर होने वाले युद्ध में भाग लेने आया है।  श्री कृष्ण ने पूछा कि तुम किस और से युद्ध करोगे?
जो भी पक्ष कमजोर होगा उसकी तरफ से, बर्बरीक ने जवाब दिया।  प्रभू ने फिर कहा कि क्या तुम इन तीन तीरों से युद्ध लड़ोगे, ऎसी क्या विशेषता है इन में ? बर्बरीक बोला, प्रभू ये दिव्यास्त्र हैं, इनमें से एक अपने लक्ष्य का पता लगाता है, दूसरा लक्ष्य-भेदन करता है और तीसरा यदि लक्ष्य भेद न करना हो तो वह पहले को निरस्त कर देता है. प्रभू ने प्रमाण स्वरूप सामने के एक विशाल और घने पीपल के पेड़ के पत्तों को निशाना बनाने को कहा। जब बर्बरीक निशाना साधने के पहले मंत्र का आह्वान कर रहा था तो उन्होंने पेड़ का एक पत्ता तोड़ अपने पैर के नीचे दबा लिया। बर्बरीक ने अपना  बाण छोड़ा जो सभी पत्रों में छिद्र कर परभू के चरणों के पास आ घूमने लगा. प्रभू समझ गए कि कमजोर कौरवों की तरफ से लड़ते हुए यह युवक कुछ ही समय में पांडवों का नाश कर देगा। इसीलिए उनहोंने जनहित के लिए युवक से कुछ देने को कहा, बर्बरीक के तत्पर होने पर उन्होंने उसका सर मांग लिया। बर्बरीक बिना किसी हिचकिचाहट के इस पर तैयार भी हो गया. पर सर त्यागने से पहले उसने परभू से दो वर चाहे। पहला कि प्रभू उसे अपना नाम दें और दूसरा वह पूरा युद्ध देख सके। परभू ने उसे वरदान दिया कि उसे सदा उनके नाम श्याम के नाम से जाना जाएगा और कलियुग में जो कोई भी सच्चे दिल से उसका नाम लेगा, उसकी आराधना करेगा उसकी सारी मनोकामनाएं पूरी होंगी और उसकी विपत्तियों का नाश हो जाएगा।   इतना कह प्रभू ने बर्बरीक का सर वहाँ स्थापित कर दिया और युद्ध के पश्चात उसे वहीं समाधी दे दी गयी। जहां समाधी दी गयी थी वहाँ आज एक कुंड है. ऐसी धारणा है कि उस कुंड में स्नान करने से सारी शारीरिक व्याधियां दूर हो जाती हैं।
कुंड का मुख्य द्वार 
कुंड की ओर जाती सीढ़ियां 
पवित्र कुंड 
निर्देश
स्नानोपश्चात 

शाम के साढ़े छह बज रहे थे. लाला मांगे राम सेवा सदन में दो कमरे ले लिए गए, किराया था सुबह बारह बजे तक का 700 रुपये प्रति वातानूकुलित कमरे के हिसाब से. खाने का पहले बताना पड़ता था प्रति व्यक्ति 50/- की थाली, एक सब्जी और दाल के साथ, जिसका समय रात आठ से दस का था।  कमरों में सामान वगैरह रख हम सब खाटू श्याम जी के दर्शनों हेतु मंदिर चले गए. उस समय वहाँ सिर्फ 25-30 लोग ही थे। श्याम जी का श्रृंगार सफेद फूलों से बहुत सुंदर तरीके से किया गया था। वहाँ से लौट खाना खा सब  नींद के आगोश में समा गए।
19. 10. 13 सुबह-सुबह सदन की छत पर  कुछ यादगार पल कैद कर फिर नित्य कर्म से निवृत हो हम सब एक बार फिर मंदिर की ओर अग्रसर हो लिए। कुछ का दर्शनोपरांत कुंड में स्नान का भी इरादा था।


मंदिर में रात की अपेक्षा भीड़ ज्यादा थी.  वैसे यहाँ फाल्गुन के माह में मेला भरता है जब यहाँ पैर रखने की भी जगह नहीं होती।  दर्शनों के बाद हम कुंड पहुंचे जहां स्नान के बाद करीब सवा बारह बजे  हल्का नाश्ता कर हमने दिल्ली का रुख कर लिया, जो जयपुर मार्ग पर चौमूं - रींगस-गुड़गांव होते हुए था। रास्ते में मानेसर में एक जगह चाय पकौड़ों का सेवन कर रात नौ के करीब घर पहुँच गए थे।  इस तरह तीन दिनों के एक यादगार, खुशनुमा सफर का समापन हुआ.                      

