कैमरे के बहुत छिपाने पर भी आप देख पायेंगे, कि यह पागलपन का दौरा सिर्फ सामने की एक दो कतारों पर ही पड़ता है, पीछे बैठे लोग निर्विकार बने रहते हैं। क्योंकि सिर्फ सामने वालों का ही जिम्मा है आप पर डोरे डालने का। उनका काम ही है मौके के अनुसार हंसना, उदास होना, अचंभित दिखना या नकली आंसू बहाना। आज कल लोग बहुत कुछ समझने लगे हैं पर यह भी एक तरह की संक्रामकता है जिससे दर्शक अछूते नहीं रह सकते।
आज चाहे जिधर नज़र उठ जाए सारा समाज आडंबर ग्रस्त नजर आता है। लगता है जैसे अपने को सफल, बेहतरीन, सबल दिखाने की होड सी लगी हुई है। फिर चाहे वह कोई बाबा हो, नेता हो, अभिनेता हो या फिर कोई संस्थान, आयोजन या प्रयोजन सभी अपने मुंह मियां मिट्ठू बने अपनी-अपनी ढपली उठा सुरा या बेसुरा राग आलापते अपनी सफलता का ढोल पीटे जा रहे हैं, फिर चाहे ऐसे कालीरामों के ढोल फट कर उनकी असफलता के कर्कश स्वर से लोगों के कानों के पर्दे को ही विदीर्ण ना कर दे रहे हों।
इन दिनों छोटे पर्दे पर सबसे ज्यादा "अनरीयल रियल्टी शो" का बोलबाला है। वैसा ही कुछ अब आप अपने टी वी पर होता हुआ पाते हैं। आज कल इस छोटे सिनेमा यंत्र पर बच्चों, युवाओं, अधेडों, युवतियों, माताओं को लेकर अनगिनत तथाकथित प्रतिभा खोजी "रियल्टी शो" की बाढ सी आई हुई है। ऐसे किसी कार्यक्रम को ध्यान से देखें जिसमें लोग बहुत खुश, हंसते या तालियां बजाते नजर आते हों। कैमरे के बहुत छिपाने पर भी आप देख पायेंगे, कि यह पागलपन का दौरा सिर्फ सामने की एक दो कतारों पर ही पड़ता है, पीछे बैठे लोग निर्विकार बने रहते हैं। क्योंकि सिर्फ सामने वालों का ही जिम्मा है आप पर डोरे डालने का। उनका काम ही है मौके के अनुसार हंसना, उदास होना, अचंभित दिखना या नकली आंसू बहाना। आज कल लोग बहुत कुछ समझने लगे हैं पर यह भी एक तरह की संक्रामकता है जिससे दर्शक अछूते नहीं रह सकते। पश्चिम जर्मनी के दूरदर्शन वालों ने 'एन शैला' नामक एक महिला को दर्शकों के बीच बैठ कर हंसने के लिये अनुबंधित किया था। कहते हैं उसकी हंसी इतनी संक्रामक थी कि सारे श्रोता और दर्शक हंसने के लिये मजबूर हो जाते थे। कुछ-कुछ वैसा ही रूप आप स्तरहीन होते जा रहे "लाफ्टर शो" का संचालन करती अर्चना पूरण सिंह में पा सकते हैं।
आज तो अपनी जयजयकार करवाना, तालियां बजवाना अपने आप को महत्वपूर्ण होने, दिखाने का पैमाना बन गया है। इस काम को अंजाम देने वाले भी सब जगह उपलब्ध हैं। तभी तो लच्छू सबेरे तोताराम जी का गुणगान करता मिलता है तो दोपहर को गैंडामल जी की सभा में उनकी बड़ाई करते नहीं थकता और शाम को बैलचंद की प्रशंसा में दोहरा होता चला जाता है। आप तो उसे ऐसा करते देख एक विद्रुप मुस्कान चेहरे पर ला चल देते हैं पर उसे और उस जैसे हजारों को इसका प्रतिफल मिलता जरूर है और तब आपके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता जब आप उसे किसी निगम का सदस्य, पार्षद, किसी सरकारी संस्थान का प्रमुख और कभी तो राज्य सभा का मेम्बर तक बना पाते हैं। वैसे चाहे आप इसे चाटुकारिता या कुछ भी कह लें, यह सब अभी शुरु नहीं हुआ है, यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। हमारे यहां अधिकांश शासकों के यहां चारण और भाट ये काम करते आये हैं।
आज चाहे जिधर नज़र उठ जाए सारा समाज आडंबर ग्रस्त नजर आता है। लगता है जैसे अपने को सफल, बेहतरीन, सबल दिखाने की होड सी लगी हुई है। फिर चाहे वह कोई बाबा हो, नेता हो, अभिनेता हो या फिर कोई संस्थान, आयोजन या प्रयोजन सभी अपने मुंह मियां मिट्ठू बने अपनी-अपनी ढपली उठा सुरा या बेसुरा राग आलापते अपनी सफलता का ढोल पीटे जा रहे हैं, फिर चाहे ऐसे कालीरामों के ढोल फट कर उनकी असफलता के कर्कश स्वर से लोगों के कानों के पर्दे को ही विदीर्ण ना कर दे रहे हों।
