शनिवार, 14 सितंबर 2013

लगता है चुनावी मौसम आसन्न है

प्रकृति के निश्चित मौसमों के अलावा भी हमारे देश में एक मौसम होता है, चुनावी मौसम। हालांकी यह हर साल नहीं आता और होता भी अल्पकालीन ही है पर इसका समग्र प्रभाव दीर्घकालिक होता है। इसके आने के पहले इसके लक्षण प्रकट होने लगते हैं जिससे इसके आगमान की पूर्व सूचना मिलने लग जाती है। जैसे नेता रूपी शेर जनता रूपी बकरी के सर पर अपना वात्सल्य भरा हाथ फेरने लगता है। उसकी सारी क्रूरता, अक्खडता, तानाशाही तिरोहित हो जाती है। मुखारविंद से शब्द रूपी फूल टपकने लगते हैं। अचानक सर्वहारा के प्रति उसका ममत्व, अपनत्व, प्रेमत्व सब झरने की तरह प्रवाहित होने लगता है। आमजन के परोपकार की भावनाएं उसके मन में उछालें मारने लगती हैं, जिसके चलते वह मंच पर खडा हो अत्यंत विश्वास के साथ धारा प्रवाह वादों की ऐसी झडी लगा देता है कि ऊपर बैठा भगवान भी भौंचक्का रह जाता है क्योंकि इतने वादे पूरे करना शायद उसके भी वश में नहीं होता। कुछ ऐसा ही समा बधने लगा है इसीलिए लग रहा है कि चुनावी मौसम आसन्न है।  

चुनावी भाषणों में बेधडक सत्य की आड लेकर सत्य की ही हत्या की जाती है। 'टेनिसन' ने भी एक बार कहा था कि युद्ध में तलवार, प्रेम में छल और चुनाव में जीभ ये सबसे पहले सत्य की ही हत्या करते हैं। दसियों बार ऐसे धोखे खाने के बावजूद भी जनता बार-बार ऐसे लोगों का विश्वास करती है और बार-बार धोखा खा कर हाथ मलती रह जाती है। 

फिर भी चाहे जो हो हमारे प्रजातंत्र में यह चुनाव अति आवश्यक हैं। जरूरत है चंद मुट्ठी भर लोगों के बहकावे में ना आकर अपने तर्क, बुद्धि तथा विवेक के सहारे आमजन को, जिसके भरोसे, जिसके बलबूते पर ही हिमालय की तरह अडिग हमारा गणराज्य खडा है, नितिगत सही फैसले लेने होंगे। उसे सामने वाले तथाकथित नेता के आभामंडल से बिना प्रभावित या दिग्भ्रमित हुए यह समझ लेना होगा कि सभी बोली गयी बातें मान लेने के लिए नहीं होतीं और ना ही सामने वाला हर मनुष्य अनुकरण करने लायक होता है। उल्टे बकौले गालिब उसे सामने वाले को यह एहसास करवा देना होगा कि “तेरे कसमों वादों का एतबार नहीं हमें”। 

यह भी कटु सत्य है कि आज के माहौल में जनता के पास भी कोई ज्यादा विकल्प नहीं होते। घूम-फिर कर वही चेहरे अलग-अलग “पोशाकें” पहने नाटक करते नज़र आते हैं। इसलिए भले ही विकल्प ना हो पर अपने तेवरों से सामने वाले को मौका देने के साथ-साथ यह एहसास दिला देना बहुत जरूरी है कि एक बार हाथ जोड कर वर्षों के राशन-पानी का इंतजाम कर लेने वाले दिन लद गये। यदि गद्दी सौंपी है तो उसे वहां से झटके से बेदखल भी किया  जा सकता है। ऐसा नहीं है कि येन-केन-प्रकारेण कुर्सी हासिल हो गयी तो वह बपौती बन गयी। पद की मर्यादा, जनता का ख्याल और अपना उत्तरदायित्व भूलते ही कभी भी अर्श से फर्श पर लाया जा सकता है। यह खौफ यदि सर्वहारा नेताओं के दिलो-दिमाग में भर सके तभी देश और उसकी जनता खुशहाल होकर  चैन की सांस ले पाएगी।

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच कहा, सत्य सदा प्रतीक्षित रहता है, जब तक उसके जीतने की वेला नहीं आती।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ललित जी, हार्दिक धन्यवाद

दिगम्बर नासवा ने कहा…

इतना सब कुछ होता है पर फिर भी जागते नहीं हैं हम ... क्या है ये ...

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