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

सुजानगढ़ के डुंगर बालाजी, जहां पूरी होती है अपना घर बनने की मन्नत

सालासर बालाजी धाम से सुजानगढ़ करीब 34 किलोमीटर दूर स्थित है। सुजान गढ़ के रेलवे स्टेशन से रेल पटरी पार करने के बाद वहाँ से करीब 11-12 की दूरी पर गोपालपुर की पहाड़ी पर 600 फुट की ऊंचाई पर हनुमान जी का एक मंदिर है जिसे डूंगर बालाजी के नाम से जाना जाता है।  उस ऊंचाई से चारों ओर का सुंदर विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
डूंगर बाला जी 


मंदिर की सीढ़ियां 

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गाड़ी खडी करने की जगह से मंदिर तक जाती सीढ़ियां 


पार्किंग 


नीचे का दृश्य 
किसी आस्थावान द्वारा बनाया गया घर 


मंदिर के पास तक गाड़ी जाने का मार्ग बना हुआ है पर चढ़ाई बहुत ही तीखी तथा घुमावदार होने की वजह से कुशल ड्रायवर ही गाड़ी ऊपर ले जाए तो ठीक है। गाड़ी खडी करने की जगह से मंदिर तक जाने के लिए करीब तीस-पैंतीस सीढ़ियां चढ़नी होतीं हैं।  इस मंदिर के सिर्फ 80-90 साल पुराना होने के बावजूद यहाँ की मान्यता बहुत है। लोगों की दृढ मान्यता है कि यहाँ बिखरे ईंट-पत्थरों से यदि एक घर का आकार बना दिया जाए तो उस इंसान का असल जीवन में घर जरूर बन जाता है। इसके साथ ही यह भी चेतावनी दी जाती है कि पहले से बना किसी आस्थावान द्वारा बनाया गया घर का ढांचा न तोड़ा जाए।      

हम सब सालासर बालाजी के दरबार में हाजरी लगा डूंगर बालाजी के दर्शनार्थ करीब दो बजे पहुँच गए थे।  जहां से तीन बजे के लगभग सीकर की ओर श्याम खाटु जी के दर्शनों का लाभ उठाने हेतु गाड़ी का मुंह मोड़ लिया गया।  
यदि कभी सालासर जाएं तो थोड़ा सा समय निकाल डूंगर बाला जी के भी दर्शन भी जरूर कर आएं। 
कल श्याम खाटु जी महाराज के दरबार में .....

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

हनुमान जी का एक और रूप, सालासर के बालाजी महाराज

श्री श्री बाला जी महाराज 
राजस्थान के चूरू जिले के एक कस्बे सुजानगढ़ से करीब 34 किलोमीटर दूर एक गांव, सालासर, जो नॅशनल हाईवे 65 पर पड़ता है. इसी के बीचोबीच स्थित है हनुमान जी का सुप्रसिद्ध बालाजी का मंदिर. जहां साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है. चैत्र और आश्विन पूर्णिमा के समय यहाँ मेला भरता है जब लाखों लोग अपनी आस्था और भक्ति के साथ यहाँ आकर हनुमान जी के दर्शन का पुण्य लाभ उठाते हैं. 
मंदिर की चांदी जड़ी दीवारें 
मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि वर्षों पहले नागौर जिले के एक गांव असोटा के एक किसान को अपने खेत में काम करने के दौरान हनुमान जी की एक मूर्ती प्राप्त हुई. दिन था श्रावण शुक्ल नवमीं का शनिवार, साल था 1811. उसी दौरान वहाँ किसान का कलेवा ले पहुंची उसकी पत्नी ने अपनी साड़ी से मूर्ती को साफ कर उसकी वंदना की और इसकी खबर गांव के ठाकुर तक पहुंचाई। दैव योग से उसी रात ठाकुर को सपने में हनुमान जी ने दर्शन दे उस मूर्ती को सालासर गांव में रहने वाले अपने अनन्य भक्त मोहन दास के पास पहुंचाने का आदेश दिया। उधर उसी रात मोहन दास जी को भी स्वपन में उस मूर्ती को सालासर ला स्थापित करने को कहा।   