इन दिनों छोटे पर्दे पर सबसे ज्यादा "अनरीयल रियल्टी शो" का बोलबाला है। वैसा ही कुछ अब आप अपने टी वी पर होता हुआ पाते हैं। आज कल इस छोटे सिनेमा यंत्र पर बच्चों, युवाओं, अधेडों, युवतियों, माताओं को लेकर अनगिनत तथाकथित प्रतिभा खोजी "रियल्टी शो" की बाढ सी आई हुई है। ऐसे किसी कार्यक्रम को ध्यान से देखें जिसमें लोग बहुत खुश, हंसते या तालियां बजाते नजर आते हों। कैमरे के बहुत छिपाने पर भी आप देख पायेंगे, कि यह पागलपन का दौरा सिर्फ सामने की एक दो कतारों पर ही पड़ता है, पीछे बैठे लोग निर्विकार बने रहते हैं। क्योंकि सिर्फ सामने वालों का ही जिम्मा है आप पर डोरे डालने का। उनका काम ही है मौके के अनुसार हंसना, उदास होना, अचंभित दिखना या नकली आंसू बहाना। आज कल लोग बहुत कुछ समझने लगे हैं पर यह भी एक तरह की संक्रामकता है जिससे दर्शक अछूते नहीं रह सकते। पश्चिम जर्मनी के दूरदर्शन वालों ने 'एन शैला' नामक एक महिला को दर्शकों के बीच बैठ कर हंसने के लिये अनुबंधित किया था। कहते हैं उसकी हंसी इतनी संक्रामक थी कि सारे श्रोता और दर्शक हंसने के लिये मजबूर हो जाते थे। कुछ-कुछ वैसा ही रूप आप स्तरहीन होते जा रहे "लाफ्टर शो" का संचालन करती अर्चना पूरण सिंह में पा सकते हैं।
आज तो अपनी जयजयकार करवाना, तालियां बजवाना अपने आप को महत्वपूर्ण होने, दिखाने का पैमाना बन गया है। इस काम को अंजाम देने वाले भी सब जगह उपलब्ध हैं। तभी तो लच्छू सबेरे तोताराम जी का गुणगान करता मिलता है तो दोपहर को गैंडामल जी की सभा में उनकी बड़ाई करते नहीं थकता और शाम को बैलचंद की प्रशंसा में दोहरा होता चला जाता है। आप तो उसे ऐसा करते देख एक विद्रुप मुस्कान चेहरे पर ला चल देते हैं पर उसे और उस जैसे हजारों को इसका प्रतिफल मिलता जरूर है और तब आपके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता जब आप उसे किसी निगम का सदस्य, पार्षद, किसी सरकारी संस्थान का प्रमुख और कभी तो राज्य सभा का मेम्बर तक बना पाते हैं। वैसे चाहे आप इसे चाटुकारिता या कुछ भी कह लें, यह सब अभी शुरु नहीं हुआ है, यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। हमारे यहां अधिकांश शासकों के यहां चारण और भाट ये काम करते आये हैं।
रोम के सम्राट नीरो ने अपनी सभा में काफी संख्या में ताली बजाने वालों को रोजी पर रखा हुआ था। जो सम्राट के मुखारविंद से निकली हर बात पर करतलध्वनी कर सभा को गुंजायमान कर देते थे।
ब्रिटेन में किराये के लोग बैले नर्तकों के प्रदर्शन पर तालियों की शुरुआत कर दर्शकों को एक तरह से मजबूर कर देते थे प्रशंसा के लिये। पर इस तरह के लोगों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। ब्रिटेन में ही एक थियेटर में ऐसी हरकत करने वाले के खिलाफ एक दर्शक ने 'दि टाईम्स' पत्र में शिकायत भी कर दी थी। पर उसका असर उल्टा ही हो गया, लोगों का ध्यान इस कमाई वाले धंधे की ओर गया और बहुत सारे लोगों ने यह काम शुरु कर दिया। जिसके लिये बाकायदा ईश्तिहारों और पत्र लेखन द्वारा इसका प्रचार शुरु हो गया।
इटली में भी यह धंधा खूब चल निकला। धीरे-धीरे इसकी दरें भी निश्चित होती चली गयीं। जिनमें अलग-अलग बातों और माहौल के लिये अलग-अलग कीमतों का प्रावधान था। बीच-बीच में इसका विरोध भी होता रहा पर यह व्यवसाय दिन दूनी रात अठगुनी रफ्तार से बढता चला गया।
इसलिए यदि आप किसी को किसी के लिए बिछते देखें, कदम बोसी करते देखें, अकारण किसी का स्तुति गान करते पाएं तो उस महानुभाव को हिकारत की दृष्टि से ना देखें हो सकता है कल आपको ही उसे सम्मान देना पड जाए।
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (25-09-2013) टोपी बुर्के कीमती, सियासती उन्माद ; चर्चा मंच 1379... में "मयंक का कोना" पर भी है!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन.
जय जय जय घरवाली
यह धंधा आज भी फल फूल रहा है।
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