गुरुवार, 21 जून 2012

घिर आए बदरा


इसके दूसरे पक्ष की बात आज नहीं क्योंकि वैसे भी इसमें इसका दोष नहीं होता। हमारी धन-लोलूपता, लिप्सा और बेवकूफियों की वजह से इसे मजबूरीवश  रौद्र-रूप धारण कर हमें बार-बार सचेत करना पडता है।

जब भयंकर गर्मी अपने रौद्र रूप से सारे इलाके को त्रस्त कर रख देती है, जिसके फलस्वरूप जल का गहराता संकट, निर्जीव पादप, बेचैन प्राणी जगत के साथ दिनकर के प्रकोप से सारी धरा व्याकुल हो उठती है तब प्रकृति फिर करवट बदलती है और पहुंचती है पावन पावस की ऋतु।

सारी कायनात जैसे इसी परिवर्तन की राह देख रही होती है। मौसम की यह खुशनुमा हरित क्रांति सबके अंतरमन को अभिभूत कर देती है। सतरंगी फूलों से श्रृंगार किए, धानी चुनरी ओढे, दूब के मुलायम गलीचे पर जब प्रकृति हौले से पग रखती है, आकाश में जहां सूर्य का एकछत्र राज होता था वहां अब जल से भरे मेघ अपना अधिकार जमा लेते हैं। कारे-कजरारे मेघों से झरने लगती हैं नन्हीं-नन्हीं बूंदें, जो नन्हीं ही सही पर बडी राहत प्रदान करती हैं। कभी इनकी ओर ध्यान दें तो इनके झरने में एक अलौकिक संगीत का आभास होगा। वर्षा ऋतु मनभावन ऋतु तो है ही, मादकता की संवाहक भी है। आत्मीयता के तार जुडने लगते हैं इस वक्त। धरा आकाश जैसे एक हो जाते हैं। इंद्रधनुष की किरणों के साथ-साथ नभकी अलौकिकता भी धरा पर उतरती है। नभ के अमृत से वसुधा सराबोर हो उठती है। वर्षा में भीगने के बाद सारी प्रकृति को जैसे नया रूप। नया जीवन मिल जाता है। वन-बाग, खेत-खलिहान, नर-नारी, पशु-पक्षी, पेड-पौधे यानि पृथ्वी के कण-कण का मन-मयूर नाचने-गाने को आतुर हो उठता है।

प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों से लेकर आज तक शायद ही कोई कवि या रचनाकार हुआ हो जो इस ऋतु के प्रेम-पाश से बच सका हो। जहां आदिकवि वाल्मीकि ने रामायण में पावस ऋतु का उल्लेख वियोग-श्रृंगार के माध्यम से श्री राम द्वारा विस्तार से करवाया है, वहीं संस्कृत के महाकवि कालीदास ने तो मेघ को संदेशवाहक ही बना डाला है। उन्होंने वर्षाकाल की तुलना नृपति से कर ऐसा अनुपम वर्णन किया है जो काव्य-जगत में अप्रतीम है।

अपने देश के हर प्रदेश के लोक-गीतों में वर्षा ऋतु को माध्यम बना असंख्य गीतों की रचना की गयी है। संगीतकारों ने इसकी रिम-झिम से प्रेरणा लेकर एकाधिक रागों की रचना कर डाली है। फिल्म-जगत भी इसकी मधुरता को भुनाने में पीछे नहीं रहा है। एक से बढ कर एक बरखा गीत फिल्मों में फिल्माए गये हैं जिनमें से बहुतेरे आज भी श्रोताओं के कानों में रस घोलते रहते हैं।

स्वागत है इस जीवनदायीनी ऋतु का जो अपने रम्य रूप में अठखेलियां करती शशक या मृग शावक सी पूरे प्राणी-जगत के दिलों में नये रंग बिखेर जाती है। बसंत यदि ऋतु-राज है, तो वर्षा ऋतु-साम्राज्ञी है। बसंत प्राणी-मात्र पर शासन कर सकता है पर यह तो कण-कण में प्राण फूंक कर उसे सजीव कर देती है।

इसके दूसरे पक्ष की बात आज नहीं क्योंकि वैसे भी इसमें इसका दोष नहीं होता। हमारी धन-लोलूपता, लिप्सा और बेवकूफियों की वजह से इसे मजबूरीवश  रौद्र-रूप धारण कर हमें बार-बार सचेत करना पडता है।

7 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कुछ नया निकलेगा, इस वर्षा में..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सुंदर पोस्ट ॥

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (23-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

sunder lekh.

Rajesh Kumari ने कहा…

बहुत सुन्दर मन भावन सा प्राकर्तिक सौंदर्य का वर्णन वाकई कुछ अलग सा जो आलेख की गंभीरता ओर कवित्व ह्रदय की चंचलता दोनों का आद्भुत संगम प्रतीत होता है ...बहुत सुन्दर

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

P.N. Subramanian ने कहा…

सुन्दर आलेख. हम तो कहेंगे "जम के बरस" और पूरी कसर लिकल जाए.

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