माता अंजनी 
स्थापना करते समय मोहन दास जी ने पूजा कर जो जोत जलाई थी वह आज भी वैसे ही जल रही है. उस स्थान को बालाजी की धूनी के नाम से जाना जाता है. कहते हैं कि धूनी की चुटकी भर भस्म जीभ में लगाने से शारीरिक कष्टों का निवारण हो जाता है. मोहन दास जी की समाधी बालाजी मंदिर के पास ही बनी हुई है जहां उनके पदचिन्हों की छाप देखी जा सकती है। 
श्री मोहनदास जी की धूनी 

यहाँ की हनुमान जी की प्रतिमा देश में उपलब्ध उनकी बाक़ी मूर्तियों से बिल्कुल अलग और न्यारी है. ऎसी प्रतिमा का और कहीं होने की जानकारी भी नहीं है। सालासर की प्रतिमा में हनुमान जी का चेहरा दाढ़ी और मूंछों से आच्छादित है जिसका और कोई उदाहरण नहीं मिलता।  यहाँ यह भी मान्यता है कि सालासर के कुओं में पानी की उपस्थिति श्री हनुमान जी के आशीर्वाद के कारण ही है. 

लक्ष्मण गढ़ से आते हुए बालाजी मंदिर से करीब दो किलो मीटर पहले उनकी माताजी अंजनी देवी का मंदिर है. जिसे बने अभी कुछ ही साल हुए हैं. मंदिर में माता अंजनी जी के अलावा राम दरबार और हनुमान जी की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं.                       

इधर जब कभी भी आना हो तो बालाजी महाराज के दर्शनों के साथ-साथ माता अंजनी के दरबार में भी जरूर जा कर उनका आशीर्वाद लें।  हमारी दिल्ली-झुंझनु-बालाजी-खाटु जी-दिल्ली का आधा चरण पूरा हो गया था. करीब साढ़े बारह बजे हम सब बालाजी के दर्शन कर सुजानगढ़ के डूंगर बालाजी के दर्शन करने रवाना हो गए थे।
विवरण कल के अंक में

# स्थानीय लोगों की सलाह पर शरद पूर्णिमा के कारण अत्यधिक भीड़ की वजह से बालाजी के दर्शनार्थ जाते समय कैमरों को सेवा-सदन में ही छोड़ दिया गया था. वैसे भी मंदिरों में आजकल फ़ोटो खींचने की मनाही है।  सो इस पोस्ट के सारे चित्र अंतरजाल की मेहरबानी से उपलब्ध हैं।    

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

दिल्ली-झुंझनु-सालासर-खाटू-दिल्ली, यात्रा भाग- 4

दिल्ली से कल रवाना होकर झुंझनु में रानी सती जी के दर्शन करने और सालासर तक पहुँचने, वहाँ भीड़ भाड होने के बावजूद जगह वगैरह मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई. साथ के बालक-बालिका भी स्वस्थ-प्रसन्न रहे, यानी हर जगह और समय प्रभू की कृपा बनी रही. रात भी अच्छी कटी....................अब आगे :-   
18.10.13. 
सुबह नींद तो जल्द खुल गयी थी फिर भी थोड़ी सुस्ती बनी हुई थी.  उधर सालासर कस्बा शायद सोया ही नहीं था.  वैसे ही ठठ्ठ के ठठ्ठ लोग उमड़े पड रहे थे. पता ही नहीं चल पा रहा था कि कौन आ रहा है और कौन दर्शन पा जा रहा है.  करीब एक किलो मीटर पीछे हनुमान जी की माँ अंजनी देवी का मंदिर है, करीब वहीं से मार्ग दो सडकों में बंट जाता है, छोटी सड़क बालाजी के मुख्य मंदिर की और चली जाती है तथा दूसरी, अपेक्षाकृत बड़ी  सुजानगढ़ की तरफ निकल जाती है.  हमारा सेवा सदन जो कस्बे के बाहरी हिस्से में स्थित है उसका मुख्य द्वार  सुजानगढ़ वाली सड़क पर था. इधर ही इतना हुजूम था तो कस्बे के अन्दर की क्या हालत होगी उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता था.  बाहर का शोर-शराबा देखने के लिए हम सदन की छत पर जा खड़े हुए.
सुहानी सुबह 
सदन की खूबसूरत छत 
छत पर लगे सौर ऊर्जा संयत्र 
सिर्फ मंदिर के कारण रंग बदलता सालासर 
दूर-दूर तक विरानगी 
छत से उतर कमरे की और जाते हुए 
सदन का प्रांगण 
वहाँ से मंदिर वाली सड़क तो नहीं दिख रही थी पर इस तरफ का नजारा साफ था. कस्बे के अन्दर की पार्किंग, वहाँ का बस अड्डा, धर्मशालाओं-होटलों की जगहों के अलावा हर वह जगह जहां गाड़ी खडी होने की थोड़ी भी गुंजायश थी, सब ठसाठस भरने के बाद इस तरफ भी गाड़ियों का रेला लगा हुआ था.  सुबह-सुबह आकाश साफ था, मौसम सुहाना था. पर समय के साथ-साथ गरमी बढ़ती जा रही थी. सदन के सामने एक टीला था जिस पर लोग चढ़-उतर, आ-जा रहे थे. समझने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि प्रकृति की पुकार के निवार्णार्थ उधर लोगों का मजमा लगा हुआ है. भगवान ने यह भी क्या जरूरत बनाई है :-). 
सदन के मुख्य द्वार पर खडी गाड़ियां 
बेतरतीबी 
टीला जहां पचासों हजार ने सकून पाया 
सालासर से सुजानगढ़ 34 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है वहाँ से करीब 10-12 किलो मीटर की दूरी पर एक पहाडी पर हनुमान जी का एक और मंदिर "डूंगर बाला जी" के नाम से स्थित है. सालासर की भीड़-भाड को देख यह तय हो पाना मुश्किल हो रहा था कि पहले कहाँ जाया जाए. एक सोच थी कि मेले का अंतिम दिन होने के कारण शायद आज दोपहर-शाम तक भीड़ और गर्मी कम हो जाए तब तक डूंगर बालाजी हो आते हैं. पर साथ ही आशंका थी की शाम को भीड़ और बढ़ गयी तो? इस तो का उत्तर हल नहीं हो पा रहा था. फिर यही तय रहा कि पहले यहीं बालाजी के दर्शन कर फिर आगे बढ़ा जाए. 

स्थानीय लोगों की सलाह पर कैमरा, पर्स, बैग इत्यादि सब कमरे में ही छोड़ दिया गया. सदन के बगल से निकलती एक पतली गली से जब मंदिर जाने वाले मार्ग पर पहुंचे तो...........फिर तो क्या !!!  वहाँ तो सैलाब था, मुंड ही मुंड, नर-नारी-अबाल-वृद्ध, भक्तों की रेलम-पेल. आदमी पर आदमी चढ़ा हुआ. उसी भीड़ में वे भी थे जिन्होंने  हर दो कदम चल फिर साष्टांग लेट कर फिर दो कदम चल प्रभू के दर्शनों का संकल्प लिया हुआ था। यह नजारा तो मुख्य मंदिर से एक किलो मीटर पहले का था. इधर धूप की तपिश भी तेज होती जा रही थी. सुनने में आ रहा था कि रात दो बजे के लाईन में लगे लोगों का नंबर अब आ रहा है. बड़ों की तो कोई बात नहीं थी पर बच्चों की चिंता होनी शुरू हो गयी थी.  हम लाईन में लगने के बारे में सोच रहे थे पर प्रभू ने हमारे लिए शायद कुछ और ही सोच रखा था. कुछ गरमी कुछ परेशानी के कारण सुश्री अलका जी का सर दर्द हो रहा था,पता लगा मंदिर के पिछवाड़े मंदिर समिति के लोग दवाईयां वगैरह ले कर बैठे हुए है। वहीं उन लोगों ने पर्ची कटवा कर दर्शन करने की सुविधा के बारे में बताया।  उन्हीं के सुझाव पर 1000 रुपये की पर्ची कटवाई गयी और उसके द्वारा निर्धारित लाईन में लग गये. लाईन जरूर छोटी थी पर भीड़ वैसी ही थी. आप अपने शरीर की हरकत से आगे नहीं बढ़ रहे थे रेला आपको आगे ले जा रहा था. यहाँ फंस कर पता चल रहा था की भीड़ में गिर जाने पर लोग कैसे हताहत होते हैं. सांस लेना भी दूभर हो रहा था. जैसे-तैसे बालाजी के सामने पहुंचे, प्रसाद चढ़ाया, नाम आँखों से प्रणाम किया और बीस मिनट में दर्शन कर बाहर भी आना हो गया. पर मन में कहीं एक अपराध बोध ने भी सर उठा लिया था. बार-बार यह मन में आ रहा था कि पैसे दे कर दर्शन करना क्या उचित था. इस बात का सदा विरोधी रहा हूँ.  लाईन चाहे कहीं भी कैसी भी लगी हो उसे तोड़ना, लांघना या अनुचित तरीके से काम निकालना ना कभी किया और ना ही करने दिया। फिर आज ऐसा कैसे हो गया. फिर बच्चों का ध्यान आया, इस जन सैलाब में उनका क्या हाल होता, शायद यही सोच प्रभू ने खुद ही यह मार्ग दिखला दिया हो। 

जो भी हो सब प्रभूइच्छा समझ फिर सदन लौटे, कुछ देर सुस्ता एक-एक कप चाय ले कुछ तारो-ताजा हो डूंगर बालाजी के दर्शन हेतु रवाना हो गये.  

दिल्ली-सालासर वाया रानीसती जी मंदिर, यात्रा भाग 3

दिल्ली से चले करीब आठ घंटे हो चुके थे पर बड़े तो बड़े छोटों तक में किसी थकान का नामो-निशान नहीं था. बस रानी सती जी के दर्शनों के बाद बाहर आने पर लोगों से पता चला था कि सालासर धाम में शरद पूर्णिमा के कारण मेला लगा हुआ है और रहने-ठहरने की जगह मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. उसी से मन में थोड़ी चिंता जागृत होगयी थी वह भी बच्चों के लिए. अंत में यही तय रहा कि सब ऊपर वाले पर छोड़ दिया जाए, जैसा वह चाहेगा वैसे ही रहेंगे। गाड़ी ने शहर के बाहर आ जब सालासर का रूख किया तो छह बज कर बीस मिनट हो रहे थे. गाड़ी और मन अपनी-अपनी रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर अग्रसर थे. 
सालासर बालाजी धाम राजस्थान के चुरू जिले में एक छोटे से कस्बे सुजानगढ़ के पास सालासर गाँव मे नॅशनल हाई-वे 65 पर स्थित है.  
सालासर मंदिर के लिए जैसे ही गाड़ी मुड़ी, कुछ-कुछ समय के उपरांत  सड़क पर  दो-चार-दस-बीस लोगों के झुण्ड नजर आने लगे. कोई पैदल, कोई टैंपो जैसे वाहन में तो कोई छोटे ट्रक में जयकारा भरता दरबार की और मंथर गति से अग्रसर था. सबकी रफ्तार इसलिए कम थी क्योंकि इन सब के आगे एक या दो युवक हनुमान जी के निशान रूपी झंडे को उठाए, दौड़ते हुए चल रहे थे. जैसे-जैसे मंदिर नजदीक आता जा रहा था वैसे-वैसे भीड़ बढती जा रही थी. सालासर में बालाजी मंदिर के करीब एक किलो मीटर पहले हनुमान जी की माता अंजनी जी का मंदिर है. अमूमन यह जगह खाली ही रहती है. यहाँ से दो रास्ते अलग होते हैं. एक सीधा मंदिर की तरफ जाता है और दूसरा सुजानगढ़ की तरफ निकल जाता है.  इस बार मेले की वजह से मंदिर की तरफ वाला रास्ता गाड़ीयों के लिए बंद कर दिया गया था. उधर सुजानगढ़ वाला रास्ता भी लोगों और गाड़ियों से अटा पडा था. जगह की सचमुच किल्लत लग रही थी. पर कहते हैं ना की प्रभू कभी अपने बच्चों को मायूस नहीं करता. सो उसी दैवयोग से हमारी रेंगती और कोई आश्रय ढूँढ़ती गाड़ी एक जगमगाती सुन्दर सी इमारत के सामने जा रुकी. 
चमेली देवी अग्रवाल  सेवा सदन 


चमेली देवी सेवा सदन 



नज़र उठा के देखा तो ऊपर नाम लिखा हुआ था "चमेली देवी अग्रवाल सेवा सदन".  समय हुआ था करीब पौने नौ का। भीड़ वहाँ भी थी फिर भी अन्दर जा पता करने की सोची। स्वागत कक्ष में बैठे सज्जन ने पहले तो साफ मना ही कर दिया पर फिर पता नहीं बच्चों या हमारे हताश चेहरों को देख तीसरे तल्ले पर स्थित एक 'सूइट' जैसी बडी जगह का, जिसमें दो आपस में जुड़े हुए कमरे अपने-अपने प्रसाधन कक्ष के साथ थे, का आवंटन दूसरे दिन ग्यारह बजे तक के लिए कर दिया. किराया मात्र  1500/-.   हमें तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी हो. उस समय तो यदि होटल वाला पांच हजार भी मांग लेता तो हम आनाकानी नहीं करते. वहीं खाने की भी व्यवस्था थी 75 रुपये थाली के हिसाब से. खाना सचमुच स्वादिष्ट था सो निश्चिंत और शांत मन से उदर पूर्ती कर  कुछ देर सदन के बाहर का जायजा भी लिया गया.

फुरसत के क्षण 





बाहर दिन रात का जैसे कोइ फर्क ही नहीं था.  लोग खुले मे, तंबुओं में, शामियाने में, जहां जगह मिली पड़े थे. उस समय भी कोई नहा रहा था, कोई मस्ती में नाच-गा रहा था तो कोइ भूख मिटाने की फिराक में भोजन का प्रबंध करने में जुटा था. हमें तो सोच कर ही सिहरन हो रही थी की यदि जगह न मिलती तो कैसे क्या होता? भगवान को धन्यवाद दे हम लौटे, किसी-किसी के एक-एक कप चाय और कॉफी का रसपान वहीं प्रांगण में बनी दुकान से करने के बाद सबने कमरे में जा अपने-अपने बिस्तर संभाल लिए.
दूसरे दिन के लिए विचार विमर्श 

घड़ी बजा रही थी 10.35.      
दूसरे दिन दर्शन करने थे. जबकि लोग बता रहे थे कि लाइन में छह से सात घंटे लग रहे हैं।  अब जो भी हो दर्शन तो करने ही थे. प्रभू इच्छा पर सब लोग कब निद्रा की गोद में चले गए पता ही नहीं चला.  
      

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

दिल्ली से झुंझनु होते हुए सालासर...... भाग 2

सुबह 10.40 पर घर से चलते वक्त साथ के बच्चों को लेकर एक चिंता सी थी कि कहीं उन्हें  इतने लम्बे सफ़र में कोई परेशानी ना हो, पर वह भी दूर हो चुकी थी. दोनों खूब तफरीह कर रहे थे. सो  बिना किसी अवरोध के हम सब करीब साढे  चार बजे झुंझनु पहुँच गये.  पुराने शहर की संकरी गलियों से होते हुए मंदिर तक जाने में लगे करीब पन्द्रह मिनटों के बाद हम रानीसती जी के भव्य मन्दिर के सामने खड़े थे.   पूरा विवरण www.kuchhalagsa.blogspot.com पर  उपलब्ध है.     
अब आगे ...................
तब के कलकत्ते, आज के कोलकाता, में रिहायश के दौरान रानी सतीजी के मंदिर का बहुत नाम सुना करते थे. पर कभी जाने का मौका नहीं मिल पाया. पिछले तीन सालों में भी इधर से दो बार सालासर जाना हुआ पर इसका जैसे ध्यान ही नही रहा. कहते हैं जब प्रभू की इच्छा होती है तभी वे दर्शन देते हैं।  कुछ वैसा ही तो हमारे साथ हो रहा था.  वर्षों बाद जैसे एक तमन्ना पूरी हो रही थी.  सो 17 अक्टूबर की शाम साढे चार बजे हम झुंझनु की कुञ्ज गलियाँ पार कर मंदिर के सामने खड़े थे.  
रानी सती मंदिर का मुख्य द्वार   

रानीसती जी का यह करीब चार सौ साल पुराना मंदिर राजस्थान के झुंझनु शहर में स्थित है. यह भारत के प्राचीन तीर्थ स्थलों में से एक है. जो नारी शक्ति की गाथा
सामने मंदिर का द्वितीय द्वार 
द्वितीय द्वार पर बनी अद्भुत कलाकारी 

बयान करता आज भी अपने पूरे वैभव के साथ सर  उठाए खडा है. इस मंदिर की यह खासियत है कि यहाँ किसी भी प्रकार की किसी भी पुरुष या महिला की मूर्ती या तस्वीर की स्थापना नहीं है. यहाँ पूजा होती है अदृष्य शक्ति की।  वैसे भक्तों को ध्यान करने की सहूलियत के लिए  फूलों और त्रिशूल से एक आकार बना दिया गया है, जो माँ के रूप का एहसास दिलाता है। यहाँ हर साल भादों मास की अमावस्या पर एक  ख़ास पूजा का आयोजन किया जाता है जिसमे देश-विदेश के अनगिनत श्रद्धालु जन, दर्शन-पूजा का लाभ लेने यहाँ पहुंचते हैं। मुख्य मंदिर तक जाने के लिए तीन द्वार पार करने पड़ते हैं।  परिसर में हनुमान जी, शिव जी, गणेश जी तथा राम दरबार भी स्थापित हैं।  
परिसर में स्थित हनुमान जी की भव्य प्रतिमा 

मारवाड़ी समाज ख़ास कर माता के भक्त रानी सती जी को उत्तरा जो  महाभारत काल में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की पत्नी थीं, का अवतार मानते हैं। ऎसी धारणा है की युद्ध में अभिमन्यु की मृत्यु के बाद दुखी उत्तरा ने भी अपनी जान देने का निश्चय कर लिया था।  पर श्री कृष्ण के समझाने और अगले जन्म में फिर अभिमन्यु को पाने और सती होने की इच्छा पूरी होने का वरदान पा कर उसने बात मान ली थी. उसी वरदान स्वरुप उत्तरा ने अगले जन्म में नारायणी नाम से जन्म लिया और उसका विवाह हिसार के थंदन, जो अभिमन्यु का दूसरा जन्म था, के साथ हुआ. थंदन के पास एक अद्भुत घोड़ा था जिस पर हिसार के राजा के बेटे की नजर थी. उसने कई बार वह घोड़ा हथियाना चाहा पर सफल न हो सका था.  क्रोध में आ कर उसने थंदन को युद्ध के लिए ललकारा जिसमे राजा के बेटे की मौत हो गयी। इस पर राजा ने क्रोधित हो थंदन की ह्त्या नारायणी के सामने ही कर डाली। जिसके फलस्वरूप नारायणी ने उग्र रूप धर राजा और उसके सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. इसके बाद अपनी पूर्व जन्म की इच्छानुसार अपने पति के साथ सती हो स्वर्गारोहण किया तथा रानी सती के रूप में ख्याति प्राप्त  कर आज तक पूजे जाने का गौरव प्राप्त किया.    
मंदिर का पार्श्व 
पिछला द्वार 

उन्हीं की याद में बना यह मंदिर कोलकाता के "मारवारी टेंपल बोर्ड" द्वारा संचालित है तथा इसकी गिनती भारत के सबसे धनाढ्य मंदिरों में की जाती है. लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि इसका चढ़ावा  "तिरुपति बालाजी" से कुछ ही कम होता होगा.  यह मंदिर लोगों की आस्था का प्रतीक है और आस्था सदा मानवीय नियम-कानूनों से ऊपर रही है. यह मंदिर इसका साक्षात प्रतीक है.    

दर्शन कर बाहर आने पर लोगों से पता चला कि सालासर धाम में शरद पूर्णिमा के कारण मेला लगा हुआ है और रहने-ठहरने की जगह मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. हमारे वाहन चालाक राधेश्याम की भी सलाह थी कि हमें झुंझनु में ही रात बितानी चाहिए. पर मन था कि मानता ही नहीं था. जहां की सोच के चले थे, जो निदृष्ट था उसके पहले रूकने की बात गले नहीं उतर रही थी. अंत में यही तय रहा कि सब ऊपर वाले पर छोड़ दिया जाए, जैसा वह चाहेगा वैसे ही रहेंगे। गाड़ी ने शहर के बाहर आ जब सालासर का रूख किया तो छह बज कर बीस मिनट हो रहे थे. गाड़ी और मन अपनी-अपनी रफ्तार से अपनी मंजिल की और अग्रसर थे. 

कैसा रहा रात को सालासर पहुँचने पर माहौल...........कल के अंक में।   

सोमवार, 21 अक्टूबर 2013

यात्रा राजस्थान के सालासर बालाजी धाम की, झुंझनु के रानी सती मंदिर होते हुए (1)

पहली बार 2010 में राजस्थान में हनुमान जी के प्रसिद्ध धाम, सालासर बालाजी के दर्शन का सौभाग्य मुझे, श्रीमती जी, दोनों बेटे चेतन और अभय को सड़क मार्ग से "वैगन आर" द्वारा जा कर प्राप्त हुआ था. यात्रा काफी सुखद व संतोषजनक रही थी. इसी कारण 2011 में भी यात्रा दोहराई जा सकी, जिसमें कदम जी के भ्राता श्री राकेश जी, उनकी पत्नी श्रीमती स्नेह और बिटिया नेहा भी सम्मलित हुए थे. गए तो तब भी कार से ही थे पर "i-ten" को कुछ ज्यादा ही बोझ उठाना पडा था :-). कारण हाई-वे और दूरी के लिहाज से कार वाहक के रूप मे अभय पर ही सब को भरोसा था सो दूसरी कार ले जाना सर्वसम्मति से नकार दिया गया था.  पर जो भी हो यात्रा और दर्शन बहुत ही सुखदाई रहे थे. पर यह सिलसिला उसके अगले साल इच्छा होते हुए भी, यानी 2012 में  संभव नहीं हो पाया था. इसी कारण इस बार काफी पहले से ही इस यात्रा को प्रमुखता दे रखी थी. पर इस बार इसे ज़रा सा और विस्तार दे बालाजी धाम के पास के दो और तीर्थ स्थानों, झुंझनु के रानीसती जी के मंदिर और खाटु स्थित श्याम जी के मंदिर को भी शामिल कर लिया गया था. 

इसके लिए 17, 18, 19 अक्टूबर के दिन भी निश्चित हो चुके थे और हमारे अनुभवों को सुन इस बार सदस्य संख्या भी 12-13 का आंकड़ा छू रही थी. पर जैसे-जैसे दिन नजदीक आते गए सदस्यों की 'हाँ,' 'ना' का रूप धरती गयी और 16 अक्टूबर की सुबह तक हम वही 2010 वाले चारों ही बचे रहे थे और यह तय हो चुका था कि फिर अपनी "वैगन-आर" को ही हमें दर्शन करवाने का मौका दिया जाए. पर प्रभू की माया, संध्या समय राकेश जी ने अपने अकेले जाने की इच्छा जाहिर की, फिर उनसे छोटे भाई राजीव जी ने भी परिवार सहित, जिसमें आठ साल की बिटिया तथा पांच साल का खुशदिल बेटा सबका दिल बहलाने को शामिल थे.  इन्हीं सारी बातों और सदस्यों की संख्या को ध्यान में रख 16 की रात करीब साढ़े दस बजे एक ZYLO बुक़ कर ली गयी।         

17.10.13, जल्दी करते-करते भी सुबह जब गाड़ी ने घर छोड़ा तो घड़ी 10.40 का आंकड़ा दिखला रही थी. अंतरजाल और पुराने अनुभवों के आधार पर रोहतक-भिवानी-लोहारू-झुंझनु वाला मार्ग ही अपनाया गया. पर इस बार सबसे सुखद आश्चर्य सडकों की हालत देख कर हुआ. उनके साफ, समतल रूप और "वाई पासों" ने यात्रा को सुगम बनाने में बहुत मदद की. दिल्ली से रोहतक तथा कुछ हद तक भिवानी के मार्ग ने तो लालू जी की टिप्पणी की याद ताजा कर दी थी पर भिवानी शहर से बाहर निकलने तक कार के झूला बनने की स्थिति बनी रही जो कमोबेश हर शहर के अंदर से गुजरने पर मिलती रही, पर यह कुछ ही देर की परेशानी ही होती थी.
सुन्दर, साफ, समतल सड़क 
चलायमान अवस्था में भी लेखन का सुख 

 लोहारू पार करते-करते मुखद्वार से कुछ न कुछ अंदर जाते रहने के बावजूद भूख ने सर उठाना शुरू कर दिया था सो एक उपयुक्त सी जगह देख साथ लाए गए भोजन को उदरस्त कर थोड़ी-थोड़ी चाय का मजा ले फिर आगे की यात्रा शुरू की गयी.
भोजन की प्रतीक्षा 
थकान का नामोनिशान नहीं 
पूड़ी-आलू विद अचार, भई वाह  
भोजनोपरांत की तृप्ति 
कुछ घंटों की यात्रा की हल्की सी थकान और अकड़ाहट भोजन के बाद गायब हो गयी थी. चाय ने भी सोने पे सुहागे का काम किया था. यात्रा की शुरुआत से बच्चों को लेकर जो एक चिंता सी थी कि कहीं उन्हें परेशानी ना हो वह भी दूर हो चुकी थी. दोनों खूब तफरीह कर रहे थे. सो  बिना किसी अवरोध के हम सब करीब साढे  चार बजे झुंझनु पहुँच गये.  पुराने शहर की संकरी गलियों से होते हुए मंदिर तक जाने में लगे करीब पन्द्रह मिनटों के बाद हम रानीसती जी के भव्य मन्दिर के सामने खड़े थे.
रानीसती मंदिर का मुख्य द्वार



















यहीं पता चला कि सालासर में बालाजी के  दरबार में शरद पूर्णिमा के कारण मेला भरा हुआ है, जिसके कारण वहाँ  पचासों हजार लोग इकट्ठा हैं इसलिए रहने की व्यवस्था होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. वाहन चालाक की भी यही सलाह थी कि रात झुंझनु में ही बिताई जाए. पर मन नहीं मान रहा था. रानी सती माता के दर्शन और फिर कैसे क्या हुआ...........कल की  रिपोर्ट मे.

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